शास्त्रीय गायिका का कलात्मक चित्रण

01-09-2025

शास्त्रीय गायिका का कलात्मक चित्रण

सरिता शर्मा (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: रेक्वियन इन राग जानकी
लेखक: नीलम सरन गौर
प्रकाशक: इंडिया पेनग्युइन
मूल्य: ₹399
पृष्ठ संख्या: 368
ISBN: 9780143467342 

जानकी बाई के जीवन पर नीलम सरन गौर द्वारा लिखी और पेंगुइन वाइकिंग से प्रकाशित पुस्तक “रेक्वियम इन राग जानकी” सौ साल पहले के शास्त्रीय संगीत के माहौल को काव्यात्मक भाषा में दर्शाती है। नीलम सरन गौर को इस पुस्तक के लिए अंग्रेज़ी श्रेणी में साल 2023 का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया था। 

कथावाचक 90 साल की एक बुज़ुर्ग गायिका है अपने खाने के लिए जानकी बाई इलाहाबादी की कहानियाँ सुनाती है। कथावाचक वादा करती है, “मैं आपको उसके बारे में जो कुछ जानती हूँ और जो मैं अनुमान लगाती हूँ और कल्पना करती हूँ, वह भी बताऊँगी। मेरी उम्र में चीज़ें बिना बुलाए ही आ जाती हैं; याद असलियत को पीछे छोड़ देती है।” वह गायकों की सनक के दिलचस्प क़िस्से भी सुनाती है। रजब अली खान की वेशभूषा को देखकर इत्र वाला उसे इत्र बेचने में हिचकिचाता है, तो वह इत्र की 10 शीशियाँ अपने जूते पर ख़ाली करवा देते हैं। हैदरी खान अपने खाने का जुगाड़ करने के लिए गाया करते थे। एक बार वह गाजी उद हैदर के पास पहुँच जाते हैं। गाजी उद हैदर उनसे कहते हैं, “मुझे गाना सुनाओ उस्ताद। आज मेरा रोने का मन है। अगर तुम्हारा गाना सुनकर मेरी आँखों में आँसू नहीं आए, तो तुम्हारा सर क़लम कर दिया जाएगा।” शुक्र है गाना सुनकर गाजी उद हैदर की आँखें भीग गई और वे जी भर कर रोये। गाना ख़त्म होने के बाद उन्होंने हैदरी खान से पूछा, “शानदार गाया। तुम्हें क्या इनाम दें।” हैदरी खान ने कहा, “कभी किसी के सामने ऐसी शर्त न रखें। अगर आप मेरा सर क़लम कर देते तो रियासत का कितना नुक़्सान हो जाता। आप जैसे शहज़ादे तो और मिल जाते पर मेरे जैसा कलाकार कहाँ से लाते?” जानकी बाई ने अतरसुइया चौक में पीपल के पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठ कर गाया तो चबूतरे पर चाँदी के 14000 सिक्कों का ढेर लग गया था। 

जानकी बाई का जन्म 1880 में वाराणसी में हुआ था। पिता का नाम शिवबालक और माँ का नाम मानकी देवी था। जानकी का बचपन तकलीफ़ों से भरा हुआ था। एक पुलिस कांस्टेबल रघुनंदन ने जानकी को प्रेम प्रस्ताव भेजा जो ठुकरा दिया गया। ग़ुस्से में रघुनंदन ने उन पर छुरी से हमला किया। शरीर से लेकर चेहरे तक घाव ही घाव करता चला गया। जानकी की हालत गंभीर हो गई। बचने की सूरत नहीं थी लेकिन वह बच तो गईं। उन पर छुरी से 56 घाव किए गये थे लिहाज़ा उन्हें छप्पन छुरी कहा जाने लगा। जानकी के पिता एक रखैल लक्ष्मी को ले आये थे जो परिवार के साथ रहती थी। रखैल के ग़ायब होने के बाद पिता घर छोड़कर चले जाते हैं और कभी वापस नहीं आते। यहीं से जानकी की ज़िंदगी एक नया मोड़ लेती है। उनकी माँ को इलाहाबाद में उनकी पड़ोसन सहेली पार्वती फुसलाकर बच्चों के साथ बनारस ले जाती है और मानकी को कोठे पर बेच देती है और उनका सोना भी छीन लेती है। 

मानकी बाद में कोठे को ख़रीद लेती है। जानकी एक प्रतिभावान बच्ची थी और इसलिए संगीत उस्ताद हस्सू खान को उसे शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित करने के लिए नियुक्त किया गया था। “जानकी के लिए शिक्षक रखे गए थे। उसे फ़ारसी और उर्दू सिखाने के लिए दरियाबाद से एक मौलवी आया करते थे। एक पंडितजी उसे संस्कृत पढ़ाने आते थे और एक अंग्रेज़ी जानने वाले मास्टर साहब को अंग्रेज़ी पढ़ाने के लिए नियुक्त किया गया था। उसे कोठे में ही संस्कृत, फ़ारसी, हिंदी और अंग्रेज़ी में शिक्षा दी गई थी।” 

जानकी की माँ ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें महान गुरु हस्सू खान से मार्गदर्शन दिलवाया। गुरु-शिष्य का एक मज़बूत रिश्ता है। जानकी के उस्ताद हस्सू खान ने उनसे कहा: “आप कभी-कभी कलाकार नहीं होते, यह याद रखें। आप हर समय कलाकार होते हैं, सोते-जागते भी। आप अपने माध्यम में उसी तरह साँस लेते हैं जैसे मछली पानी में साँस लेती है। यह आपके अस्तित्व का मुख्य कारण है। यह आपके कानों और आपकी आँखों और आपके रक्त की धाराओं को नियंत्रित करता है। दुनिया आपको स्वीकार करती है या अस्वीकार करती है, यह मायने नहीं रखता। जिस तत्त्व में आप रहते हैं और जिसमें डूबे रहते हैं, वह आपके दिन और रात को सत्य के वादे के साथ उद्देश्य से भर देता है। एक शागिर्द को सब्र, धैर्य की महान कृपा विकसित करनी चाहिए। जब कोई शिक्षक बोलता है और बीच में नहीं टोकते।” वह अपने शिक्षकों को सम्मान से याद करते हैं: “सौभाग्य से मुझे ऐसे शिक्षकों का आशीर्वाद मिला। आह, उनके नाम लेने से पहले अपना मुँह गुलाब जल से धोएँ! यह केवल भाग्य और ईश्वर की महान कृपा है कि हमें महान शिक्षक प्राप्त होते हैं। वे कभी भी सस्ते नहीं होते, चाहे पैसे के मामले में या श्रद्धा के मामले में।” 

हस्सू खान ने अनेक गुरु और चेलों के क़िस्से भी सुनाए। खुसरो हज़रत निजामुद्दीन औलिया की सेवा में गए। खुसरो बाहर द्वार पर बैठे रहे। उन्हें लगा अगर निजामुद्दीन चिश्ती वाक़ई कोई सच्चे सूफ़ी हैं तो मैं उनका मुरीद बन जाऊँगा। खुसरो ने बैठे-बैठे दो पद बनाए और अपने मन में विचार किया कि यदि संत आध्यात्मिक बोध सम्पन्न होंगे तो वे मेरे मन की बात जान लेंगे और अपने द्वारा निर्मित पदों के द्वारा मेरे पास उत्तर भेजेंगे। तभी मैं भीतर जाकर उनसे दीक्षा प्राप्त करूँगा वर्ना नहीं। खुसरो के ये पद हैं—”तु आँ शाहे कि बर ऐवाने कसरत, कबूतर गर नशीनद बाज़ गरदद। गुरीबे मुस्तमंदे बर-दर आमद, बयायद अंदर्रूँ या बाज़ गरदद॥” यानी “तू ऐसा शासक है कि यदि तेरे प्रासाद की चोटी पर कबूतर भी बैठे तो तेरी असीम अनुकंपा एवं कृपा से बाज़़ बन ज़ाए।” खुसरो मन में यही सोच रहे थे कि भीतर से संत का एक सेवक आया और खुसरो के सामने यह पद पढ़ा—”बयायद अंदर्रूँ मरदे हक़ीक़त, कि बामा यकनफस हमराज़ गरदद। अगर अबलह बुअद आँ मरदे-नादाँ। अजाँ राहे कि आमद बाज़ गरदद।” यानी “हे सत्य के खोजी, तुम भीतर आओ, ताकि कुछ समय तक हमारे रहस्य-भागी बन सको। अगर आने वाला अज्ञानी है तो जिस रास्ते से आया है उसी रास्ते से लौट जाए।” खुसरो ने जब यह पद सुना, वे संत के चरणों में नतमस्तक हो गए। ग्वालियर के एक और गुरु का क़िस्सा है जो बहुत घमंडी थे। नए चेलों को परेशान करने और उनका मज़ाक़ उड़ने के लिए शुरू में उन्हें शाही दरबार में मुर्ग़े की तरह बाँग देने के लिए कहा करते थे। मगर जयपुर के सज्जन बैरम खान ने ऐसे सारंगी वादक को भेजा जो 5040 से ज़्यादा तानों में माहिर था। इस बात से उस्ताद का घमंड टूट गया। 

जानकी बाई को रीवा के शाही दरबार में गाने के लिए आमंत्रित किया गया। रीवा के महल में उनका कक्ष जहाँ जानकी को गाने के लिए आमंत्रित किया जाता है, उसका वर्णन इस प्रकार किया गया है: “रीवा के फ़र्श पर हरे और लाल रंगों में कालीन बिछे हुए थे। एक लोहे की कुरसी पर एक आदमक़द संगमरमर का कामदेव अपना धनुष खींच रहा था और कमरे के उस पार एक विशाल पेंटिंग थी जिसमें एक भव्य मुग़ल शिकार को दर्शाया गया था।” महिला कलाकार की शारीरिक सुंदरता को प्राथमिकता देने का स्पष्ट संकेत रीवा दरबार के मुख्य प्रबंधक की बात से साफ़ है, “रीवा के महाराजा नकचढ़े और जल्दी नाराज़ होने वाले हैं। उनके पास संगीत के लिए एक बढ़िया कान है और साथ ही . . . एक महिला के रूप को देखने की एक . . . बेहतर नज़र भी है।” ऐसी रूढ़िवादिता को जानकी बाई ने ज़ोरदार चुनौती दी है। वह अपने पहले शाही प्रदर्शन के दौरान रीवा के महाराजा के सामने निर्भीकता से कहती हैं, “मेरे प्रभु, एक कलाकार को उसकी सूरत से नहीं, बल्कि उसकी सीरत से, कला से मापा जाता है, उसके चेहरे से नहीं। मेरी सूरत का कोई मूल्य नहीं है, मेरी सीरत का फ़ैसला मैं आप पर छोड़ती हूँ।” महाराजा इतने मंत्रमुग्ध थे कि उन्हें बहुत प्रशंसा के साथ-साथ धन-संपत्ति से भी नवाज़ा गया। 

जानकी बाई ने ग़ज़लें और ठुमरी लिखना शरू किया, “नग़मा-सरे के सिवाय कहती है शेर जानकी/ अहले-कलाम देख लें उसका हुनर अलग अलग।” उन्होंने ‘दीवान-ए-जानकी’ नामक उर्दू कविताओं की एक किताब भी लिखी। उन्होंने अपनी कहानी भी लिखनी शुरू कर दी। “वह दरमियाना क़द और ठीक-ठाक चेहरे, बड़ी आँखों, गेहुंए रंग, विनम्र, मधुर आवाज़ और लहराती चाल वाली और गेहुंए चेहरे पर चाकू के घावों के दागों वाली थी। समय गुज़रने के साथ ये दाग हल्के पड़ गए, फिर भी कुछ बचे हुए हैं।” उसने राजाओं, महाराजाओं, ज़मींदारों और रईसों के बारे में लिखा। उनके बारे में लोग कहा करते थे, “जानकी बाई के कंठ स्वर में मिश्री की डली घुली हुई है।” 

एक दिन जानकी बाई अपनी ग़ज़लें पढ़वाने के लिए जज साहेब और जाने-माने शायर अकबर इलाहाबादी से मिलने गई। अकबर की शायरी में हास्य-व्यंग्य होता था। वह कहते हैं, “क्यों कोई आज हरि का नाम जपे? क्यों ज़ियारत का जेठ सर पे तपे? काम वह है जो है गवर्मेन्टी। नाम वह है जो पायनियर में छपे।” औरतों की शिक्षा के बारे में वह कहते हैं, “तालीम लड़कियों की ज़रूरी तो है मगर, खातून-ए-खाना हों वह सभा की परी न हों।” जानकी बाई ने उनको उन्हीं के शेर सुनाए, “मज़हब कभी साइंस को सज्दा न करेगा, इंसान उड़े भी तो ख़ुदा हो नहीं सकता।” इसकी तर्ज़ पर जानकी बाई ने लिखा था, “ऐ जानकी ख़ालिक़ की परिस्तिश है बड़ी चीज़, पत्थर को जो बुत है ख़ुदा हो नहीं सकता।” अकबर इलाहाबादी के यहाँ उनकी हक़ साहिब से मुलाक़ात होती है जिससे जानकी बाई शादी कर लेती हैं। 

वह अकबर इलाहाबादी के साथ राग मल्हार और उसके कई रूपों के बारे में बात करती हैं। उनके साथ लाई अमरूदों की टोकरी देखकर अकबर इलाहाबादी ने कहा, “मैं कहा करता था कि इस शहर के पास अकबर और अमरूदों के सिवाय कुछ नहीं है। अब मैं कहता हूँ कि इसमें जानकी बाई भी रहती है।” जानकी बाई उनसे कहती हैं कि उनकी आवाज़ में ख़ुदा की आवाज़ की तरह वह ताक़त है जो चाहे किसी को बरी कर दे या सज़ा सुना दे। अकबर इलाहाबादी ने कहा, “रकाबियों ने रपट लिखवाई है जा के थाने में/ कि अकबर नाम लेते हैं ख़ुदा का इस ज़माने में।” जानकी बाई ने तुरंत शेर सुनाया, “किसकी ज़ुर्रत है जज साहिब को कोई गिरफ़्तार करे? जिनकी ज़बान से हर दरोगा, हर थानेदार डरे।” जानकी बाई ने उन्हें दीवान-ए-जानकी को पढ़कर उस पर सलाह देने के लिए कहा। अकबर इलाहाबादी ने उत्तर प्रदेश एग्ज़ीबिशन के बारे में कहा, “एग्ज़ीबिशन की शान अनोखी/ हर शै उम्दा हर शै चोखी/ ओखली दास की नापी जोखी/ मन भर सोने की लागत देखी।” 

जानकी बाई ने 1911 की शुरूआत में पैथेफोन के टीजे नोबल के लिए साठ से सत्तर टाइटल रिकॉर्ड किए और उन्हें 5000 रुपये का भुगतान किया गया। उन्होंने जी.टी.एल. को 3000 रुपये में बीस टाइटल देकर उन्हें ख़ुश कर दिया, और उनके रिकॉर्डिंग इंजीनियर आर्थर स्पॉटिसवुड क्लार्क को चौबीस और टाइटल देने का वादा किया। इलाहाबाद के बाक़ी नागरिकों की तरह ही जानकी भी प्रदर्शनी के इस महत्त्वपूर्ण आयोजन को लेकर उत्साहित थीं। 

गौहर जान इलाहबाद में जानकी बाई के घर ठहरी थी। टप्पा कजरी ठुमरी झूला संगीत की हर विधा में उनका दख़ल था। वह पहली स्टार गायिका थी जिनके बहुत भाषाओं में रिकॉर्ड निकाले गए थे। गौहर जान ने बंगाली, हिन्‍दुस्‍तानी, गुजराती, तमिल, मराठी, अरबी, पारसी, पश्‍तो, फ़्रैंच और अंग्रेज़ी समेत 10 से भी ज्‍यादा भाषाओं में 600 से भी अधिक गाने रिकॉर्ड किए। गौहर जान ने अपने क़िस्से सुनाए कि कैसे दतिया के महाराज के उनके लिए 11 कोच वाली स्पेशल ट्रेन भेजी थी जिसमें गौहर जान के संगीतकार, ख़िदमतगार, नाई, धोबी नौकरानियाँ, घोड़े और सईस साथ गए थे। उनके बारे में मशहूर था, “गौहर के बिना महफ़िल, जैसे शौहर के बिना दुलहन।” उन्हें फ़्रैंच भी आती थी और उन्होंने ‘मादाम बोवारी’ उपन्यास फ़्रैंच में पढ़ा था। उन्होंने अपनी बिल्ली की शादी पर 12000 रुपए ख़र्च किये और जब बिल्ली के बच्चा हुआ तो पार्टी दी जिस पर 20000 रुपए ख़र्च किये थे। 

जानकी बाई गौहर जान को अकबर इलाहाबादी से मिलवाने उनके घर ले कर जाती हैं। अकबर इलाहाबादी सुनाते हैं, “गए शर्बत के दिन यारो के आगे अब तो ऐ अकबर/कभी सोडा कभी लेमोनेड, कभी व्हिस्की कभी टी है।” ड्राई फ्रूट्स और केक को देखकर वह कहते हैं, “थे केक की फ़िक्र में, सो रोटी भी गयी/ चाही थी शै बड़ी, सो छोटी भी गई।” उन्हें औरतों का बेपर्दा रहना पसंद नहीं था। “बेपर्दा कल जो नज़र आई चंद बीबियां/अकबर ज़मीन में ग़ैरत कौमी से गड़ गया। पूछा जो उनसे आपका पर्दा वो क्या हुआ/ कहने लगी कि अक़्ल पे मर्दों के पड़ गया।” उन्होंने “जलवा-ए-दरबार-ए-दिल्ली” के बारे में लिखा, “सर में शौक़ का सौदा देखा, दिल्ली को हमने जा देखा, जो कुछ देखा अच्छा देखा। जमना जी के पाट को देखा, अच्छे सुथरे घाट को देखा, सबसे ऊँचे लाट को देखा, हज़रत ड्यूक कनाट को देखा। पल्टन और रिसाले देखे, गोरे देखे काले देखे, संगीनें और भाले देखे, बैंड बजाने वाले देखे।”

गौहर खान ने अकबर इलाहाबादी के उन पर लिखे शेर गाये, “ज़ुल्फ़-ए-पेचों में वही सजधज, कि बालाएँ भी मुरीद/क़ायदे रण में वही चमखम कि क़यामत भी शहीद। गर्म तक़दीर जिसे सुनने को शोला लपके, दिलकश आवाज़ कि सुनकर जिसे बुलबुल झपके/दिलकश चाल में ऐसी कि सितारे रुक जाएँ, सरकशी नाज़ में ऐसी कि गवर्नर झुक जाएँ/आतिशे हुस्न से तक़वे को जलाने वाली, बिजलियाँ लुत्फ़-ए-तबस्सुम से गिराने वाली।” अकबर इलाहाबादी ने गौहर जान के लिए लिखा, “ख़ुश-नसीब आज भला कौन है गौहर के सिवा? सब कुछ अल्लाह ने दे रक्खा है शौहर के सिवा।” अकबर इलाहाबादी के इस शेर पर जानकी बाई ने ठहाका लगाया। इसे गौहर ने अपना अपमान समझा। गौहर ने भी अकबर इलाहाबादी के लिए एक शेर लिखा, “यूँ तो गौहर को मय्यसर हैं हज़ारों शौहर, पर पसंद उनको नहीं कोई भी अकबर के सिवा।” गौहर को यह भी पता चला कि जानकी बाई ने शादी कर ली है। 

गौहर जान के मैनेजर अब्बास के ठहरने का इंतज़ाम उनके साथ मेडन्स होटल में न करके पास के किसी और होटल में किया गया था। इसके बाद गौहर जान ने घोड़ागाड़ी से शहर में घूमने से इनकार कर दिया। उन्होंने राज्याभिषेक के जलसे में शामिल होने के लिए आये अलग-अलग रियासतों के राजाओं को फोन करके अपने लिए 5 दिन के लिए 5 गाड़ियों का इंतज़ाम करा लिया। वह जानकी बाई का अपमान करते हुए कहती हैं, “मुझे तुम्हारी शादी के बारे में सब पता चल गया है जिसके बारे में तुम चुप थी। मुझे पता चला है कि तुमने उन्हें एक घर का उपहार दिया था।” जानकी बाई भी जवाब देती हैं, “अगर वह पति पाने का तरीक़ा है तो बाई साहिब गौहर के पास तो भेंट देने के लिए कई घर हैं।” गौहर जान जवाब देती हैं, “ठीक है जानकी मुझे यह सोचना चाहिए था। हो सकता है मैं भी तुम्हारी तरह ऐसा कर दूँ।” 

जानकी बाई और गौहर जान दोनों ने दिल्ली में जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक के अवसर पर मिलकर गाया, “ये जलसा ताजपोशी का, मुबारक हो मुबारक हो।” उन दोनों को सोने की 100-100 अशरफ़ियाँ दी गयी थी। दोनों में फिर से दोस्ती हो गई थी। गौहर जान ने बाद में मैनेजर अब्बास के साथ शादी कर ली थी जो उनकी बर्बादी का कारण बना था। उन्होंने अपना शानदार विला अब्बास के नाम कर दिया था। उन्हें तलाक़ लेना पड़ा और मुकदमेबाज़ी में बहुत पैसा ख़र्च करना पड़ा था। 

जानकी बाई अब्दुल हक़ को अपना पति चुनती है। वह अपना लखनऊ का घर उनके नाम कर देती हैं ताकि वह मुनिसिपलिटी का चुनाव लड़ सकें। इसके बावजूद हक़ साहिब उनका अहसान नहीं मानते और उन्हें अपमानित करते रहते हैं। जानकी बाई पति की इच्छा के विरुद्ध एक बच्चे को गोद लेती हैं जो बिगड़ जाता है और शादी के बाद भी नहीं सुधरता है। उसके घर छोड़ देने के बाद वह उसकी पत्नी चाँदनी को अपनी बेटी की तरह पालती हैं, जो बाद में हैजे से मर जाती है। 

जानकी बाई अपनी शालीनता और गरिमा के साथ समझौता नहीं करती हैं। बाईजी के रूप में उनकी प्रसिद्धि ने उनके और उनके ससुराल वालों के बीच दूरी बढ़ा दी थी। वे अक्सर उन्हें “दुलहन या अम्मी या खाला” के अलावा बाईजी कहकर बुलाते हैं। जब जानकी बाई को उनके पति के घर में शादी में गाने के लिए कहा जाता है तो वह इनकार कर देती हैं, “और मेरी इज़्ज़त का क्या? क्या यह परिवार मुझे बस नाचने गाने वाली बाईजी मानता है जो शादियों में गाती है? क्या मेरे सम्मान की कोई फ़िक्र नहीं है। घर की औरत होने के नाते कोई इज़्ज़त नहीं है।” जब हक़ साहिब कहते हैं कि उन्होंने अपने घर वालों को कह दिया था कि शादी में वह अपना सबसे अच्छा मुजरा करेंगी तो जानकी बाई अपने पति से पूछती हैं, “क्या आप चाहते हैं कि मैं आपकी छत के नीचे मुजरा करने वाली महिला बनूँ? . . . आपकी छत के नीचे नहीं, महामहिम, कभी भी आपकी छत के नीचे नहीं। मैं केवल अपनी छत के नीचे और उन लोगों के लिए मुजरा गायिका हूँ जो मुझे मुझे सम्मान देते हैं।” जब हक़ साहब जानकी के बच्चे के पालन-पोषण में बाधाएँ डालते हैं तो उन्हें एहसास होता है कि उनका विवाह “उनके जीवन की सबसे बड़ी गलती” है। वह अपने पति से कहती हैं “जाओ। और भगवान तुम्हें माफ़ करे।” 

“सैयां निकल गए मैं ना लड़ी थी” जानकी बाई इलाहाबादी द्वारा गाया यह कबीर भजन मृत्यु और किसी की आत्मा के शरीर को छोड़ने के बारे में था। जानकी बाई ने इसे ठुमरी में बदल दिया और इसे शाही दरबारों में महफ़िलों और शामियानों में गाया। राज कपूर की फ़िल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में लता मंगेशकर की आवाज़ में गाया गया। यह जानकी बाई के जीवन के दुख को दर्शाता है। बचपन में पिता द्वारा जानकी को माँ के साथ हमेशा के लिए छोड़कर चले जाना, गोद लिए बेटे को गांजे की लत लग जाना और उसकी धूमधाम से शादी होने के बावजूद नई दुलहन और जानकी को छोड़ जाना। सबसे दुखदाई रिश्ता पति के साथ रहा जिसने उन्हें जीवन भर दुख के सिवाय कुछ नहीं दिया। 

जानकी बाई ने अपना भाग्य ख़ुद गढ़ा और अपनी शर्तों पर जीवन जिया। जानकी बाई ने 100 से ज़्यादा गीतों और ग़ज़लों को रिकॉर्ड किया था। उस समय एक गीत के लिए हज़ारों रुपये लिया करती थीं। अधिकांश तौर पर भजन, कजरी, चैती की अर्ध-शास्त्रीय शैलियों में गायन हैं और होरी जैसी प्रस्तुतियाँ भी। ऐसा कहा जाता है कि उनके कई रिकॉर्ड की 25,000 से अधिक प्रतियाँ बिकीं, जो उनके समकालीनों के लिए भी अनसुना था। जानकी बाई ने पैसा और शोहरत ख़ूब कमाया। मगर समाज कल्याण की ओर भी ध्यान दिया। उन्होंने जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक में गौहर खान के साथ गायन के समय मिले सोने के सिक्कों को मोतीलाल नेहरू के पास राष्ट्रवादी कार्य के लिए भेज दिया। मोतीलाल नेहरू उनके गायन के प्रशंसकों में से एक थे। जानकी बाई ने अपने नाम पर एक धर्मार्थ ट्रस्ट की स्थापना की, जो आज भी इलाहाबाद में मौजूद है। उन्होंने ज़रूरतमंद छात्रों को वित्तीय सहायता देने, ग़रीबों को कंबल वितरित करने, मंदिरों और मस्जिदों को दान देने के साथ मुफ़्त रसोई चलाने के उद्देश्य से अपनी सारी सम्पत्ति और अपने रिकॉर्ड और प्रदर्शन से अपार सम्पत्ति ट्रस्ट को सौंप दी। 

18 मई 1934 को उनकी मृत्यु इलाहाबाद में हुई। वहीं उनका अंतिम संस्कार किया गया। इलाहाबाद के आदर्शनगर के कालाडांडा क़ब्रिस्तान में उनकी क़ब्र मौजूद है लेकिन बदहाल हालत में। 

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