सवालों के ढेर से....धुँए के छल्ले

23-11-2008

सवालों के ढेर से....धुँए के छल्ले

तरूश्री शर्मा

रातें हर रोज़ खाली-खाली सी रहने लगी थीं....

जैसे तारे आसमान से अब चिपकते ही ना हों और चाँद की डोरी आकाश से लटकती ही नहीं थी। रात का सन्नाटा जैसे होता ही नहीं था और अँधेरे की कालिख पसरती ही नहीं थी।

दिन जैसे दिन की तरह नहीं होते थे....

सूरज का रथ दौड़ता ही नहीं था और धूप के गोले जैसे उतरते ही नहीं थे। दिन का शोर जैसे चिल्लाता ही नहीं था और रोशनी की पीली खिड़कियाँ खुलती ही नहीं थी....

वो इस अजीब से समय में गुत्थम-गुत्था सवालों के जाल में खोया रहता था....गोया,

ये दीवार क्यों नहीं चलती और चलती होती तो कहाँ तक पहुँच चुकी होती? क्या ये मुझसे तेज़ चल पाती और क्या मेरी तरह तेज़ दौड़ पाती?  मेरी अनुपस्थिति में मेरे स्केट्स पहन कर घर में कोहराम मचा देती या कोने में बैठकर सिगरेट के कश खींचने का मज़ा लेती?  कभी मन करने पर दुष्यंत के शेर पढ़ती या मैक्सिम गोर्की के उपन्यास से जीवन का दर्शन खोजती.... और आखिर में यह सवाल कि....आह,  मैं यह सब क्यों सोच रहा हूँ।

खैर.... ना दिन बदलते थे ना शामें और ना ही रात.....

वो काम पर जाता था पर किसी से बात करने में जैसे उसकी नानी मरती....  आस पास काम करती लड़कियों को देखकर ऊब होने लगती.... और सवालों का क्रम शुरू हो जाता...

क्यों रोज सज-धज के आती हैं?  कितना समय लगाती होंगी?  और आखिर क्यों?  क्या मुटल्ले पांडे को रिझाने के लिए?  या पान की पीक से फुर्सत ना पाने वाले बनवारी से इश्क़ लड़ाने के लिए?  अगर दोनों से नहीं तो इस दफ्तर में तीसरा कौन?  मैं?  मुझे पटाने के लिए?  और अगर हाँ... तो मैं इन्हें देखकर खुश क्यों नहीं होता?  क्यों ये देविका की तरह.... और ओह... देविका का नाम आते ही जैसे उसके सारे सवाल खत्म हो जाते।

ये एक टूटी दास्तान थी... जिसके किसी भी छोर पर पहुँचने से उसके दिन रात,  असली दिन रात जैसे हो जाते...  अभी जैसे नहीं रहते।  सारे सवालों को पंख लग जाते और वे उड़कर उसकी पहुँच से कहीं दूर हो जाते। उस दिन वो हिलोरें लेता घर आता...  कोने में बैठकर पेट की गहराई जितने गहरे सिगरेट के कश खींचता,  अपनी पसंदीदा ग़ज़ल में खो जाता....

कच्ची दीवार हूँ... ठोकर ना लगाना मुझको...

उसकी रूह,  सिर्फ संगीत को महसूस कर पाती,  उसके दिमाग के लिए तो ग़ज़ल के शब्द और संगीत जैसे पहुँच से बहुत परे की चीज हो जाते.....

ऐसे ही कभी अवतार सिंह पाश की कविता के फड़फड़ाते पन्ने पर दिखती चंद लाइनें...

सबसे खतरनाक होता है,

मुर्दा शांति से भर जाना...

ना होना तड़प का,

सब कुछ सहन कर जाना,

घर से जाना काम पर

और काम से लौटकर घर आना...

सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना।

ओह....... मार्क्स का अलगाववाद.... हुँह... जैसे उसके मुँह का स्वाद कसैला हो जाता। दिन, एक बार फिर दिन नहीं रहते.... रातें,  रातों की तरह नहीं रहतीं। और सवालों के ढेर एक बार फिर उसके मुँह पर धुँए के छल्ले उड़ाने लगते....

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