तुम फूलों सी हँसती रहो

01-12-2021

तुम फूलों सी हँसती रहो

लवेश मिश्र (अंक: 194, दिसंबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

कई दिनों से तुम, 
टूटी क़लम से लिखी कविता सी, 
बिखरी-बिखरी
स्वंय में टूटी, स्वयं में सिमटी– अनासक्त 
अलग अलग सी रहती हो, कि
जैसे—
हर साँझ की बहुत पुरानी लम्बी रुँआसी कहानी हो तुम,
सूर्य की किरणों पर अब जिसका कोई अधिकार न हो 
और अनाश्रित रात की शय्या भी जैसे— 
उसके लिए हो गोद सौतेली, 
सुना है तुम रातों को सो नहीं पाती। 
 
रखती हो क़दम, 
पेड़ से छनकर आते टुकडों पर, 
कि, जैसे पतझड़ में सूखे पीले पत्ते हों बिखरे आँगन में, 
और तुम व्यथित . . . संतापी . . . 
झुक-झुक कर बटोरना चहती हो उनको
अपनी परिवेदना को उनसे संगति देने के लिए; 
पर वह सूखे पीले पत्ते नहीं हैं, 
वे उखड़ी चाँदनी के धब्बे हैं
जो पकड़ में नहीं आते और 
तुम उदास, निराश, असंतुलित–
लौट आती हो कमरे में।
 
अब भी सो नहीं पाती हो, और ऐंठन में
पुराने फटे अख़बार सी अरुचिकर
अनाहूत, अनिमंत्रित ‘अवशेष रात’ को
सुबह होने तक ख़यालों में मरोड़ती हो, 
स्वयं को मसोसती हो . . . 
 
शायद जानता हूँ मैं! 
और फिर सोचता हूँ . . . 
और सोचता हूँ . . . कि, 
तुम टूटी क़लम से लिखी कविता सी
इतनी बिखरी-बिखरी क्यूँ रहती हो? 
मेरा मन कहता है, “तुम हमेशा फूलों सी हँसती रहो।“

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