शब्द गुम होते गए
विजय प्रताप 'आँसू'शब्द गुम होते गए
भीड़ के विस्तार के संग प्रीत की बढ़ती पिपासा
वर्जनाओं के शहर में बेधती पल पल निराशा
यत्न की मुट्ठी सहेजी रेत तुम होते गये।
शब्द गुम होते गये।
जंगलों के नाम पर कुछ लोग यूकेलिप्टसी
पल रहे कुछ भाव हरियाली लपेटे कैक्टसी
आस मंजूषा में रखे वेद तुम होते गये।
शब्द गुम होते गये।
आइये मिल बैठ कर हम ज़िन्दगी को गुनगुनायें
हाथियों के पाँव से हम चींटियाँ कुछ तो बचायें
आज बेचैनी में कैसे मौन तुम होते गये
शब्द गुम होते गये।