ठूँठ होते पहाड़

31-10-2008

ठूँठ होते पहाड़

सुशील कुमार

जनतंत्र नहीं, भीड़तंत्र के
सुबह की काली किरनें
समाज की मुख्य धारा से विच्छिन्न
अंतिम आदमी को
जोड़ने के बहाने अब
पहाड़ की आदिमजात बस्तियों में उतरती है
जहाँ पवित्र आत्माओं की खाल से
अपने चेहरे ढँककर
अपने सड़े कंधों पर गरजमंद
स्वयंसेवी संगठनों को ढोते हुए
विकास के गांधीवादी संस्करणों में
अपने को बदलने का नाटक करते
पहाड़ की भाषा में बोलते
पहाड़ियों के ढंग को ढोंग-से सहते हुए
भेड़िये
अपने नुकीले पंजों से
पहाड़ की देह नोंचते हैं
और जंगल के हरे सैलाब
पंजीकृत मुहरों तले
उन दहानों तक ठेलते हैं
जिसे लपकने वहाँ
विकासदूतों की लंबी कतार
इंतजार में खड़ी रहती है।

 

पहाड़ की छाती पर
दर्जनों योजनाओं की कीलें ठोंकते
बजट और फाइलों के काले अक्षरों में
विकास का परचम लहराते
मुखौटे को भी
सुनसान माँझीथान‘ में पहाड़ अगोरते
वनदेवता चुपचाप सहते रहते हैं।
ठूँठ होते पहाड़ की
विरासत में अब बचा ही क्या है!
थिगड़ों में लिपटे

 

लगातार -

 



जंगल में मौत के ‘आईस-पाईस‘ का खेल खेलते
पहाड़ियों का ठिंगना जीवन,
सूदखोर महाजनों के बिस्तरों पर
सपनों के पत्थर तोड़ती
उनसे अपने पेट साजतीं
पहाड़नों की करूण गाथाएँ,
                   अंधेरे गेहों में
                   बीमार, लाचार वृद्धाओं की दंतकथाओं में
                   सपने बुनते नंगे पहाड़ी बच्चे,
उबासी में रंभाते माल-मवेशियों के अस्थि-पंजर
और पहाड़ की पतझड़-सी काया पर
घुमते रेतीले वबंडरों के छजनी
(इसके अलावे यहाँ बचा ही क्या है अब!)

 

मैं ठिठकता हूँ
पहाड़ के पक्ष में बने
कानून की धाराओं से
और, पूछता हूँ स्वयं से -
कि वन संरक्षण अधिनियमों के
दलदल में हाँफते पहाड़ के
सुख, स्वप्न और भविष्य क्या हैं ?
दिन-दिन लुप्तप्राय हो रही इन
जनजातियों के सच में
कोयला होते आँकड़ों का अभिप्राय क्या है ?
या समय की मुर्दागाड़ी में
लदकर संग्रहालयों में
सज जाने का कोई
चिर-प्रतीक्षित सपना है,
या, दुःखों के अंतहीन जंगल हैं
पहाडियाँ की आँखों में ?
क्या है ठूंठ होते पहाड़
के वंश-बीज में ?

‘मांझीथान’ - पहाड़ियों के देवस्थल।

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