समाज और देश के गंभीर मुद्दों पर व्यंग्य 'भीड़ और भेड़िए'

01-04-2022

समाज और देश के गंभीर मुद्दों पर व्यंग्य 'भीड़ और भेड़िए'

मुकेश कुमार सिन्हा (अंक: 202, अप्रैल प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

 

कृति: भीड़ और भेड़िए
कृतिकार: धर्मपाल महेन्द्र जैन
प्रकाशकः भारतीय ज्ञानपीठ,  18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया,  लोदी रोड, नयी दिल्ली-110003
पृष्ठः 136 
मूल्यः 260/-


‘ज़रूरी नहीं कि व्यंग्य में हँसी आए। यदि व्यंग्य चेतना को झकझोर देता है, विद्रूप को सामने खड़ा कर देता है, आत्म साक्षात्कार कराता है, सोचने को बाध्य करता है, व्यवस्था की सड़ांध को इंगित करता है और परिवर्तन के लिए प्रेरित करता है तो वह सफल व्यंग्य है।’ धर्मपाल महेन्द्र जैन रचित ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है’ के पुरोवाक् में हरिशंकर परसाई ने उक्त बातें लिखी थी। यह किताब 1984 में प्रकाशित है। मतलब, क़रीब चार दशक के बाद भी यह वाक्य शाश्वत प्रतीत होता है! 

व्यंग्य की दुनिया में धर्मपाल महेन्द्र जैन जाना-पहचाना नाम है, जो सात समंदर पार यानी टोरोंटो (कनाडा) में रहकर काव्य और व्यंग्य रचना के माध्यम से हिन्दी की बग़िया को समृद्ध कर रहे हैं। ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है’, ‘इमोजी की मौज में’, ‘दिमाग़ वालो सावधान’ के बाद व्यंग्यकार की व्यंग्य विधा में चौथी किताब आयी है—‘भीड़ और भेड़िए’। 52 व्यंग्य रचनाओं से सुसज्जित इस किताब में धर्मपाल महेन्द्र जैन ने ‘मेरी वैचारिक दृष्टि’ में लिखा है—“मेरे लिए व्यंग्य ऐसा प्रहार है जो चेतना को गालियों या कटुवचनों से उपजी तिलमिलाहट नहीं देता वरन्‌ ऐसे झकझोरता है कि पाठक या श्रोता आत्मसाक्षात्कार करें।”

आज़ादी को सात दशक हो गये हैं। मगर, क्या हम समस्याओं से आज़ाद हो पाये हैं? आज भी मुफ़लिसी क़ायम है। पेट है कि भरने का नाम ही नहीं ले रहा है। कोई भूख से बिलबिला रहा है, तो कोई खा-खाकर परेशान है। व्यंग्यकार ने तंज़ कसा कि एक सौ पैंतीस करोड़ लोगों को बैठाने वाली प्रजातंत्र की बस जस की तस खड़ी है। कहाँ कोई ईमानदारी से धक्का लगा रहा है, ताकि वो गतिमान हो! हाँ, सब स्वाँग ज़रूर रचते हैं धक्का मारने को। ‘प्रजातंत्र की बस’ में व्यंग्यकार ने लिखा-ड्राइवर आते हैं, चले जाते हैं, लेकिन बस वैसी ही है, जैसे सात दशक पूर्व थी। ‘ऐ तंत्र, तू लोक का बन’ में व्यंग्यकार ने लिखा है कि लोकतंत्र का मतलब लोगों का तंत्र होता है, मगर यह तंत्र कभी लोक का हुआ ही नहीं। लोकतंत्र हमेशा सत्ता का रहा। विदेशी तंत्र की भी व्यंग्यकार पोल खोलते हुए लिखते हैं कि अब जोकतंत्र, टट्टूतंत्र, गनतंत्र, जासूसतंत्र, प्रचारतंत्र, भ्रमतंत्र, फेकतंत्र, गैंगतंत्र आदि हो गया है। लोकतंत्र का लोक मर गया है, तो प्रजातंत्र में से प्रजा का अंत हो गया है। उनकी ख़्वाहिश है कि तंत्र ‘लोक’ का बन जाये! 

व्यंग्य की रचना हो और राजनीति की चर्चा न हो, यह सम्भव है ही नहीं। व्यंग्यकार ने भी राजनीति और राजनेताओं की ख़बर ली। सच है कि राजनीति में भ्रम का ऐसा अँधेरा फैला दिया गया है कि सच दिखता ही नहीं है। भ्रम के जाल में फँसकर जनता अपनी प्राथमिकता भूल जाती है। कौन तत्व राजनीति में आ रहे हैं, पर व्यंग्यकार ने लिखा—“बागड़बिल्लों का क्या, इनमें से बहुत-से अपराध की दुनिया से निकल कर सुरक्षित स्वर्ग की तलाश में राजनीति में घुस आए हैं। वे जहाँ जो दिखा अपना समझकर हड़प लेते हैं और पचा जाते हैं। भय, भ्रम और अँधेरे के माहौल में खड़ी जनता अपने समय के इंतज़ार में है।” राजनीति ‘ढाल’ है। इसमें ऐसी नीतियाँ तैयार की जाती हैं कि इससे केवल राजा सुरक्षित रहता है। प्रजातंत्र हो, राजशाही हो या जो भी हो, उनकी ही जय-जयकार होती है; देश और जनता की कौन फ़िक्र करे? जनता चिल्लाती रहती है, मगर उनकी आवाज़ को कोई सुनता कहाँ? जनता सबसे पूछती है, दिल्ली से, कुर्सी से, हाकिमों से, कि आवाज़ आ रही है, मगर कौन सुने? किसको इतनी फ़ुर्सत है। 'आवाज़ आ रही क्या' में तंज़ देखिए—“सच है, सरकारी महकमों में काम करने वाले आम आवाज़ को नहीं सुन पाते। कड़क नोटों के सरसराने की बारीक़ आवाज़ वे भाँप सकते हैं, पर बाहर उठ रहे मुर्दाबाद के नारे नहीं सुन पाते।” 

आदमी भी तो भेड़ बन गया है। हर कोई इसे हाँक जाता है। यह इतना कमज़ोर हो गया है कि विरोध भी नहीं कर सकता है? विरोध करने की क्षमता ख़त्म हो गयी है। ‘भीड़ और भेड़िए’ शीर्षक से रचित व्यंग्य रचना में व्यंग्यकार की पीड़ा झलकी है। उन्होंने भेड़ की तुलना आदमी से की है और लिखा है—“शत-प्रतिशत वफ़ादारी की उम्मीद भेड़ों से की जा सकती है, इसलिए आदमी को भेड़ बनाया जा रहा है, ताकि अपनी मर्ज़ी क़ायम की जा सके।” आदमी तो बस ‘मोहरा’ है! जब राजा को ज़रूरत पड़े, तो मोहरे को आगे कर दिया जाता है। यही तो चुनावी फ़ॉर्मूला बन गया है। आदमी की दर्द-तकलीफ़ से साहबों को क्या लेना देना? कोरोना में तो पैदल चल दिये थे अपने गाँव-घर की ओर! कहाँ कोई सहला पाया था उनके पाँवों को? आदमी लाचार है, मरीज़ लाचार है। ‘लाचार मरीज़ और वेंटिलेटर पर सरकारें’ में व्यंग्यकार ने लिखा कि “अस्पताल है, तो वेंटिलेटर नहीं, वेंटिलेटर है, तो एडॉप्टर नहीं, यदि सब कुछ है, तो प्रशिक्षित स्टाफ़ नहीं। नेताओं को बस उद्घाटन से मतलब है, वेंटिलेटर चले या न चले।” आम आदमी की शिकायत है कि गोदाम में अनाज भरे हैं, लेकिन आम जन की रसोई ख़ाली है। व्यंग्यकार ने जनता की आवाज़ को ‘लॉकडाउन में दरबार’ में यूँ उछाला—मेरे आटे का डिब्बा कई दिनों से ख़ाली है। उसमें आँकड़े भरकर तो रोटी नहीं बनती माई-बाप। हक़ीक़त है कि मध्यवर्गीय घरों का बजट तो अनादिकाल से घाटे में रहा है। कौन भरपाई करे? किसे फ़ुर्सत है? 

स्वार्थ से भरे आदमी की तस्वीर व्यंग्यकार ने खींची है। सचमुच में आदमी बदल सा गया है। कहाँ नैतिकता बची, विचार बचे हैं? मूषक ने सृष्टिकार के समक्ष शिकायत की कि मृत्युदेवी यमराज की बजाय आदमी के वश में हो गयी है, मक्खी ने कहा—उससे अब महामारी नहीं फैल रही, आदमी ने जाति नाम की जो बीमारी ईजाद की, वो अब महामारी बनने लगी है। कुत्ते की अपनी समस्या थी कि उनके काटने से घायल हुआ आदमी ठीक हो सकता है, पर आदमी से काटे का कोई इलाज नहीं है। भैंस का तर्क था—मेरी त्वचा से अधिक काला आदमी का मन है। सच में, अब आदमी ऐसा ही हो गया है। 

भारत में आत्मनिर्भरता की कमी क्यों है? माना काग़ज़ पर ख़ुशहाली है, लेकिन क्या यह ख़ुशहाली ज़मीन पर दिखती है? व्यंग्यकार भी कहाँ चुप रहने वाले। ‘ऑक्सफोर्ड में छा गई आत्मनिर्भरता’ में लिखते हैं—“हमारे बैंकों ने जितने पशुओं के लिए लोन दिया है उस हिसाब से देश में पशु ही पशु होना चाहिए। जितना उद्योग काग़ज़ पर हैं, उतने सही में हों, तो आदमी के लिए जगह ही नहीं बचे। पर, आप डरे नहीं, हम बैठे-बैठे आँकड़े बनाने में आत्मनिर्भर हैं।” रिश्वतखोरी भी कहाँ कम हो रही है? सरकारी प्रयास के बाद भी रिश्वतखोर कहाँ अपनी आदतों से बाज़ आ रहे हैं? सेंसेक्स का ग्राफ भले ऊपर उठ रहा हो, लेकिन नैतिक मूल्यों का ग्राफ निरंतर नीचे गिर रहा है। आज जो हालत है, इसे देखकर यह कहा जा सकता है कि बेईमानी निपुणता मान ली गई है और विश्वासघात उत्तम फल।" ‘आदानम्-प्रदानम् सुखम्’ में व्यंग्यकार ने लिखा—“रिश्वत रसगुल्ले जैसी होती है। दिखती है तो मुख लार से भर जाता है। जिसे रिश्वत लेना नहीं आए, वह ऐसे घूरा जाता है जैसे क्लास के बाहर कोई बच्चा खड़ा हो।”

व्यंग्यकार ने अपनी बिरादरी अर्थात्‌ साहित्यकारों को भी लपेटा है। ‘हिन्दी साहित्य का कोरोना गाथाकाल’ में उन्होंने कोरोना काल में रचित रचनाओं के संदर्भ में व्यंग्य किया है। लिखते हैं—“साहित्य में विविध दौर रहा है। वीरगाथा काल, भक्ति काल और हालिया दिनों का एक काल है-कोरोना काल। यह काल लगभग डेढ़ साल भर ही रहा, पर साहित्य लबालब हो उठा, कवियों-लेखकों की बाढ़-सी आ गयी, रचनाएँ रची गयीं।” व्यंग्यकार ने तंज़ कसा—“भले जहाँ टन भर छाँटो तो ग्राम भर कविता निकले। फिर भी, सोशल मीडिया पर वाह-वाह की भीड़ लग जाती है। मानो, हम वाह-वाह संप्रदाय से जुड़े हैं। आभासी मित्रों की कृपा ही है कि साहित्यकार चने के झाड़ पर चढ़ जाते हैं।” 

क्या साहित्य में ‘देवता’ ज़रूरी है? आजकल साहित्य में भी जुगाड़ टेक्नॉलोजी का खेल चल पड़ा है। सिर्फ़ लिखना ही उद्देश्य थोड़े ही है अब। अब तो सम्मान का लोभ रहता है। बारूद का समर्पण कर यदि सम्मान की प्राप्ति हो, तो बारूद क्यों उगलना? तंज़ देखिए—“पेन को पदक बनाने वाले देवता नहीं साध पाए तो बुद्धि की महादेवी की शरण में रहने से क्या फ़ायदा? चमचई भी ज़रूरी है। वरिष्ठों के आँगन में सिर झुकाना भी अनिवार्य हो गया है। आजकल वो सफल साहित्यकार कहलाते हैं, जिनके भीतर सफल राजनेता का गुण है।” ‘भैंस की पूँछ’ में व्यंग्यकार लिखते हैं—“गर्दन में लोच हो, रीढ़ में लचीलापन हो, घुटनों में नम्यता हो और पवित्र चरणों पर दृष्टि, तो सफलता आकर गिर पड़ती है।” व्यंग्यकार ने साठोत्तरी साहित्यकारों का ख़ुलासा किया है कि यह मूलतः कम लिखते हैं, ख़ुद पर ज़्यादा लिखवाते हैं। 

‘दो टाँग वाली कुर्सी’ में कुर्सी कथा है, तो ‘दिमाग़ अपना हो या दूसरों का’ में अलग-अलग दिमाग़ की अलग-अलग परिभाषा है। ‘कोई भी हो यूनिवर्सल प्रेसिडेंट’ में अमेरिकी दादागिरी पर व्यंग्य है, तो ‘पुण्य छूट पर बिक रहा है’ में पूजा पैकेज पर क़लम की नज़र टिकी है। ‘जब चलेंगी ड्राइवर रहित मेट्रो’ में श्रम के अवमूल्यन पर चिंता है। बुद्धिजीवियों के जुलूस में, ऐसे साल को जाना ही चाहिए, देश के फूफा की तलाश, संविधान की कुतरती आत्माएँ, चापलूस बेरोज़गार नहीं रहते, परदेस में अचार-पराठे वाले, बेरोज़गार विपक्षीजी, भूलोक के हैकर, होली कथा का आधुनिक संस्करण आदि व्यंग्य रचनाएँ भी प्रभावकारी हैं। 

व्यंग्य संग्रह की एक रचना है—काश साहब आए होते। इसमें व्यंग्यकार ने साहब के नहीं आने पर क्या होता है, इसे क़लमबद्ध करने की मुकम्मल कोशिश की है। साहब के नहीं आने से दफ़्तर की आबादी आधी हो जाती है, मतलब कार्यालय बेलगाम हो जाता है। भले कार्यालयकर्मी चाहते हों कि साहब नहीं आये, मगर व्यवस्था को दुरुस्त रखने के लिए साहब का आना ज़रूरी है। ठीक इसी तरह से, समाज और देश को ‘गति’ में लाने के लिए व्यंग्य रचना ज़रूरी है। 

व्यंग्य की रचनाएँ मानस पटल पर पैठ बना रही हैं, अंतर्मन को झकझोर रही हैं, सोचने को बाध्य कर रही हैं। सच कहा जाये, तो व्यंग्य लेखन की यही सार्थकता है! देश और समाज के गंभीर मुद्दे को व्यंग्य की चाशनी में डुबोकर व्यंग्यकार ने पाठकों को परोसा है। निश्चित, पाठक दो पल ज़रूर ठहरकर विवचेना करेंगे। 

— मुकेश कुमार सिन्हा
द्वारा सिन्हा शशि भवन
कोयली पोखर, गया-823001
mksinha.gaya@gmail.com

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें