सुनो! संवदिया . . .
निवेदिता तिवारीचुपके से चले जाओ तुम पीहर
द्वार से पहले मिलेगा तुम्हें
गोबर से पुता चबूतरा,
संग चूने की ढिग
देना उसको मेरा स्पर्श
कहना . . .
यहाँ भी है हर्ष चरमोत्कर्ष
द्वार पर कर रहें होंगे इंतज़ार
आम्रपत्र और बन्दनवार
भीगी आँखों का भाव पूछ लेना
हो सके तो प्रवेश द्वार से लिपट तुम रो लेना
सजा होगा दीवान-तख़त सूनी होगी बैठक
रसोईघर में माँ खाना बनाती होंगी
पूजा घर में चौकी आँखें तकती होंगी
सजी होगी शायद रंगोली
कहना आऊँ शायद मैं इस होली
छत पर जाना जब हो जाए रात
मिलेंगे वहाँ ढेर टिमटिमाते तारे
कहना . . .
लगते हैं वे अब भी उतने ही प्यारे
लौट आना सो जाएँ जब सब थक कर
आहट न देना मेरी घर पर
कहना . . .
याद आती है माँ की झिड़की, पापा की फटकार
दोस्तों का साथ, और भाई-बहन का प्यार
सुनो संवदिया
हो सके तो तुम चले जाओ पीहर . . .