तोता

रवीन्द्रनाथ टैगोर  (अंक: 248, मार्च प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

प्रेषिका, उषा बंसल

(साभार: रबीन्द्रनाथ टैगोर का बाल-साहित्य)

 

नोट: इस कहानी को पढ़ते हुए जाने क्यों राम मंदिर के निर्माण से लेकर रामलला के मंदिर पहुँचने, रामलला की प्राण प्रतिष्ठा तथा भक्तों की संख्या और उससे जुड़ी व्यवस्था आँखों के सामने घूमने लगी। आप भी इसका दिल थाम कर आनंद उठायें।

रविन्द्र नाथ ठाकुर आज भी अपनी ऐसी कालजयी रचनाओं के माध्यम से जीवित हैं।

1.
एक था तोता। वह बड़ा मूर्ख था। गाता तो था, पर शास्त्र नहीं पढ़ता था। उछलता था, फुदकता था, उड़ता था, पर यह नहीं जानता था कि क़ायदा-क़ानून किसे कहते हैं।

राजा बोले, “ऐसा तोता किस काम का? इससे लाभ तो कोई नहीं, हानि ज़रूर है। जंगल के फल खा जाता है, जिससे राजा-मण्डी के फल-ब़ाजार में टोटा पड़ जाता है।”

मंत्री को बुलाकर कहा, “इस तोते को शिक्षा दो!”

2.
तोते को शिक्षा देने का काम राजा के भाँजे को मिला।

पण्डितों की बैठक हुई। विषय था, “उक्त जीव की अविद्या का कारण क्या है?” बड़ा गहरा विचार हुआ।

सिद्धान्त ठहरा: तोता अपना घोंसला साधारण खर-पात से बनाता है। ऐसे आवास में विद्या नहीं आती। इसलिए सबसे पहले तो यह आवश्यक है कि इसके लिए कोई बढ़िया-सा पिंजरा बना दिया जाय।

राज-पण्डितों को दक्षिणा मिली और वे प्रसन्न होकर अपने-अपने घर गये।

3.
सुनार बुलाया गया। वह सोने का पिंजरा तैयार करने में जुट पड़ा। पिंजरा ऐसा अनोखा बना कि उसे देखने के लिए देश-विदेश के लोग टूट पड़े। कोई कहता, “शिक्षा की तो इति हो गयी।” कोई कहता, “शिक्षा न भी हो तो क्या, पिंजरा तो बना। इस तोते का भी क्या नसीब है!”

सुनार को थैलियाँ भर-भरकर इनाम मिला। वह उसी घड़ी अपने घर की ओर रवाना हो गया।

पण्डितजी तोते को विद्या पढ़ाने बैठे। नस लेकर बोले, “यह काम थोड़ी पोथियों का नहीं है।”

राजा के भाँजे ने सुना। उन्होंने उसी समय पोथी लिखनेवालों को बुलवाया। पोथियों की नक़ल होने लगी। नक़लों की और नक़लों की नक़लों के पहाड़ लग गये। जिसने, भी देखा, उसने यही कहा कि, “शाबाश! इतनी विद्या के धरने को जगह भी नहीं रहेगी!”

नक़लनवीसों को लद्दू बैलों पर लाद-लादकर इनाम दिये गए। वे अपने-अपने घर की ओर दौड़ पड़े। उनकी दुनिया में तंगी का नाम-निशान भी बाक़ी न रहा।

दामी पिंजरे की देख-रेख में राजा के भाँजे बहुत व्यस्त रहने लगे। इतने व्यस्त कि व्यस्तता की कोई सीमा न रही। मरम्मत के काम भी लगे ही रहते। फिर झाड़ू-पोंछ और पालिश की धूम भी मची ही रहती थी। जो ही देखता, यही कहता कि “उन्नति हो रही है।”

इन कामों पर अनेक-अनेक लोग लगाये गये और उनके कामों की देख-रेख करने पर और भी अनेक-अनेक लोग लगे। सब महीने-महीने मोटे-मोटे वेतन ले-लेकर बड़े-बड़े सन्दूक भरने लगे।

वे और उनके चचेरे-ममेंरे-मौसेरे भाई-बंद बड़े प्रसन्न हुए और बड़े-बड़े कोठों-बालाखानों में मोटे-मोटे गद्दे बिछाकर बैठ गये।

4.
संसार में और-और अभाव तो अनेक हैं, पर निन्दकों की कोई कमी नहीं है। एक ढूँढ़ो हज़ार मिलते हैं। वे बोले, “पिंजरे की तो उन्नति हो रही है, पर तोते की खोज-ख़बर लेने वाला कोई नहीं है!”

बात राजा के कानों में पड़ी। उन्होंने भाँजे को बुलाया और कहा, “क्यों भाँजे साहब, यह कैसी बात सुनाई पड़ रही है?”

भाँजे ने कहा, “महाराज, अगर सच-सच बात सुनना चाहते हों तो सुनारों को बुलाइये, पण्डितों को बुलाइये, नक़लनवीसों को बुलाइये, मरम्मत करनेवालों को और मरम्मत की देखभाल करने वालों को बुलाइये। निन्दकों को हलवे-माँड़े में हिस्सा नहीं मिलता, इसीलिए वे ऐसी ओछी बात करते हैं।”

जवाब सुनकर राजा नें पूरे मामले को भली-भाँति और साफ़-साफ़ तौर से समझ लिया। भाँजे के गले में तत्काल सोने के हार पहनाये गये।

5.
राजा का मन हुआ कि एक बार चल कर अपनी आँखों से यह देखें कि शिक्षा कैसे धूमधड़ाके से और कैसी बगटुट तेज़ी के साथ चल रही है। सो, एक दिन वह अपने मुसाहबों, मुँहलगों, मित्रों और मन्त्रियों के साथ आप ही शिक्षा-शाला में आ धमके।

उनके पहुँचते ही ड्योढ़ी के पास शंख, घड़ियाल, ढोल, तासे, खुरदक, नगाड़े, तुरहियाँ, भेरियाँ, दमामें, काँसे, बाँसुरिया, झाल, करताल, मृदंग, जगझम्प आदि-आदि आप ही आप बज उठे।

पण्डित गले फाड़-फाड़कर और बूटियाँ फड़का-फड़काकर मन्त्र-पाठ करने लगे। मिस्त्री, मज़दूर, सुनार, नक़लनवीस, देख-भाल करने वाले और उन सभी के ममेंरे, फुफेरे, चचेरे, मौसेरे भाई जय-जयकार करने लगे।

भाँजा बोला, “महाराज, देख रहे हैं न?”

महाराज ने कहा, “आश्चर्य! शब्द तो कोई कम नहीं हो रहा!

भाँजा बोला, “शब्द ही क्यों, इसके पीछे अर्थ भी कोई कम नहीं!”

राजा प्रसन्न होकर लौट पड़े। ड्योड़ी को पार करके हाथी पर सवार होने ही वाले थे कि पास के झुरमुट में छिपा बैठा निन्दक बोल उठा, “महाराज आपने तोते को देखा भी है?”

राजा चौंके। बोले, “अरे हाँ! यह तो मैं बिलकुल भूल ही गया था! तोते को तो देखा ही नहीं!”

लौटकर पण्डित से बोले, “मुझे यह देखना है कि तोते को तुम पढ़ाते किस ढंग से हो।”

पढ़ाने का ढंग उन्हें दिखाया गया। देखकर उनकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। पढ़ाने का ढंग तोते की तुलना में इतना बड़ा था कि तोता दिखाई ही नहीं पड़ता था। राजा ने सोचा: अब तोते को देखने की ज़रूरत ही क्या है? उसे देखे बिना भी काम चल सकता है! राजा ने इतना तो अच्छी तरह समझ लिया कि बंदोबस्त में कहीं कोई भूल-चूक नहीं है। पिंजरे में दाना-पानी तो नहीं था, थी सिर्फ़ शिक्षा। यानी ढेर की ढेर पोथियों के ढेर के ढेर पन्ने फाड़-फाड़कर क़लम की नोक से तोते के मुँह में घुसेड़े जाते थे। गाना तो बन्द हो ही गया था, चीखने-चिल्लाने के लिए भी कोई गुंजायश नहीं छोड़ी गयी थी। तोते का मुँह ठसाठस भरकर बिलकुल बन्द हो गया था। देखनेवाले के रोंगटे खड़े हो जाते।

अब दुबारा जब राजा हाथी पर चढ़ने लगे तो उन्होंने कान-उमेंठू सरदार को ताकीद कर दी कि “निन्दक के कान अच्छी तरह उमेंठ देना!”

6.
तोता दिन पर दिन भद्र रीति के अनुसार अधमरा होता गया। अभिभावकों ने समझा कि प्रगति काफ़ी आशाजनक हो रही है। फिर भी पक्षी-स्वभाव के एक स्वाभाविक दोष से तोते का पिंड अब भी छूट नहीं पाया था। सुबह होते ही वह उजाले की ओर टुकुर-टुकुर निहारने लगता था और बड़ी ही अन्याय-भरी रीति से अपने डैने फड़फड़ाने लगता था। इतना ही नहीं, किसी-किसी दिन तो ऐसा भी देखा गया कि वह अपनी रोगी चोंचों से पिंजरे की सलाखें काटने में जुटा हुआ है।

कोतवाल गरजा, “यह कैसी बेअदबी है!”

फ़ौरन लुहार हाज़िर हुआ। आग, भाथी और हथौड़ा लेकर।

वह धम्माधम्म लोहा-पिटाई हुई कि कुछ न पूछिये! लोहे की साँकल तैयार की गई और तोते के डैने भी काट दिये गए।

राजा के सम्बन्धियों ने हाँड़ी-जैसे मुँह लटका कर और सिर हिलाकर कहा, “इस राज्य के पक्षी सिर्फ़ बेवुक़ूफ़ ही नहीं, नमक-हराम भी हैं।”

और तब, पण्डितों ने एक हाथ में क़लम और दूसरे हाथ में बरछा ले-लेकर वह कांड रचाया, जिसे शिक्षा कहते हैं।

लुहार की लुहसार बेहद फैल गयी और लुहारिन के अंगों पर सोने के गहनें शोभने लगे और कोतवाल की चतुराई देखकर राजा ने उसे सिरोपा अता किया।

7.
तोता मर गया। कब मरा, इसका निश्चय कोई भी नहीं कर सकता।

कमबख़्त निन्दक ने अफ़वाह फैलायी कि “तोता मर गया!”

राजा ने भाँजे को बुलवाया और कहा, “भाँजे साहब यह कैसी बात सुनी जा रही है?”

भाँजे ने कहा, “महाराज, तोते की शिक्षा पूरी हो गई है!”

राजा ने पूछा, “अब भी वह उछलता-फुदकता है?”

भाँजा बोला, “अजी, राम कहिये!”

8.
“अब भी उड़ता है?”

“ना, क़तई नहीं!”

“अब भी गाता है?”

“नहीं तो!”

“दाना न मिलने पर अब भी चिल्लाता है?”

“ना!”

राजा ने कहा, “एक बार तोते को लाना तो सही, देखूँगा ज़रा!

तोता लाया गया। साथ में कोतवाल आये, प्यादे आये, घुड़सवार आये!

राजा ने तोते को चुटकी से दबाया। तोते ने न हाँ की, न हूँ की। हाँ, उसके पेट में पोथियों के सूखे पत्ते खड़खड़ाने ज़रूर लगे।

बाहर नव-वसन्त की दक्षिणी बयार में नव-पल्लवों ने अपने निश्वासों से मुकुलित वन के आकाश को आकुल कर दिया।

1 टिप्पणियाँ

  • 1 Mar, 2024 09:48 AM

    जाने क्यों आपकी भूमिका में राम मंदिर का उल्लेख और कहानी के कथ्य में रंचमात्र भी साम्य नहीं दिखा। क्षमा ये मेरे निजी विचार हैं। आपकी दृष्टि कुछ और होगी।

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