स्त्री सशक्तिकरण की चुनौतियाँ: आर्थिक असमर्थता, लिंग भेद और हिंसा
डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
‘मैं’ रंग रूप से पहचानी जाती हूँ,
क़द-काठी से नापी जाती हूँ,
ख़ुद के नाम से ज़्यादा,
दूसरों के नाम के सहारे पहचानी जाती हूँ।
‘मैं’ नामविहीन, जाति विहीन, हाड़-माँस की काया हूँ,
जल के समान स्थान, काल, पात्र के अनुसार,
ढल जाने, बह जाने की कला में ‘मैं’ पारंगत हूँ।
आदिम काल से लेकर, सभ्यता की चरम पराकाष्ठा के काल में भी
‘मुझे’ ही नोचा-खसोटा जाता है।
आज मैं अपना बाज़ार ख़ुद लगा रही हूँ।
संसार इसे ‘स्त्री विमर्श’ कह रहा है।
जाने ये कैसा विमर्श है?
मैं अपनी पहचान खो रही हूँ।
‘मैं’ स्त्री हूँ।
समय चाहे कुछ भी हो,
‘मैं’ रंग, रूप से पहचानी जाती हूँ।
क़द-काठी से नापी जाती हूँ। (डॉ. सुपर्णा मुखर्जी/स्वरचित)
स्त्री क्या है? उसकी क्या विशेषताएँ हैं? उसकी समस्याएँ क्या है? उपर्युक्त पंक्तियों में इन प्रश्नों का उत्तर काव्यात्मक शैली में मिल ही जाता है। समस्याएँ क्या है? यह सबको पता है लेकिन इन समस्याओं का समाधान आज तक क्यों नहीं मिल सका है? इन समस्याओं का समाधान कैसे निकलेगा? ये प्रश्न अब स्त्री विमर्श के विषय बनने चाहिए। प्रस्तुत आलेख के द्वारा इन्हीं विषयों पर तार्किक ढंग से विचार करने का प्रयास किया जाएगा।
आर्थिक असमर्थता—‘स्वतन्त्रता’ शब्द की अपनी अलग परिभाषा है। प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्रता चाहता है। स्वतंत्र होने के लिए क्या करना होगा? क्या पाना होगा? ये महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। अभिव्यक्ति का अधिकार, शिक्षा और सुरक्षा का अधिकार, भोजन-वस्त्र और मकान को पाने का अधिकार आदि मुद्दों पर निर्भर करता है ‘स्वतन्त्रता’ का वास्तविक अस्तित्व। इन मुद्दों की पृष्ठभूमि क्या है? जब इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास किया जाता है? तो, सबसे पहला जो उत्तर आता है वह यह कि आर्थिक मज़बूती के बिना भोजन, वस्त्र, मकान पाना सम्भव नहीं और इन तीनों के बिना कोई भी व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो या पुरुष न तो अभियक्ति की स्वाधीनता प्राप्त कर सकता है और न ही शिक्षा और सुरक्षा का अधिकार। जैसा कि मैंने उल्लेख किया है कि ये स्त्री और पुरुष दोनों की समस्या है लेकिन स्त्रियों के लिए ये बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में आज भी विश्व भर में स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार से, विभिन्न कारणों से आर्थिक स्वतन्त्रता से वंचित है। हाँ, सही बात है कि आँकड़े लगातार बता रहे है कि आज स्त्रियाँ शिक्षित हो रही है, नौकरी कर रही है, अविवाहित रहकर अभिभावकों की देखभाल कर रही है। “फिर भी अभी तक यह संख्या अनुपात की दृष्टि से संतोषजनक नहीं है। इसका बड़ा कारण यह भी है कि अपने स्त्री होने मात्र के कारण वे असुरक्षा ही नहीं बहुत बार असम्मान को बरदाश्त करने के लिए अभिशप्त हैं”।1 यह परिस्थिति जब तक नहीं बदलेगी स्त्री को उसके हिस्से की आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं हो सकेगी। केवल यही नहीं ‘चुनावी सरगर्मियों के बीच छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से सामने आई यह ख़बर काश! सच न होती कि दो महिला राजनेताओं को कथित रूप से चुनाव आचार संहिता की आड़ में एक बुनियादी ज़रूरत (शौचालय) तक की पहुँच से वंचित कर दिया गया। इस घटना ने राजनीति में महिलाओं के सामने आने वाली लगातार चुनौतियों और लिंग-समवेशी नीतियों की तत्काल ज़रूरत को उजागर किया है साथ ही सामाजिक मानस में गहरे पैठी हुई स्त्री-द्वेषी प्रवृत्ति को भी एक बार फिर रेखांकित किया है’।2 क्या ये घटनाएँ इस बात का प्रामाणिक साक्ष्य नहीं है कि आज भी विश्व भर में सही अर्थों में स्त्रियाँ आर्थिक स्वावलंबन से कोसों दूर है। कुछ प्रतिशत महिलाओं के आर्थिक मज़बूती को हम सम्पूर्ण स्त्री जगत की आर्थिक मज़बूती का प्रतीक नहीं मन सकते हैं।
चुनौतियों का सामना केवल स्त्रियाँ ही करती है। यह कहना सही नहीं होगा लेकिन तथ्य यह भी है कि स्त्रियों की चुनौतियाँ सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक, धार्मिक नियमों, वातावरणजनित मानसिकताओं के कारण दोगुनी होती है। जैसे-आज की स्त्रियाँ नौकरीपेशा भले ही हो गई हो लेकिन समाज आज भी सिंदूर वाली स्त्री को ही सम्मान की दृष्टि से देखता है। अब भले ही, वह सुहागिन ससुराल में मानसिक और शारीरिक अत्याचार सहती रहे। सिंदूर की शक्ति समाज में उसे सर उठाकर पत्नी, माँ, बहू आदि कहलाने का अधिकार प्रदान करती है जबकि बिना सिंदूर वाली स्त्री चाहे वह कितनी भी कार्यकुशल क्यों न हो रखैल से ज़्यादा कुछ नहीं कहलाती। पुरुष उसे अपने हिसाब से भोगता है लेकिन समाज में उसे मर्यादा देने का कोई प्रयास नहीं करता है। जैसा कि मन्नू भंडारी के द्वारा रचित कहानी ‘स्त्री सुबोधिनी’ कहानी की नायिका अंत में कहती है, “भूलकर भी शादीशुदा आदमी के प्रेम में मत पड़िए। ‘दिव्य’ और ‘महान प्रेम’ की ख़ातिर बीवी-बच्चों को दाँव पर लगनेवाले प्रेम वीरों की यहाँ पैदावार ही नहीं होती। दो नाव पर पैर रखकर चलनेवाले ‘शूरवीर’ ज़रूर सरेआम मिल जाएँगे। हाँ, शादीशुदा औरतें चाहें तो भले ही शादीशुदा आदमी से प्रेम कर लें। जब तक चाहा प्रेम किया, मन भर गया तो लौट आए अपने खूँटे पर।
न कोई डर, न घोटाला, जब प्रेम में लगा हो शादी का ताला।” 3
अर्थात्, स्त्री जैसे-जैसे आर्थिक स्वतन्त्रता को प्राप्त कर रही है वैसे-वैसे उसकी चुनौतियाँ भी बढ़ती चली जा रही हैं। स्त्री जैसे ही आवाज़ उठाने का प्रयास करती है उसे फिर धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक नियमों के आड़ में या तो चुप करा दिया जाता है या फिर दंड दिया जाता है। ‘स्मरणीय है कि नसरीन ईरान में ऐसी औरतों का प्रतिनिधित्व करने के कारण परंपरावादी कठमुल्ला व्यवस्था के निशाने पर रही हैं, जिन्होंने हिजाब पहनने की ज़रा सी आज़ादी हासिल करने की कोशिश की है। उन्हें ईरान में नक़ाब अनिवार्य किए जाने के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाने के लिए जाना जाता है। लेकिन दुनिया मानव अधिकारों के इस हनन को सन्न होकर देखते रहने के अलावा शायद कुछ नहीं कर सकती। एमनेस्टी इंटरनेशनल रोया करे कि महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने और मौत की सज़ा के ख़िलाफ़ बोलने के लिए अपना जीवन अर्पित कर देने वाली नसरीन को इस तरह दंडित किया जाना अमानवीय है’।4
यहाँ ध्यान देनेवाली बात यह है कि बात केवल नक़ाब, हिजाब और घूँघट के विरोध की नहीं है प्रश्न यह है कि नौकरीपेशा स्त्री को नक़ाब, हिजाब और घूँघट के आड़ में छिपा कर रखने में कौन सा तर्कसंगत नियम काम कर रहा है? यह तो ऐसी बात हुई कि जब तक जितना छूट धर्म, समाज, परिवार आदि स्त्री को देना चाहता है वहीं तक वह स्वावलंबी है। किसी भी समय इस छूट के बदले दंड भी मिल सकता है। इन परिस्थितियों में काम करने वाली महिलाएँ को ‘कठपुतली’ कहा जाना उचित है लेकिन इन्हें आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी नहीं कहा जा सकता है। वैसे तो नौकरी से यह अर्थ लगाया जाता है कि कोई ऐसा कम जो पैसा और सम्मान दोनों व्यक्ति को प्रदान कर सके। कुल मिलाकर एक अच्छा कम। अब यह अच्छा कम क्या होता है? पढ़े-लिखे लोगों के लिए अफ़सर, डॉक्टर, इंजीनियर आदि बनना आसान विकल्प हो सकता है। अशिक्षित व्यक्ति के लिए ये यह असंभव। फिर यहाँ स्त्री और पुरुष के काम की भी अपनी अलग विभाजन है। आँकड़ों और विश्लेषणों को यहाँ हमें अनदेखा करना ही होगा क्योंकि उपर्युक्त अनेक घटनाएँ सिद्ध कर चुकी हैं कि आँकड़े और विश्लेषण बहुत बार ज़मीनी सच्चाई से दूर होते हैं। तो, अब एक ऐसे व्यवसाय की चर्चा भी यहाँ कर लेना आवश्यक है जिससे स्त्री जीवन बहुत अधिक प्रभावित भी होता है। सकारात्मक और नकारात्मक दोनों दृष्टि से। उस व्यवसाय का नाम है ‘वेश्यावृत्ति’। पुरुष वेश्या भी होते हैं लेकिन क्या इस बारे में अधिक बातें होती हैं? जबकि ‘वेश्या’ शब्द का प्रयोग होते ही हमारे सामने एक स्त्री का चित्र पहले आ जाता है। यानी, स्त्री जीवन और वेश्यावृत्ति दोनों एक दूसरे के परिपूरक सदियों से विभिन्न कारणों से बने हुए हैं। लुइज़ ब्राउन की वेश्यावृत्ति पर आधारित पुस्तक का अनुवाद कल्पना वर्मा ने ‘यौन दासियाँ एशिया का सेक्स बाज़ार’ के नाम से किया। प्रस्तुत पुस्तक कहती है, “दुनिया भर में देह व्यापार के निकृष्टतम रूपों को झेलने वाले वे लोग हैं जो जटिल, बहुआयामी समाज व्यवस्था के सबसे निचले पादन पर हैं। वे स्त्रियाँ हैं, वे ग़रीब समुदायों की सदस्य हैं, वे निकृष्ट मनी गई नस्लों और जातीय अल्पसंख्यकों की सदस्य हैं। उन्हें अपमानित, शोषित किया जाता है, उनमें से कुछ को यौन दस्ता में धकेल दिया जाता है, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि उनके साथ ऐसा किया जा सकता है, क्योंकि वे समाज के सबसे कमज़ोर लोग हैं।”5 इस पेशे के द्वारा महिलाएँ पैसा कमाती तो हैं लेकिन जितना उनका शोषण होता है उतना पारिश्रमिक उन्हें कभी नहीं मिलता। रोग, अपमान आदि तो सेक्स वर्कर्स के जीवन के दूसरे पहलू है ही। इस उद्योग के बारे में सबको पता है लेकिन खुलकर बात करने की मानसिकता तक यह विश्व आज तक नहीं पहुँच सका है। प्रस्तुत पुस्तक में एक बड़ी अच्छी बात लिखी गई है, “एक विचारधारा कहती है कि अगर वेश्यावृत्ति को क़ानूनी मान्यता दी जाए तो सेक्स उद्योग में कई मनमानियों का ख़ात्मा हो जाएगा।”6 लेकिन पुस्तक भारत के ज्वाइंट वुमन्स प्रोग्राम की सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करती रहीं ललिता नायक के विचार को भी अनदेखा नहीं करती। नायक का कहना है कि, “क़ानूनी वैधता देने से मामला बिगड़ेगा क्योंकि इससे परिवारों और मर्दों को महिलाओं का शोषण करने का क़ानूनी अधिकार मिल जाएगा। जिस समाज में औरतों का अवमूल्यन होता है उसमें वेश्यावृत्ति पर से प्रतिबंध हटाने से शोषण पर वास्तविक रोक नहीं लगेगी। मौजूदा क़ानून भले ही अच्छे न हों मगर वे और बड़े शोषण के ख़िलाफ़ न्यूनतम बचाव का उपाय तो हैं ही।”7 इतने सारे विश्लेषणों को देखने से क्या यह स्पष्ट नहीं होता है कि स्त्रियों के लिए आर्थिक दृष्टि से किसी भी रोज़गार की तरफ़ चले जाना भले ही प्रथम दृष्टि में देखने-समझने में आसान कार्य लगे लेकिन उस व्यवसाय में टिककर रहने के लिए स्त्रियों को विभिन्न प्रकार के प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना लगातार करते रहना पड़ता है।
लिंग भेद-लिंग भेद पर बात करने से पहले यह जानना भी आवश्यक है कि लिंग क्या है? कनेडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ हेल्थ रिसर्च की परिभाषा के अनुसार, “लिंग का तात्पर्य लड़कियों, महिलाओं, लड़कों, पुरुषों और लिंग विविध लोगों की सामाजिक रूप से निर्मित भूमिकाओं, व्यवहार, अभिव्यक्तियों और पहचान से है।”8 इससे यह समझ आता है कि लिंग एक सामाजिक गठन है जिसके द्वारा समाज में स्त्री और पुरुष दोनों के साथ-साथ अर्द्धनारीश्वर वर्ग के कामकाज भी निर्धारित होते हैं। अब लिंग भेद की समस्या तब आती है जब किसी के लिंग को आधार बनाकर उसके साथ असमान व्यवहार किया जाता है। लैंगिक भेदभाव के अनगिनत उदाहरण विश्व भर में हमें दिखाई पड़ता है। जैसे, “गौरतलब है कि 2 जनवरी को 44 और 42 वर्षीय दो महिलाओं ने शबरीमलै स्थित अय्यप्पा मंदिर में प्रवेश किया था। मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के बाद मुख्य पुजारी ने ‘शुद्धिकरण’ समारोह के लिए मंदिर के गर्भ गृह को बंद करने का फ़ैसला किया। मंदिर को तड़के 3 बजे खोला गया था। के। पराशरन का कहना है कि इस शुद्धिकरण को छुआछूत नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह मंदिर की प्रथा है।”9 मंदिर की यह प्रथा लिंग भेद का जीता जागता उदाहरण है। जैविक कारण को मंदिर में निषेध का कारण नहीं बनाया जा सकता है। इस कड़ी में महिला खतना का उल्लेख करना भी आवश्यक हो जाता है। “वास्तव में, स्त्री-खतना की पूरी प्रक्रिया धार्मिक प्रथा के नाम पर स्त्री को घोर शारीरिक और मानसिक यातना देने वाली प्रक्रिया है। यह औरत को अपने ‘औरत होने’ के लिए शर्मिंदा करनेवाली प्रथा है। यह एक ऐसी सज़ा है जो उन औरतों को केवल इसलिए भुगतना पड़ता है कि उन्होंने एक ऐसे अंग के साथ जन्म लिया है जो उन्हें ‘औरत’ बनाता है। भोगप्रिय मर्दों की दुनिया में केवल भोग्य ‘वस्तुओं’ की जगह होती है।”10 ठीक इसी प्रकार से, “दो साल पहले एक अध्ययन में पाया गया था कि भारत में प्रतिवर्ष 34 हज़ार से अधिक महिलाएँ बलात्कार का शिकार होती हैं। इसका अर्थ है कि देश में हर 15 मिनट में एक महिला के साथ बलात्कार होता है। इनमें हर 4 घंटे में 1 वारदात गैंग-रेप की होती है। पुलिस कस्टडी में किए जाने वाले सामूहिक दुष्कर्म की घटनाएँ अलग से जोड़ी जा सकती हैं। इसके अलावा सामाजिक लोकलाज के भय के कारण जाने कितनी ऐसी घटनाएँ अलक्षित रह जाती हैं, इसका तो कोई हिसाब ही नहीं।”11 स्त्री के साथ होने वाले लिंग भेद का ही यह उदाहरण नहीं है यह लिंग भेद के आधार पर किए जानेवाले हिंसा का भी उदाहरण है। पुलिस तंत्र और न्याय तंत्र भी इस लिंग भेद को बढ़ावा देता है उक्त उदाहरण इसी सच्चाई को नग्न रूप में प्रस्तुत कर रहा है।
शारीरिक सौंदर्य और स्त्री एक-दूसरे के पर्याय हमेशा से रहे हैं। ठीक है, सुंदर दिखना या सुंदर दिखने की इच्छा रखने में कोई ग़लती नहीं है। लेकिन, सौंदर्य ही एकमात्र पहचान स्त्री की हो नहीं सकती। यह भी लिंग भेद का एक छद्म रूप है। अब इसके साथ शिक्षा और नौकरी भी जुड़ गया है। मधुमालती के द्वारा लिखित कहानी ‘अनावृत्ति’ की चौथी काली बेटी कहती है, “कक्षा में प्रथम आ गई। माँ ख़ुश हुई। पिता ने एक बार ऊपर से नीचे तक भरपूर देखा। शायद कोई आलोक फूट रहा था मेरे चारों ओर! वह देर तक देखते रहे और उसी बीच उन्होंने मेरे भविष्य का निर्णय ले लिया, ‘इसे डॉक्टर बनाऊँगा। यह डॉक्टर होगी तो दुनिया इसके आगे झुकेगी। बीमार कौन नहीं पड़ता? सबको इसकी ज़रूरत पड़ेगी।’
मैं समझ गई। पिता मेरा कालापन धोने का साबुन ख़रीद रहे हैं।
उस दिन मेरे भविष्य का सूत्रपात हो गया। रेशम से भरपूर जूता मखमल में लिपटने लगा। पिता वही तो मारेंगे। इन समाज वालों को, गौरवर्ण के उपासकों को।”12
इस तरीक़े की स्वतन्त्रता से किसको लाभ मिल सकता है? प्रस्तुत उदाहरण से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि लिंग भेद की शुरूआत घर-परिवार से ही होता है। इसी कारण से परिवार में जागरूकता का रहना आवश्यक है। विश्व भर के किसी भी संविधान में स्त्री और पुरुष के लिंग को आधार बनाकर असमान दृष्टि रखने की बात को स्वीकार नहीं किया गया है और अगर ऐसा कोई नियम कहीं रह भी गया है जो लिंग भेद को बढ़ावा देता है तो ऐसे नियम समय-समय पर बदलते भी रहे हैं। जैसे भारत में ही “सर्वोच्च न्यायालय अगस्त 2017 में ही तीन तलाक़ को असंवैधानिक क़रार दे चुका है।”13 आवश्यकता इस बात की है कि इन नियमों का पालन ठीक प्रकार से हो। भारत में तो स्त्री को सुरक्षित सम्पत्ति के रूप में देखा जाता रहा है। सुरक्षा प्रदान करने की यह मानसिकता इतनी प्रबल है कि स्त्री मनुष्य बने रहने के अधिकार से भी वंचित दिखाई पड़ती रही है। हमें यह यह मानना ही पड़ेगा कि, “इसमें संदेह नहीं कि पिछले कुछ दशकों में दुनिया भर में स्त्री-अधिकार और स्त्री-विमर्श का दौर है और स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा को रोकने के लिए अनेक क़ानून और योजनाएँ सामने आई हैं। लेकिन खेद की बात यह है कि इनका कोई भी सकारात्मक परिणाम नहीं मिला है; कुछ भी कुछ भी तो नहीं बदला है। ऐसे में स्त्री विरुद्ध अपराधों की प्रभावी रोकथाम के लिए क़ानूनी के साथ सामाजिक और मनोवैज्ञानिक क़दम भी उठाए जाने की ज़रूरत है।”14
हिंसा—ऐसा होना तो नहीं चाहिए लेकिन विश्व इतिहास का कोई भी पन्ना ‘स्त्री और हिंसा’ के काले दागों से रिक्त नहीं है। युद्ध क्षेत्र में स्त्री जीवन हिंसा से प्रभावित है, घरेलू हिंसा आज एक साधारण बात है। जबकि मानव इतिहास आज सभ्यता की चरम पराकाष्ठा में खड़ा है। “दरअसल यह दोहराते रहने कि ‘महिला अपराध गंभीर मुद्दा है और महिला अपराध को बरदाश्त नहीं किया जाएगा’ का तब तक कोई अर्थ नहीं, जब तक हर आयु की महिलाएँ स्वयं को सुरक्षित न महसूस करें। यह संदेश जाना भी ज़रूरी है कि नन्ही बच्चियों से जघन्य दुष्कर्म करने वाले नरपशुओं के साथ किसी भी प्रकार की नरमी नहीं बरती जाएगी।”15 प्रस्तुत उद्धरण को पढ़ने से यह स्पष्ट हो ही जाता है कि आज छोटी बच्चियों का जीवन भी हिंसा मुक्त नहीं है। यह सभी समाज के लिए लज्जा का विषय होना चाहिए लेकिन ऐसे विषयों को लेकर भी राजनीति की रोटी सेंकी जाती है यह और भी अधिक भयावह है। भारत में ‘मणिपुर स्त्री हिंसा’ इसका ताज़ा उदाहरण है। “3 मई, 2023 को शुरू हुए इस रक्तपातपूर्ण संघर्ष में अब तक 200 से ज़्यादा लोग मारे जा चुके है और 58 हज़ार से अधिक लोग राहत शिविरों में तकलीफ़ों में रह रहे हैं। इस दौरान निर्वस्त्र घूमने सहित महिलाओं के साथ यौन दुर्व्यवहार की तमाम ख़बरें चरम घृणा के तांडव का प्रतीक हैं।”16 ‘ME TOO’ नामक एक अभियान छेड़ा भी गया। स्त्री के विरुद्ध होनेवाली लैंगिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक आदि के आड़ में होने वाली हिंसाओं को रोकने के लिए। लेकिन, क्या इसका कोई परिणाम निकला? और अगर परिणाम नहीं निकला तो क्यों? इन प्रश्नों को लेकर कोई छानबीन नहीं हुई। हिंसा को झेलती स्त्री का जीवन एक समान रह गया। “जिस वक़्त ‘मी टू कैंपेन’ के तहत बॉलीवुड की नामी-गिरामी हस्तियों के स्त्री शोषक चरित्र की कलंक कथाएँ सामने आ रही हैं, उसी वक़्त सुपौल में केवल इसलिए छात्राओं के पीटने की यह वारदात हो रही है कि उन्होंने लड़कों की अश्लील हरकतों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। चाहे किसी अभिनेत्री पर हमले की घटना हो, चाहे किन्हीं छात्राओं पर गाँव भर के टूट पड़ने की वारदात; सब कहीं पुरुष की पशुता का विरोध करने की क़ीमत बेटियों को और भी उत्पीड़ित तथा अपमानित होकर चुकानी पड़ रही है।”17 यह तो हुई भारत की बात। यह कह देना कि भारतीय स्त्रियाँ ही सबसे अधिक हिंसा का सामना करती है अन्याय होगा युद्ध क्षेत्र में नारकीय जीवन जीने को मजबूर अनगिनत महिलाओं के साथ। “युद्ध में बलात्कार पर संयुक्त राष्ट्र की हालिया रिपोर्ट दुनिया भर के संघर्षरत क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर होने वाली यौन हिंसा की गंभीर तस्वीर पेश करती है। क्या लड़ाकू मुल्कों को इस क्रूर सच से कुछ लेना देना है कि संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2023 में युद्धों के दौरान बलात्कार और अन्य तरह की यौन हिंसा के कुल 3688 मामलों की पुष्टि की, जो वर्ष 2022 की तुलना में 50 प्रतिशत अधिक है। इससे युद्ध के हथियार के रूप में यौन हिंसा के बढ़ते उपयोग का पता चलता है। कहना न होगा कि यह घृणित और अमानवीय है। इतना ही नहीं, इस रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि यह संख्या वास्तविक घटनाओं का केवल एक अंश है। क्योंकि, यौन हिंसा झेलने वाली अनेक महिलाएँ कलंक, प्रतिशोध के डर और रिपोर्टिंग तंत्र तक पहुँच की कमी के कारण चुप रहती हैं।”18 इस रिपोर्ट को हम कैसे ग़लत कहेंगे? घर-परिवार ही जब असुरक्षित हो जाए स्त्री के लिए तब स्त्री क्या करे? हम Marital Rape के मसले को अनदेखा नहीं कर सकते हैं। क्या विवाह पुरुष को यह अधिकार दे सकता है कि वह अपनी स्त्री को केवल भोग्या समझकर उसका शारीरिक और मानसिक शोषण करता रहे? हिंसा को केवल शारीरिक और मानसिक शोषण तक सीमित रखना उचित नहीं है मौखिक शोषण अर्थात्, अपशब्द का प्रयोग, गाली-गलौच भी हिंसा का एक प्रकार ही है। यह एक अच्छी बात है कि इधर कुछ समय से इस मौखिक हिंसा को लेकर जन जागृति फैली है। नेटफ़्लिक्स में अभी बांग्ला की एक बहुत अच्छी सीरीज़ चल रही है जिसका नाम है ‘लज्जा’। निदेशक अदिति राय ने मौखिक हिंसा के सभी पक्षों को अपने पात्रों के द्वारा रेखांकित किया है। ऐसे और फ़िल्मों, कथा-कहानियों आदि की सम्पूर्ण विश्व को दरकार है ताकि क़ानून क्या है? इस विषय पर जन जागृति फैल सके। स्त्रियाँ यह समझ सके कि उनके अधिकार क्या है? एक और अच्छी सिनेमा के डायलॉग को प्रस्तुत आलेख में स्थान प्रदान करना तर्कसंगत होगा। ‘लापता लेडीज़’ सिनेमा की बूढ़ी दादी कहती है, “हमरी कमाई खाके हमही को मारे, ऊपर से कहे, “जो प्यार करे है ओका मारने का हक़ होता है।” एक दिन हम भी घूमा के हक जता दिए’। यह समझाता है कि स्त्री का चुपचाप अन्याय को सहते रहना ही उसके हिस्से का सबसे बड़ा अपराध है। सबसे पहले स्त्री को अपने लिए एक क़दम उठाना पड़ेगा। स्त्रियाँ, विशेषकर विवाहित स्त्रियाँ यह समझ लें कि ‘न’ कहने का अधिकार उन्हें अर्जित करना होगा क्योंकि, “जस्टिस राजीव शकधर ने कहा कि यह अदालतों पर निर्भर है कि वे जटिल सामाजिक मुद्दों से सम्बन्धित निर्णय लें, न कि उन्हें पीछे छोड़ दें। भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (बलात्कार) के तहत आपराधिक मुक़द्दमा चलाने से अपनी पत्नियों के साथ ग़ैर-सहमति से सहवास करने वाले पुरुषों की रक्षा करने वाली धारा 375 के अपवाद पर फ़ैसला सुनते हुए, उन्होंने इस विडंबना की ओर उचित ही ध्यान दिलाया कि क़ानून द्वारा एक सेक्सवर्कर को ‘नहीं’ का अधिकार दिया गया है, लेकिन विवाहित महिला को नहीं।”19 विधवाओं पर तो हिंसा किस-किस प्रकार से हुई है इस सच का साक्षी इतिहास है। स्त्री को विधवा बनाना भी क्या कोई प्रथा हो सकती है? पति के मृत्यु के बाद पल-पल एक स्त्री को यह समझते रहना कि पति की मृत्यु उसी के ख़राब भाग्य के कारण हुआ यह भी हिंसा का ही एक रूप है। मनोवैज्ञानिक रूप में एक स्त्री को तोड़ देना, उसे स्वयं को ही कोसते रहने के लिए बाध्य करना अवश्य ही हिंसा का एक चरम अंग है। जब इतने प्रकार से स्त्रियों को हिंसा सहते हुए देखा जा रहा है तब यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि, “देश के किसी भी राज्य ने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ निधियों को प्रभावी ढंग से उपयोग करने में सराहनीय प्रदर्शन नहीं किया है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के तहत शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य कार्यों के सम्बन्ध में राज्यों और केंद्र शासित प्र्देशोण द्वारा किए गए ख़र्च के बारे में अलग-अलग सूचना उपलब्ध न होने से तो यही लगता है कि प्रचार से आगे के कम में किसी कि रुचि नहीं है।”20
ऐसा नहीं है कि स्त्रियों ने कोई उन्नति नहीं की है, उनके साथ उनका परिवार, देश, समाज, क़ानून खड़ा नहीं है लेकिन यह कटु सत्य है कि जितना स्त्री को मिला है, मिल रहा है उतना पाने के लिए भी स्त्री को लगातार संघर्ष करना पड़ रहा है। इससे अधिक बिना किसी शर्त पुरुष के समान इस धारा में जीवित रहना सम्मान और सुरक्षा के साथ यह स्त्री का अधिकार है। यह अधिकार उसे भीख में नहीं बिना किसी शर्त सम्मान के साथ मिलना चाहिए।
संदर्भ सूची
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संपादकीयम्, ऋषभ देव शर्मा, पृ. सं.-12
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हिंदी मिलाप, गुरुवार, 2 मई, 2024
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बीसवीं सदी की महिला कथाकारों की कहानियाँ, संपादक-सुरेन्द्र तिवारी, पृ. सं.-156
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समकाल से मुठभेड़, ऋषभ देव शर्मा, पृ. सं.-18
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लुइज़ ब्राउन, यौन दासियाँ एशिया का सेक्स बाज़ार, अनुवादक कल्पना वर्मा, पृ. सं.-13
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लुइज़ ब्राउन, यौन दासियाँ एशिया का सेक्स बाज़ार, अनुवादक कल्पना वर्मा, पृ. सं.-173
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लुइज़ ब्राउन, यौन दासियाँ एशिया का सेक्स बाज़ार, अनुवादक कल्पना वर्मा, पृ. सं.-173
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गूगल सौजन्य
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समकाल से मुठभेड़, ऋषभ देव शर्मा, पृ. सं.-30
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संपादकीयम्, ऋषभ देव शर्मा, पृ. सं.-30
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समकाल से मुठभेड़, ऋषभ देव शर्मा, पृ. सं.-33
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बीसवीं सदी की महिला कथाकारों की कहानियाँ, संपादक-सुरेन्द्र तिवारी, पृ. सं.-166
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समकाल से मुठभेड़, ऋषभ देव शर्मा, पृ. सं.-23
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संपादकीयम्, ऋषभ देव शर्मा, पृ. सं.-27
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समकाल से मुठभेड़, ऋषभ देव शर्मा, पृ. सं.-35
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डेली हिंदी मिलाप, शनिवार, 4 मई, 2024
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संपादकीयम्, ऋषभ देव शर्मा, पृ. सं.-23
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हिंदी मिलाप, शुक्रवार, 26 अप्रैल, 2024
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और न खींचो रार, ऋषभ देव शर्मा, पृ. सं.-164
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और न खींचो रार, ऋषभ देव शर्मा, पृ. सं.-163
संदर्भ पुस्तकें
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संपादकीयम्, ऋषभ देव शर्मा
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समकाल से मुठभेड़, ऋषभ देव शर्मा
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और न खींचो रार, ऋषभ देव शर्मा
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बीसवीं सदी की महिला कथाकारों की कहानियाँ, संपादक-सुरेन्द्र तिवारी
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लुइज़ ब्राउन, यौन दासियाँ एशिया का सेक्स बाज़ार, अनुवादक कल्पना वर्मा
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डेली हिंदी मिलाप
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गूगल
डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
सहायक प्राध्यापक (हिन्दी)
भवंस विवेकानंद कॉलेज, सैनिकपुरी, हैदराबाद केंद्र-500094
drsuparna.mukherjee.81@gmail.com
9603224007