स्त्री की चाहत
अशोक योगी 'शास्त्री'क्या चाहती है स्त्री
धन और दौलत
शान औे शौकत
ब्रांडेड कपड़े
स्वर्ण छैलकड़े
गाड़ी, बँगला स्टेटस
बड़ा सा बैंक बैलेंस
अगर यही सोच है तुम्हारी
तो स्त्री को तुमने जाना नहीं
उसके मन मंदिर में झाँका नहीं
यदि वह बनवाती भी है गहने
तो इसलिए कि . . .
तुम्हारी बेटी की शादी में
तुम पर बोझ न बढ़े
साहूकारों के आगे
तुम्हारा सम्मान न घटे
स्त्री चाहती है समर्पण
थोड़ा सा आत्म सम्मान
नहीं वो प्यासी
नहीं वो भूखी
बेशक मिल जाएँ
रोटी रूखी सूखी
वो चाहती है . . .
प्यार के दो मीठे लफ़्ज़
चासनी से लिपटे
तारीफ़ के दो शब्द।
ब्रह्म मुहूर्त से शयन काल तक
चक्कर घन्नी सी घूमती
वह ज़रा सी थक जाए तो
चाहती है तेरा आश्रय
चाहती है तू हल्के से हाथों से
स्पर्श कर उसका माथा दबा दे
अंक में सिर रख . . .
उलझे हुए केशों में उँगलियाँ डाल
प्यार से उसके गालों को सहला दे
फिर सब कुछ कर देती है अर्पण
बस इतना सा चाहती है स्त्री।