टूटका गुरु

सुमित्रा मौर्य (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

क़रीब पचास साल पहले की बात है। तब भारत के स्कूलों में मास्टर बच्चों की जमकर पिटाई करते थे। मोटा डंडा, पतली छड़ी या लकड़ी का स्केल—कुछ भी हाथ में हो, बस ग़लती होते ही बच्चों की हथेली पर बरस जाता था। बच्चे ऐसे मास्टर के नाम से थर-थर काँपते थे। कुछ तो रोज़ स्कूल से छुट्टी मार लेते, और जो जाते भी थे तो मन में यही प्रार्थना करते कि काश आज मास्टर जी बीमार हो जाएँ या कोई चमत्कार हो जाए जिससे वो स्कूल न आएँ। 

जब मास्टर हथेली पर पूरा ज़ोर लगाकर मारते थे तो हाथ झनझना जाता था, आँखों से आँसू ख़ुद-ब-ख़ुद निकल आते थे। बच्चे अपनी हथेली आपस में रगड़ते, दर्द भगाने की कोशिश करते। अगर कभी एक मार ख़ाली चली जाती तो दो-तीन बार और पड़ती थी। लड़कों की पिटाई आम थी, जबकि लड़कियों को अक्सर खड़ा रहने की सज़ा दी जाती थी। 

हमारे स्कूल में संस्कृत के मास्टर जी कुछ ज़्यादा ही सख़्त थे। अगर किसी ने होमवर्क नहीं किया, कुछ पूछा गया और जवाब नहीं आया, या ज़रा सी भी ग़लती हो गई तो पिटाई तय थी। बच्चे उनसे परेशान थे। कोई मन ही मन उन्हें ख़ूब गालियाँ देता, मगर डर ऐसा कि शिकायत करने का तो सवाल ही नहीं उठता था। शायद मास्टर जी को अपनी बात मनवाने का कोई और तरीक़ा आता ही नहीं था। 

एक दिन सोनू नाम का लड़का अपने दोस्त प्रदीप से बोला, “मैं एक टूटका जानता हूँ, आज देखना मुझे मार नहीं पड़ेगी।” उस दिन संस्कृत का पीरियड था। मास्टरजी एक-एक करके बच्चों की कॉपी चेक कर रहे थे। जो बच्चे होमवर्क नहीं लाए थे, उनकी पिटाई हो रही थी और एक चेतावनी के साथ छोड़ दिया जा रहा था। संयोग से उस दिन सोनू का नंबर ही नहीं आया और संस्कृत की क्लास का समय ख़त्म हो गया। अगली पीरियड गणित का था, और सोनू पिटाई से बच गया। 

प्रदीप की उस दिन पिटाई हो गई थी। उसने सोनू से कहा, “मुझे भी वो टूटका बता दे, हाथ में बहुत दर्द हो रहा है।” 

सोनू ने बताया, “दो चपटे पत्थर ले और उन्हें सात बार रगड़, ये बोलते हुए–‘टूटका गुरु, हमें बचा लो’। फिर पत्थरों को स्कूल के मैदान में एक के ऊपर एक रख देना, और प्रणाम करके क्लास में जाना। मास्टरजी कुछ नहीं कर पाएँगे। पर ध्यान रखना, पत्थर गिरने नहीं चाहिएँ, वरना टूटका फ़ेल हो जाएगा।” 

प्रदीप ने दो पत्थर ढूँढ़े, साफ़ किए, जेब में रखा और तय किया कि अगले दिन सबसे पहले टूटका करेगा। 

अगले दिन सुबह वह जल्दी स्कूल पहुँचा। सीधे मैदान में गया, पत्थर निकाले, सात बार रगड़े और हर बार बोला, “हे टूटका गुरु, हमें बचा लो।” उसने सावधानी से एक पत्थर के ऊपर दूसरा रखा और प्रणाम किया, फिर क्लास में जाकर बैठ गया। 

संस्कृत की क्लास शुरू हुई। मास्टरजी आए, पर उनके साथ एक चपरासी भी आया। उसके हाथ में रजिस्टर था—नोटिस था कि आज सभी बच्चों को टीका लगना है। मास्टरजी को ये ज़िम्मेदारी दी गई थी कि सभी बच्चे समय से हॉल में पहुँचें। प्रदीप को उस दिन यक़ीन हो गया कि टूटका सचमुच काम करता है—पिटाई से बच गया! 

अगले दिन फिर वही दोहराया। मैदान में जाकर टूटका किया और निश्चिंत होकर क्लास में आ गया। मास्टरजी आए और बोले, “सब लोग चुपचाप पढ़ाई करो, मुझे बोर्ड ऑफ़िस जाना है।” प्रदीप के चेहरे पर मुस्कान थी। उसने छुट्टी होते ही मैदान में जाकर दोनों पत्थरों को माथे से लगाया, और बहुत सावधानी से रुमाल में लपेटकर जेब में रख लिया। अब वो पत्थर कोई आम पत्थर नहीं थे—वे तो उसके रक्षक बन चुके थे। उसे पूरा विश्वास हो गया था कि जब तक ये पत्थर साथ हैं, मास्टरजी कुछ नहीं कर सकते। 

तीसरा दिन आया। प्रदीप ने फिर वही किया—मैदान में जाकर टूटका किया और क्लास में बैठ गया। आज तो वो और भी बेफ़िक्र था। संस्कृत का पीरियड शुरू हुआ। मास्टरजी आए और बोले, “बेटा, दो दिन से तो तुम सब बचते रहे। अब सब लोग रूपक सुनाओ और एक-एक करके कॉपी चेक करवाओ।” 

अब हाल ख़राब हो गया। जिसने होमवर्क नहीं किया था, उसकी पिटाई हुई। जो रूपक नहीं सुना पाया, उसे दो बार छड़ी से मार पड़ी। प्रदीप दोनों ही कसौटी पर खरा नहीं उतर पाया—दो बार पिटा। 

स्कूल ख़त्म होते ही वह सीधे मैदान में गया, यह देखने कि कहीं टूटका फ़ेल तो नहीं हुआ, शायद कोई जानवर पत्थर गिरा गया हो। लेकिन नहीं—पत्थर तो वैसे के वैसे रखे थे। तब उसे समझ आया कि ये सब बस एक संयोग था, कोई चमत्कार नहीं। उसने दोनों पत्थर वहीं फेंक दिए और चुपचाप घर चला गया। 

बच्चे अपनी दुनिया में कई बार ऐसे विश्वास गढ़ लेते हैं जो बड़ों को हास्यास्पद लग सकते हैं, पर उनके लिए वो एकदम असली होते हैं। लेकिन जब हक़ीक़त सामने आती है, तो भ्रम भी टूटता है और एक मीठा-सा सबक़ भी मिल जाता है। 

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