शुभ्रा ओझा की आख़िरी चाय

01-06-2025

शुभ्रा ओझा की आख़िरी चाय

कमलेश पाण्डेय (अंक: 278, जून प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: आख़िरी चाय (कहानी संग्रह)
विशेष: शिवना नवलेखन पुरस्कार 2024 प्राप्त कृति
लेखक: शुभ्रा ओझा
प्रकाशक: शिवना प्रकाशन
प्रकाशन वर्ष: 2025
पृष्ठ संख्या: 116
मूल्य: ₹250
ISBN : 978-81-980656-2-9
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कहते हैं हर लम्हा अपने में कोई कहानी छुपाये होता है, कुछ लोग उसे जीते हैं तो कुछ लोग उसे सँजो कर रख लेते हैं। आगे वे इसे अपनी संवेदना के स्पर्श से एक नया रूप देते हैं और कहानी शब्दों में दोबारा घटित होती है। कहानी को जीने वाले भी पात्रों के रूप में पुनर्जीवित होकर पाठक के सामने आते हैं। तो, कहानी को कह देने वाला ही सर्जक भी है और उसका वाहक भी। सदियों से आदमी कहानियाँ कह रहा है, कुछ नया, पुराना, जैसा है वैसा ही, कल्पना से रच कर या मन के असाध्य, अकथ्य पहलुओं को गढ़ने-व्यक्त करने की कोशिश में। नए हौसलों के साथ हर दिन अपनी संवेदना, पर्यवेक्षण या महज़ मन की उड़ानों को ही गल्प में ढाल कर कोई आ जाता है, जिसे नवलेखन की दुनिया में स्वीकार लेते हैं हम। शुभ्रा ओझा शिवना नवलेखन पुरस्कार के ज़रिए ऐसे ही हमारे बीच “आख़िरी चाय” लेकर आई हैं। 

शुभ्रा की कहानियाँ एक विशेष परिवेश की कहानियाँ हैं ज़रूर पर अमरीकी परिवेश में भारतीय कहानियाँ हैं। प्रवासी लेखकों की ऐसी कहानियों से हम रूबरू होते रहते हैं। मुझे शुभ्रा की इन बारह कहानियों में ख़ास क्या लगा ये कहने से पहले अमेरिकी परिवेश के हाल के अपने अनुभव से ये बताना चाहूँगा कि भारतीय समाज कहीं भी रहे अपने पारिवारिक संस्कारों वाला थोड़ा-सा भारत अपने दिलों-दिमाग़ में रखता है, हालाँकि अपने संघर्ष या सपनों की राह में उसे छोड़ने का हौसला भी रखता है। शुभ्रा की कहानियों में ये संतुलन ठीक-ठाक दिखाता है। उनके पात्र अपनी जगह बनाने के संघर्ष में जुटे अभी अधिक पुराने न हुए प्रवासी हैं, जिनके जीवन मूल्य एक खुले और अवसरों से भरे विकसित देश के सामाजिक मूल्यों से टकरा रहे हैं। ये ख़ास तौर पर स्त्रियों की, उनकी उम्मीदों, संघर्ष और त्याग (भी) की कहानियाँ हैं जो एक अनजान परिवेश में परिवार में पति, बच्चों, दूसरी स्त्रियों और बुज़ुर्गों के साथ रिश्तों के बीच उपजती हैं। 

शुभ्रा की कहानियों में एक सहज प्रवाह है जो उनमें कथा-कहन के नैसर्गिक गुण से आता है। अभी वे अपने पर्यवेक्षण के लिए शब्द चयन और कहानी के घटना-क्रम के संयोजन में सायास कुछ करने से बचती हैं। जो उनके मन-मस्तिष्क में उभरता है सीधे बयान कर देती हैं। इस ढंग से कहने में उनके संवादों की सजीवता मुखर होती है। हालाँकि मानवीय मनोविज्ञान के क्लिष्ट पक्षों को अभिव्यक्त करने में उन्हें अभी मेहनत करनी होगी, क्योंकि ऐसे मुश्किल कथानक चुनने के बाद कहानी के साथ सही न्याय तभी होगा। ‘अमरीका वाली’ जैसी कहानी परिवेश में ढलने की जद्दोजेहद को बयान करने के लिए महज़ कुछ घटनाओं के चित्रण से आगे जाने की अपेक्षा रखती है। 

‘आख़िरी चाय’ और ‘डॉलर ट्री’ सुगठित कहानियाँ हैं। दूसरी कहानी में जीवन की संध्या में अमरीकी प्रवास से रूबरू होते बुज़ुर्गों की मानसिकता का अच्छा चित्रण हुआ है। ‘आख़िरी चाय’ का अंत रोचक है और पूरी कहानी के रोमांचक मोड़ों को सही उपसंहार प्रदान करता है। 

शुभ्रा की ये कहानियाँ अमरीकी प्रवासी जीवन का एक छोटा-सा आईना हैं। कुछ कहानियाँ अनजाने ही किसी क्लिष्ट सी पारिवारिक गुत्थी को सुलझाने की राह भी सुझा जाती हैं जो परिवेश निरपेक्ष हैं। माँ बेटी के बीच उम्र के एक ख़ास दौर में उभरने वाली मनोवैज्ञानिक उलझनों पर ‘अमरीकन-इंडियन बेटी’ एक सुंदर कहानी है। 

शिकागो में कुछ वर्षों से रह रही शुभ्र ओझा से हिन्दी कहानी अपेक्षा रख सकती है कि आने वाले समय में उनके परिवेश से कुछ और बेहतरीन कहानियाँ पढ़ने को मिलेंगी, ख़ास कर कुछ ऐसे अनछुए मानवीय पहलुओं पर जो इस दौर की आर्थिक-राजनीतिक वैश्विक उथल-पुथल के बीच प्रवासी भारतीयों के जीवन में हलचल पैदा कर रही हों। इस पहले पुरस्कृत संग्रह के लिए उन्हें बधाई और आने वाली किताबों के लिए शुभकामनाएँ। 

—कमलेश पाण्डेय
नोएडा, उत्तर-प्रदेश

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