शून्य से शिखर हो गए
सजीवन मयंकशून्य से शिखर हो गए।
और तीखा ज़हर हो गए॥
कल तलक जो मेरे साथ थे।
आज जाने किधर हो गए॥
बाप-बेटों की पटती नहीं।
अब अलग उनके घर हो गए॥
है ये कैसी जम्हूरी यहाँ।
हुक्मरां वंशधर हो गए॥
क्यो परिन्दे अमन चैन के।
ख़ून से तरबतर हो गए॥
भूल गए हम शहीदों को पर।
देश द्रोही अमर हो गए॥
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- ग़ज़ल
-
- कहने लगे बच्चे कि
- आज कोई तो फैसला होगा
- ईमानदारी से चला
- उसी को कुछ कहते अपना बुतखाना है
- जब कभी मैं अपने अंदर देखता हूँ
- जैसा सोचा था जीवन आसान नहीं
- दुनियाँ में ईमान धरम को ढोना मुश्किल है
- दूर बस्ती से जितना घर होगा
- नया सबेरा
- नये पत्ते डाल पर आने लगे
- मछेरा ले के जाल आया है
- रोशनी देने इस ज़माने को
- हर चेहरे पर डर दिखता है
- हर दम मेरे पास रहा है
- गीतिका
- कविता
- विडियो
-
- ऑडियो
-