ठंडे हाथ

15-02-2022

ठंडे हाथ

हरदीप सबरवाल (अंक: 199, फरवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

कोविड की लंबी ताला बन्दी के बाद ज़िन्दगी अपने पुराने ढर्रे पर आ रही थी, विश्वविद्यालय में पुस्तक मेले का आयोजन लगभग दो वर्ष बाद हो रहा था। लेखक एक अनुवादक मित्र के बार बार किए आग्रह के बाद आख़िर जाने को राज़ी हो ही गया। 

पार्किंग में मोटसाइकिल खड़ी कर वो अभी सोच ही रहा था कि दोस्त को फ़ोन कर के पूछे कि वो कहाँ है, कि पीछे से दोस्त दो आदमियों के साथ आता नज़र आया। उनमें से एक बीस से पच्चीस साल के बीच की उम्र का लड़का और एक पचास पचपन के आसपास का आदमी था। लेखक ख़ुद भी पैंतालीस साल का हो गया था, खिचड़ी दाढी वाला, इस बात की याद उसे तब आई जब लड़के ने हाथ मिलाने की जगह उसके पाँव छुए। 

“ये बुत तराश है, शहर के मुख्य चौराहे पर जो स्वतंत्रता सेनानी का बुत लगा है, वो इन्होंने ही बनाया है,” लेखक के दोस्त ने उस अधेड़ आदमी परिचय करवाया। बुत तराश ने गर्मजोशी से हाथ आगे बढ़ाया और मिलाया। हाथ मिलाते ही एक शीत लहर उसके हाथ के आर-पार हुई, कुछ शब्द उसके गले तक आए, पर इस से पहले कि वो कुछ कह पाता लेखक का दोस्त लेखक का परिचय देने लगा। 

“ये नज़्म बहुत अच्छी कहते हैं,” 

“अच्छा फिर तो किसी दिन सुनेंगे भी और विचार चर्चा भी करेंगे,“ बुत तराश ने कहा। 

लेखक का चेहरा निर्विकार बना रहा। दो-चार इधर–उधर की बातें हुईं, इस दौरान कुछ और लोग भी मिलते रहे, लेखक एक स्टाल पर रुका, एक मात्र प्रकाशक जो उसे जानता था, उसके मित्र को जैसा पूरा मेला ही जानता था। इतनी विशाल भीड़, साहित्य जगत की जानी-मानी हस्तियाँ, कितना कटा हुआ है वो इस सब से, अभी वह ये सब सोच ही रहा था, कि उसका फ़ोन बज उठा। 

“मुझे जाना होगा, ज़रूरी काम आ गया कोई,” लेखक ने मित्र से कहा। 

“इतनी जल्दी!, अभी तो मेला देखा ही नहीं, ना तुम किसी से मिले, कुछ देर रुक जाओ, तुम्हें अच्छा लगेगा,” मित्र ने आग्रह किया। 

“रुक सकता तो ज़रूर रुकता, बल्कि मैं तो विश्व प्रसिद्ध कहानियों का कोई अनुवाद भी लेना चाहता था, अभी तो दो दिन बाक़ी है, फिर आ जाऊँगा,” लेखक ने विदा लेते हुए कहा। 

इतने में बुत तराश फिर से वहाँ पहुँच गए, ”ये क्या आप चल दिए?” 

“जी कोई ज़रूरी काम आ गया,” लेखक ने विदा लेते हुए कहा, बुत तराश ने हाथ मिलाया, एक बार हाथ छोड़ा और फिर से पकड़ लिया, “इतने ठंडे हाथ, मैंने पहले भी नोटिस किया, जब मिले, कमाल है, मैंने आज तक इतने ठंडे हाथ नहीं देखे किसी के,” बुत तराश ने आश्चर्य जताया। 

“ठंड ज़्यादा है और मैं दस्ताने नहीं पहनता, शायद इस वजह से,” लेखक ने मुस्कुरा कर कहा, पर ना जाने क्यों बुत तराश को उसकी मुस्कुराहट द्रवित सी लगी। एक मुस्कुराहट भला द्रवित कैसे हो सकती है, बुत तराश की लेखक में दिलचस्पी बढ़ी। पर तब तक लेखक वहाँ से जा चुका था। 

क़रीब पंद्रह दिन बाद बुत तराश कहीं जा रहा था तो एक फल वाले के पास उसने लेखक को खड़े देखा, शायद मूल्य को लेकर बहस जैसा कुछ चल रहा था। 

“कैसे है आप?” बुत तराश ने पास जाकर पूछा। 

“जी अच्छा हूँ, आप कैसे हैं,” लेखक ने बिना उसकी तरफ़ देखे ही कहा। और ठेले को छोड़ दूसरी तरफ़ चल दिया। 

“पहचाना आपने,” बुत तराश ने उसके साथ चलते कहा। प्रश्न ने यकायक लेखक को रुकने पर मजबूर किया। उसने ग़ौर से बुत तराश के चेहरे को देखने की कोशिश की, जैसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो। फिर अनमना सा होकर बोला, “आपको शायद बुरा लगेगा, और लगना भी चाहिए, दरअसल इसी वजह से लोग मुझसे किनारा भी कर जाते हैं, असल में मुझे चेहरा भूल जाने की आदत है, या कहें कि मेरी यादाश्त इस मामले में कुछ ज़्यादा ही कमज़ोर है“

“ये तो दिलचस्प बात बताई आपने, आप मुझे पहचान नहीं पाए, अभी पुस्तक मेले में ही तो मिले थे हम,” बुत तराश थोड़ा असहज हुआ, और लेखक उसे सनकी लगा। 

“अरे हाँ, याद आया, आप वो बुत घड़ने वाले, माफ़ कीजिएगा मेरी इस धृष्टता को, मेरे साथ अक़्सर ही ऐसा हो जाता है,” लेखक ने इतनी सहजता से कहा कि बुत तराश को उसकी बात पर यक़ीन आ गया। 

“अच्छा फिर तो क़िस्से बन जाते होंगे कई,“ बुत तराश बोला। 
“हाहहा,” लेखक हँस कर बोला, “एक बार तो एक औरत मुझे रास्ते में मिली और हाल-चाल लेने लगी, मुझे याद नहीं आ रहा था कि इसे कहाँ देखा है, अगले दिन तक मुझे इतना तो यक़ीन हो गया कि मैं उस औरत के घर भी गया हूँ, और फिर तीसरे दिन जा कर याद आया कि वो एक मित्र की पत्नी है।“

“दिलचस्प, इस पर तो एक कहानी लिखी जा सकती है,” बुत तराश ने कहा। 

“लिखी तो जा सकती है, पर मैं इस तरह की कहानियाँ नहीं लिखता,” लेखक शांत भाव से बोला। 

“तो किस तरह की?”  बुत तराश ने पूछा, फिर उसे अपना सवाल ही अटपटा लगा, “मेरा मतलब आजकल क्या लिख रहे हैं आप, मन में कौन सी कहानी चल रही है आपके।“

सवाल सुनते ही कहानीकार जैसे कहीं खो गया, “हाँ एक कहानी तो है मेरे मन में, बस उसे भाव कैसे दूँ, ये पता नहीं, और ज़बरदस्ती लिखना मुझे आता नहीं“

“सही भी है, मेरा भी यही मानना है, कला तो स्वतः स्फूर्त फूटती है, भला इसमें ज़ोर ज़बरदस्ती कैसी,” बुत तराश ने लेखक की बात को समर्थन दिया। 

एक ही पल में लेखक जैसे आपा खो बैठा, “आप ये बात कैसे कह सकते हैं, आजकल तो पेड राइटिंग का ज़माना है, पैसे दो और कुछ भी लिखवा लो, पेड न्यूज़ चारोंं तरफ़ चल रही, ज़्यादा दूर क्या जाना, आपने जो बुत बनाया शहर के चौराहे के लिए, उसके लिए मुनिसिपालिटी ने आपको पैसे दिए ना कि वो कला की तरह स्वतः स्फूर्त फूटा।” 

बुत तराश उसके इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया पर हैरान रह गया। हालाँकि इस बार उसे ग़ुस्सा नहीं आया, बल्कि दिलचस्पी पैदा हुई, और बात करने की। 

“आपकी बात सही भी है एक तरह से, आइए कहीं बैठ कर चाय पीते है और बात करते हैं।”

 “लेकिन मैं चाय नहीं पीता, ” लेखक ने इस तरह से कहा जैसे उसे एक पल पहले का अपना व्यवहार याद ना हो, “लेकिन आपका साथ देने को मैं एक कोल्ड ड्रिंक्स ले लूँगा।”

इतनी ठंड में कोल्ड ड्रिंक! बुत तराश ने सोचा और फिर कहा, “कमाल है, आप चाय नहीं पीते, लेखकों की तो 
महफ़िल ही चाय के आस पास जुटती या शाम को शराब के आस पास।”

“यक़ीनन ऐसा होता होगा,” लेखक ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा, “आपको पता है कभी हमारे घर में चूल्हे पर चाय सुलगती ही रहती थी, मेरे पिता चाय के इतने शौक़ीन थे, तब मैं भी ख़ूब चाय पिया करता था, पर फिर . . . “

बुत तराश ने महसूस किया कि लेखक की बातों का तारतम्य टूट रहा है, जैसे शब्द रास्ता भटक रहे हैं। फिर उसने कहा, “अपनी कोई रचना सुनाइए, कोई नज़्म।“

“ज़रूर

“घर बिना आदमी, 
वैसा ही होता है, जैसे
जड़ बिना कोई पेड़, 
किराए के घर में कोई
उतने ही पाँव पसार सकता है, जितने
ख़ूबसूरत, रंगीन काँच की ख़ाली शराब की बोतल के पानी में, 
अपनी जड़ें पसारता है कोई मनी प्लांट . . .” 

“अरे वाह, शानदार है, किरायेदार के दर्द को बख़ूबी बयान किया, लगता है आप कभी ना कभी किराए के घर में रहे होंगे,” बुत तराश ने कहा

“अरे, ऐसा लगा क्या, मेरी एक नज़्म है, ’वेश्या की देहरी पर’ अच्छा है मैंने आपको वो नज़्म नहीं सुनाई,” लेखक मुस्कुराया। 

“अरे आप तो बुरा मान गए, मैंने तो नज़्म की तारीफ़ की बस।“

“ये तारीफ़ वैसी ही है जैसे कोई आप से कहे कि क्या आप स्वंतत्रता सेनानी के परिवार से हैं?“

“आप हमेशा व्यक्तिगत आक्षेप करते हैं क्या?” बुत तराश ने खीझ कर कहा। 

“अच्छा चलिए जाने दीजिए, आप बताइए, आप ने अब तक कितने बुत बनाए है?” लेखक ने ऐसे कहा जैसे कोई आपत्तिजनक बात हुई ही नहीं। 

“बहुत सारे, कभी गिने नहीं, ना कभी ऐसी ज़रूरत महसूस की,” बुत तराश ने भी अपनी खीझ त्याग कर कहा। 

“तो अपनी शाहकार कृति के बारे क्या कहेंगे?”

“शाहकार कृति, ये दिलचस्प बात बताई आपने, मैं इतना क़द्दावर मूर्तिकार कहाँ कि ये सब सोच पाऊँ।”

“लेकिन आपको सोचना चाहिए, ख़ैर वक़्त काफ़ी हो गया है, अब मुझको चलना चाहिए,” लेखक ने हड़बड़ी में कहा और कुर्सी से उठ कर बाहर चल दिया, फिर तुरंत ही वापिस आ गया और बोला, “आप मेरी उस कहानी के बारे में जानना चाहेंगे जो मैं लिखना तो चाहता हूँ पर लिख नहीं पा रहा। शायद आपको आपकी शाहकार कृति बनाने के लिए कोई चित्र उसमें से मिल जाए?“

“जी ज़रूर, मैं सुनना चाहूँगा।” 

“वैसे आपको बता दूँ कि ये कहानी मेरे एक मित्र की ज़िन्दगी की सच्ची घटना है, अभी कुछ दिन पुरानी ही, जब महामारी ने हमें चारोंं तरफ़ से घेर लिया था, सबसे पहले उसके पिता इसकी चपेट में आ गए, शुरूआती दौर में ही। उन्हें हस्पताल पहुँचाया गया, पिता ने पुत्र को फ़ोन किया कि अगर ज़िन्दा देखना चाहते हो तो आकर वापिस ले जाओ। यहाँ जो व्यवहार है उसमें कोई बच नहीं सकता। जब तक वो उन्हें लेने पहुँचा वो सच में बचे नहीं, फिर दूसरी लहर आई, उसका जवान बेटा उसकी चपेट में आ गया, ऑक्सीजन की ज़रूरत थी, पर कहीं मिली नहीं। किसी ने बताया साठ किलोमीटर दूर इंडस्ट्रियल एरिया में ब्लैक में मिल जाएगी। किसी तरह पैसे का इंतज़ाम किया, और ऑक्सीजन सिलिंडर किसी स्मगलर की तरह हॉस्पिटल तक पहुँचाया। पर तब तक देर हो चुकी थी, सदमे से उसकी पत्नी विक्षिप्त हो गई। है ना अजीब, उसका अतीत और भविष्य मर गया और वर्तमान विक्षिप्त हो गया।”

“शानदार विषय है, अगर इस विषय के साथ न्याय हो तो एक शानदार कहानी बनेगी।”

“विषय के साथ न्याय, विडम्बना है हम लोग विषय के साथ न्याय चाहते हैं, पात्रों के साथ नहीं, लेकिन एक मिनट रुकिए, थोड़ा बदलाव करते हैं और आपको कहानी का मुख्यपात्र बना देते हैं और सोचिए कि ये आपके पिता और पुत्र हैं . . .

अपने बेटे और पिता के बारे में सोच बुत तराश का चेहरा तमतमा उठा, “ये कैसी बातें कर रहे हैं आप, आप होश में नहीं शायद . . .“

“सही कहा, होश में होता तो मैं भी विषय के साथ न्याय की बात करता, यही न्याय चलन में है हमारे सिस्टम में, विषय के साथ न्याय, कोई महामारी में अव्यवस्था से मरे तो मुआवज़ा दे दो, कोई दंगों में मरे तो भी, कोई किसी गाड़ी के नीचे कुचला जाए तो भी, इससे पात्र के साथ न्याय हो या ना हो, विषय के साथ न्याय तो हो ही जाता है . . .।” 

बुत तराश को कोई जवाब ना सूझा, 

“मैंने आपको बताया था कि मुझे चेहरे याद नहीं रहते, पर मुझे इसका कोई अफ़सोस भी नहीं, हमारी व्यवस्था को चेहरे की ज़रूरत नहीं, चेहरे बदलते भी रहें व्यवस्था वैसी ही बनी रहती, इसे भीड़़ की ज़रूरत है, पात्रों की नहीं। विषयों की ज़रूरत है, जिन्हें भुनाया जा सके, तमाशा किया जा सके। सरकारें और न्याय सब किसी इवेंट मैनेजमेंट कंपनी की तरह हैं जो विषयों को, उसकी सफलता और असफलता को भी एक इवेंट बना देते हैं। हम सबको भी इस तमाशे की आदत पड़ गई है और ख़ूब मज़े से ये सब देखते हैं। लेकिन पता है कब तक, जब तक हम ख़ुद वो तमाशा नहीं बन जाते। उस दिन हम पात्र के साथ न्याय के लिए चिल्लाते हैं विषय के साथ नहीं, पर . . .”

फिर एक पल रुक कर लेखक ने कहा। 

“सुनिए, क्या आप एक ऐसा बुत तराश सकते हैं, जिसमें वर्तमान की झोली में उसका अतीत और भविष्य दोनों मृत पड़े हैं और विक्षिप्त वर्तमान इधर-उधर देख रहा है। यक़ीन मानिए ये आपकी शाहकार कृति होगी,” लेखक ने कहा।

इस से पहले कि बुत तराश कोई प्रतिक्रिया दे पाता, लेखक का फ़ोन बज उठा, सुनने के बाद लेखक ने कहा, “क्षमा कीजिए, मेरी पत्नी की तबीयत कुछ बिगड़ गई है, मुझे जाना होगा।”

और विदा लेने के लिए बुत तराश की तरफ़ हाथ बढ़ाया। बुत तराश के हाथों में सिहरन दौड़ गई। उसने लेखक को दूर तक जाते देखा जब तक कि वो आँखों से ओझल नहीं हो गया। लेकिन उसके ठंडे हाथों का स्पर्श अभी भी उसे अपने हाथ पर चिपका हुआ महसूस हो रहा था। 

बुत तराश को लगा कि लेखक के अंदर कुछ मर गया है, लेकिन वो ये ना समझ सका कि लेखक उस मरे हुए को अपने अंदर ज़िन्दा रखना चाहता है। 
© हरदीप सबरवाल

1 टिप्पणियाँ

  • 9 Feb, 2022 01:21 PM

    सनातन कटु सत्य , क्या कोई उपाय हो सकता है ?क्या कभी ,किसी युग में संपूर्ण समाज अभाव से पूर्ण मुक्त था?

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