ठीकरे की मँगनी

15-07-2024

ठीकरे की मँगनी

डॉ. अशोक तिवारी  (अंक: 257, जुलाई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

[ठीकरे की मँगनी नासिरा शर्मा का एक बेहतरीन उपन्यास है, जिसमें एक औरत की कहानी है जो अपने हौसलों में बुलंद है और जो अपने पिता और शौहर से अलग उस घर की बात करती है जो उसकी अपनी मेहनत और पहचान का हो] 

ठीकरे की मँगनी उपन्यास एक औरत की कहानी है जो जैदी ख़ानदान में काफ़ी इंतज़ार के बाद पैदा हुई थी। और वो लड़की थी—महरुख़। उसके पैदा होने के साथ तमाम तरह के दुआएँ और टोटके किये गए—और ये सब था कि काफ़ी इंतज़ार के बाद पैदा हुई वह लड़की किसी तरह जी जाए। 

एक मध्यवर्गीय परिवार के अंदर जन्मी महरुख़ का करेक्टर जिस तरह विकसित होता है, वो अपने आपमें अद्भुत है। नवें दशक में आया ये उपन्यास महिलाओं के अधिकारों के प्रति जिस तरह सचेत करता है, जिस तरह की चेतना जागृत करता है—वह भी उल्लेखनीय है। पैदा होते ही महरुख़ की ठीकरे की मँगनी रफ़त भाई के साथ होती है। रफ़त पढ़ने-लिखने वाले एक होनहार इंसान के तौर पर उभरकर आते हैं। रफ़त भाई महरुख़ को आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली में लेकर आते हैं। यहाँ से महरुख़ के जीवन में बदलाव आना शुरू होता है। वह बुरक़े को उतारकर अलग रख देती है और होने वाले अपने शौहर की बातों को मानना अपने फ़र्ज़ समझती है। 

महरुख़ के अंदर आया ये बदलाव एकाएक हो गया हो, ऐसा भी नहीं है। इसके लिए रफ़त भाई के साथ उनका सम्बन्धों ने उसकी ज़िन्दगी में काफ़ी अहम भूमिका निभाई थी। साम्यवादी सोच और खुलेपन के तहत हर विषय पर अपने विचार को प्रकट तौर पर रखना महरुख़ ने सीखा था। ये वो दौर था जब बहनें अपने भाइयों के साथ पढ़ने के लिए यूनिवर्सिटी में आया करती थीं। शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए सर सैयद अहमद खान द्वारा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का वुजूद में आना निश्चित ही एक तारीख़ रही है। महरुख़ को रफ़त भाई के साथ वैचारिक तौर पर बने सम्बन्धों ने भी काफ़ी कुछ सिखाया और साथ ही उसे सिखाया उन हालातों ने जो महरुख़ के सामने रफ़त भाई के उसे अकेले छोड़कर चले जाने के बाद दरपेश हुए। 

यहाँ उपन्यास की भूमिका के तौर पर लिखी गई नासिरा शर्मा की टिप्पणी को पढ़ना यहाँ समीचीन होगा—

“मेरा विश्वास है कि इंसान दो बार जन्म लेता है, पहली बार माँ की कोख से और दूसरी बार हालत की मार से . . .। बनना वह कुछ चाहता है और बन कुछ जाता है। इंसान जैसा अंदर ऊपर से दिखता है, वैसा अंदर से होता नहीं है। किसी भी व्यक्ति के अंदर झाँकिए तो महसूस होगा कि तहख़ाने-दर-तहख़ाने, कोठरियाँ-दर-कोठरियाँ, गलियाँ-दर-गलियाँ और जाने कितने पुरपेच-ख़म रास्तों का जाल फैला है, जिस पर से वह चलकर यहाँ पहुँचा है, जहाँ पर आपसे उसकी पहली मुलाक़ात होती है और पल-भर में उसके व्यक्तित्व के बारे में ‘फ़तवा’ दे बैठते हैं।” (ठीकरे की मँगनी, कथन, पृष्ठ: 7) 

बाद में अपनी मसरूफ़ियत और पढ़ाई के चलते रफ़त भाई अमरीका चले जाते हैं। और वहाँ लिविंग-टुगैदर में वैलरी के साथ अपने को बसा लेते हैं। मगर महरुख़ भारतीय समाज में मौजूद सभी सरोकारों को निभाते हुए रफ़त भाई से सम्बन्ध बनाए रखने की आस बराबर बनाए रखती है। उसे कभी प्यार के नाम पर तो कभी रिश्तेदारी के नाम पर छला जाता है। 

पढ़ी-लिखी महरुख़ पाँच हज़ार की आबादी के एक गाँव में अध्यापिका की नौकरी कर लेती है। और इसी गाँव में अपनी ज़िन्दगी के 30 साल बिता देती है। वह स्कूल को ही अपनी मंज़िल और जीवन का उद्देश्य बनाती है। इस उपन्यास का एक मुख्य पहलू तब उभरकर आता है जब रफ़त उससे मिलने उस गाँव आता है जहाँ महरुख़ नौकरी करती है। वह माफ़ी माँगता है और पूछता है कि “क्या तुम्हारी ज़िन्दगी पर मेरा कोई हक़ नहीं रहा?” इस पर महरुख़ का जवाब पूरी पीढ़ी को एक सही समझ और सोचने के लिए एक दृष्टि देकर जाता है, “अब मेरे पास समझ है, अपना बुरा-भला ख़ुद समझ सकती हूँ। ठोस ज़मीन पर ठोस ज़िन्दगी जीना चाहती हूँ। मेरी ज़िन्दगी पर सिर्फ़ मेरा हक़ है।” 

इस उपन्यास में महरुख़ के चरित्र का जो विकास है, उसे समझने की ज़रूरत है। किस तरह से एक लड़की गाँव की परिधि से निकलकर अपने मंगेतर के साथ एक बड़े शहर में आई, वहाँ के तौर तरीक़े सीखे। विचारों में खुलेपन को स्वीकारते हुए अपने अंदर हर सम्भव सुधार किए। विपरीत और विषम परिस्थितियों में जूझने का हौसला पैदा किया। बेहतर इंसान के तौर पर संस्कृति के तमाम अध्याय पढ़े और एक टीचर के तौर पर सामाजिक बदलाव में एक प्रमुख भूमिका निभाई। गाँव में जाकर स्कूल टीचर के नाते अपनी एक पहचान बनाई और सामाजिक बदलाव की भूमिका निभाते हुए अपने जीवन को उन लोगों को समर्पित कर दिया जिनके बीच वो क़रीब तीन दशक तक रही। रफ़त भाई जो महरुख़ को दिल्ली में छोड़कर अमरीका चले गए थे, लौटकर जब सालों बाद महरुख़ के पास उस गाँव में पहुँचते हैं जहाँ वो टीचर है तो वे महसूस करते हैं कि, 

“मैं तो साम्यवाद को किताबों और भाषणों में ढूँढ़ता रहा, मगर महरुख़ ने उसे इस गाँव में रहकर ढूँढ़ किया है और पाने के बाद अपनी दिनचर्या में शामिल कर लिया है।” (पृष्ठ। 128) 

सिद्धांत और क्रियान्वयन में तालमेल क्यों ज़रूरी है, इसे हम यहाँ से जान सकते हैं। महरुख़ ने वो सब करके दिखा दिया जिसे रफ़त ताउम्र सैद्धांतिक तौर पर पढ़ते-पढ़ाते रहे। मगर रफ़त को यह बात क़तई समझ नहीं आ रही थी कि पढ़-लिखकर गाँव में जाकर टीचिंग करने में क्या हासिल होगा। महरुख़ की सोच का पैमाना क्या है, वो समझ ही नहीं पा रहे थे। उन्हें लगता था कि हावर्ड से पीएच.डी. करने के बाद ऊँचे ही ऊँचे चढ़ना है न कि पीछे की जाना। उनकी सोच में गाँव में जाकर काम करना एक तरह से उल्टी गंगा बहाने जैसा है। उन्हें नहीं मालूम था कि महरुख़ अपनी ईमानदारी, मेहनतकश सोच और इंसानियत का पाठ न जाने कितने लोगों को पढ़ा रही थी। बहुत लोगों के लिए लिए वे प्रेरणा स्रोत बन रही थीं जो देश के विकास के सही मायने को समझ रही थीं। वे एक जगह ठहरकर लोगों के साथ हर सुख-दुःख में साथ होकर चलने में और यक़ीन करती थीं। और इसी भाव के साथ तमाम मुद्दों पर लोगों में जागरूकता पैदा करना अपना काम समझती थीं। मगर हावर्ड में पढ़ने के बावजूद रफ़त भाई इस बात को समझने में समर्थ नज़र नहीं आ रहे थे और लगातार अपने करियर के लिए कथित तौर पर ऊँचाइयाँ चढ़ रहे थे। 

नासिरा शर्मा ने इस उपन्यास में एक और ज़रूरी बात उठाया है और वह है सार्वजानिक तौर पर छुट्टी। महरुख़ 26 जनवरी और 15 अगस्त के अलावा किसी भी अवसर को सार्वजानिक तौर पर छुट्टी करने की हिमायत नहीं करती। पुस्तक चर्चा के दौरान रमेश विकास इस बात पर ऐतराज़ दर्ज कराते हैं कि लेखिका ने यह बात जानते-बूझते की है जब उपन्यास के मुख्य पात्र द्वारा इन दोनों दिनों के अतिरिक्त किसी और त्योहार को मान्यता देने वाली बात कहलवाई है। इसे समझना ज़रूरी है। दरअसल महरुख़ 26 जनवरी और 15 अगस्त के अलावा सभी त्योहारों को व्यक्तिगत स्तर पर मनाये जाने की हिमायती है। हम अगर देखें तो कितने ही त्योहारों के चलते हम स्कूल में या काम से छुट्टियों करते हैं। व्यक्तिगत तौर पर माने जाने वाले सभी लोग अपने-अपने त्योहार मनाएँ, एक दूसरे के साथ शेयर भी करें परन्तु इस दो राष्ट्रीय त्योहारों को हम ख़ूब धूम-धाम से मनाएँ। शम्भुनाथ मिश्र, ओमीश परूथी, सगीर अशरफ़, सरिता सूद, देवनारायण आसोपा और विभा रानी और रवीन्द्रनाथ ओझा आदि समीक्षकों की तीन दशक पहले की गई टिप्पणियाँ उपन्यास को प्रामाणिकता प्रदान करती हैं। 

ये उपन्यास दरअसल देश के अंदर आई एक नई सोच और परिवर्तन को रेखांकित करता है, उस ज़रूरत को भी जो गाँव-देहात और शहरों में तमाम तरह की उस जकड़बंदी से निकलने के लिए ज़रूरी है जो समाज को बँधे बँधाए ढर्रों में बाँधे रखते हैं। साथ ही यह भी कि पढ़ाई-लिखाई करना और व्यावहारिक तौर पर चीज़ों को समझने और करने में बहुत फ़र्क़ है। इस बात का महरुख़ का किरदार पुरज़ोर समर्थन करता है। नासिरा शर्मा ने तीसरे घर की अवधारणा को इसमें पुष्ट किया। नए घर की अवधारणा और नई सोच के उभार के साथ स्वावलंबी महरुख़ एक मिसाल पेश करती है। उस अवधारणा को सबके सामने रखते हुए वह चौंका देती है जब सब कुछ छोड़कर उस घर में बसने के लिए चले जाती है जिसे उसने 30 साल मेहनत करके कमाया था—सभी लोगों के बीच और सभी लोगों के साथ। 

“एक घर औरत का अपना भी तो हो सकता है जो उसके बाप और शौहर के घर से अलग, उसकी मेहनत और पहचान का हो।” (पृष्ठ। 197) 

और अपने द्वारा कमाए गए उस घर में पहुँचकर महरुख़ एक सुकून और चैन महसूस करती है, जहाँ सब लोग उसे उतना ही प्यार, अपनापन और गर्माहट के साथ स्वागत करते हैं जितना वे 6 साल पहले किया करते थे। और महरुख़ इस भाव को अंदर तक कहीं गहरे महसूस करती है कि “यह मिट्टी, यह हवा, यह पानी, यह ज़मीन मेरी पहचान है।” 

भारतीय समाज के ताने-बाने को जानने और उसकी गुत्थियों को समझने के लिए नासिरा शर्मा के इस उपन्यास को पढ़ा जाना बेहद ज़रूरी है। 

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