सीने में फाँस की तरह: कविता में साँच की आँच 

01-08-2023

सीने में फाँस की तरह: कविता में साँच की आँच 

डॉ. अरुण कुमार निषाद (अंक: 234, अगस्त प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

समीक्षित कृति: सीने में फाँस की तरह (काव्य संग्रह) 
रचनाकार: शैलेन्द्र चौहान 
प्रकाशक: न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली-110012 
संस्करण-प्रथम: 2023 ई। 
मूल्य: ₹200/-
पृष्ठ: 105 

शैलेन्द्र चौहान का सद्यः प्रकाशित काव्यसंग्रह ‘सीने में फाँस की तरह’ पढ़ते हुए मैंने यह अनुभव किया कि शैलेन्द्र चौहान स्वतन्त्र की विडम्बनाओं, संसदीय लोकतन्त्र की अर्थहीन होती परम्पराओं, मूल्यक्षरित संवैधानिक संरचनाओं, अधिकारच्युत किये जा रहे नागरिक समुदाय के कवि हैं। 
शैलेन्द्र चौहान की आदिवासी कविता पढ़ते हुए अदम गोंडवी का एक शेर याद आता है कि–तुम्हारी फ़ाइलों में 

गाँव का मौसम गुलाबी है/मगर ये आँकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है। आज भी देश का विकास सिर्फ़ सरकारी फ़ाइलों, चाटुकारिता भरे समाचार पत्रों और टीवी चैनलों तथा सोशल मीडिया पर हो रहा है। जबकि ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही है। आज़ादी के इतने सालों बाद भी आज भी कुछ ऐसे गाँव हैं जहाँ बिजली पानी की समस्या बराबर बनी हुई है। चिकित्सा की कोई सुविधा नहीं है। आनेजाने के लिए संपर्क मार्ग तक नहीं है। 

तड़कता हाड़-माँस 
भयानक पीड़ा में 
अच्छी सेहत को 
दरकार संसाधन 
औषधि अति महँगी 
कपूर और लौंग बाँध हाथों में 
दूर भगाते चिकनगुन्या, 
मलेरिया 
डेंगू
विपन्न भील 
मालवा, निमाड़ के। (पृष्ठ 7) 
X    X    X
उनके मन में दतिलों के प्रति 
है इतना प्रेम कि हुलास गए 
पैर पखारने के लिए कुम्भ में 
बहुतों ने दलितों के साथ बैठकर खाना खाया 
रिच मेनू वाला जो 
वे खाते हैं अक़्सर 
बुलाया गया था ज़िले के सबसे अच्छी होटल से 
उनके अपने स्वादानुसार 
पहली बार दलितों ने उसका चखा स्वाद। (पृष्ठ 33) 

‘वन ग्राम’ नामक कविता में वे लिखते हैं कि आदिवासियों को खेती करने का भी अधिकार नहीं है। वे जंगली जानवरों को मारा कर खाते हैं और उसी से अपना पेट भरते हैं: 

आज बस एक बंदर का शिकार मिला
पूरा गाँव उसी में भरेगा पेट
सन्तुष्ट हैं वे
कल शायद कोई और जानवर मिल सके
कुछ बड़ा जिसमें मिले अधिक गोश्त। (पृष्ठ 15)

बड़ी-बड़ी पार्टियों में काम करने वाले नीचे तबक़े के लोगों के विषय में वे लिखते हैं:

खाना शानदार/रहना शानदार/भाषण शानदार/श्रोता शानदार/वीडियोग्राफी शानदार/बात इतनी थी/तुम थे तमाशाबीन/वे थे दुकानदार। (पृष्ठ 16)

चापलूस और चाटुकार रचनाकारों को भी कवि नहीं छोड़ता है। शैलेन्द्र जी लिखते हैं कि लानत है ऐसे रचनाकार को जो संपादकों के तलवे चाटते हैं: 

तुच्छ लाभ के आगे/ स्वाभिमान सौ बार क़ुर्बान। (पृष्ठ 17)

आज के भ्रष्टाचारियों की पोल खोलते हुए शैलेन्द्र जी कहते हैं कि:

बेशरमी की बाड़ लगाई/लोभी चमचों की पाँत बनाई। इसी कविता में वे आगे लिखते हैं—न साख गँवायी न इज़्ज़त गँवायी/ . . . मठाधीश है भाई/बधाई बधाई बधाई बधाई। (पृष्ठ 1)

वर्तमान राजनीति पर प्रकाश डालते हुए शैलेन्द्र जी लिखते हैं कि किस प्रकार आज देश में छिछली राजनीति हो रही है। चन्द मुट्ठी भर लोगों को सुख करने के लिए समूचे देश को अग्नि कुण्ड में झोंका जा रहा है। जाति और धर्म के नाम पर देश का बँटवारा हो रहा है: 

राजनीति को अंबानी-अडानी के चरणों में/ले जाना है। . . .सबको देशभक्ति का पाठ पढ़ाना है/किसी को नक्सली किसी को आतंकी बताना है। ताली और थाली बजाना है/बिजली बन्द कर टार्च जलाना है/जरूरी चीज़ों के दाम बढ़ाना है/ जी एस टी लगाना है। (पृष्ठ 19-20)
X    X    X
नहीं रोज़गार युवाओं को तो क्या/अपने बच्चे तो धंधे में हैं . . . ग़रीब तो हैं पैबंद टाट के/इनकी क्या बिसात/वे अपनी समझें। (पृष्ठ 21-22)
X    X    X
जटाधारी पूज्य हैं और बलात्कारी क्षम्य
गौरवपूर्ण इतिहास के नायक सत्ता के दावेदार
पुलिस और सुरक्षा बल तैनात उनकी सुरक्षा में
अधिकाती विनत, पंचायतें हैं धन्य। (पृष्ठ 25)
X    X    X
राजनेता हैं अपार शक्तियों से सुसज्जित
वे पाँच वर्षों में एक बार बाक़ी समय पैसा माँगते हैं
देश सेवा के नाम पर
अधिकारी हैं, अपराधी हैं
तरह-तरह के देशसेवक हैं। (पृष्ठ 28)
X    X    X
मरने के बाद लाभ 
ढूँढ़ लेगा अनेक रास्ते 
चलता रहेगा शोषण सदैव 
लाभ के वास्ते निर्बाध
श्रमजीवी मनुष्यों का। (पृष्ठ 78) 
X    X    X
दरकता सरदार सरोवर 
लपकती मगरमच्छों सी राजनीति 
बेदख़ल नागरिकों की 
गरदनें दबोचने को। (पृष्ठ 90) 

शैलेन्द्र चौहान लिखते हैं कि जाति धर्म के और सम्प्रदाय के नाम पर जिस निरपेक्षता की बात होती है वह केवल मिथ है। हक़ीक़त कुछ और ही है जो किसी से छुपी नहीं है। 

राम मन्दिर के लिए चन्दा देता हूँ
भगवती जागरण पर चूनर ओढ़ता हूँ
गुरूद्वारे में मत्था टेकता हूँ
ख्वाजा की दरगाह पर चादर चढ़ाता हूँ
चर्च जाकर अपने अपराध स्वीकारता हूँ
लेकिन तनिक कनफ्यूज हूँ
मन में सवाल है
धर्मनिरपेक्षता क्या इसी को कहते हैं? (पृष्ठ 32)

शेयर मार्केट के नाम पर भोली-भाली जनता को ठगने वालों पर तंज़ कसते हुए शैलेन्द्र चौहान लिखते हैं:

अब इससे ज़्यादा विकास 
क्या होगा इस देश का 
 . . . . . . . . . . . . . . 
रूबरू है शेयर बाज़ार से अमीर, ग़रीब एक साथ। (पृष्ठ 95) 

शैलेन्द्र चौहान जी की कविता की भाषा सरल, सुबोध, सुग्राह्य तथा सुललित है। यह काव्यसंग्रह बिम्ब, लय, अनुभूति, कल्पना आदि की सुन्दर अभिव्यक्ति करता हुआ पाठकों के बीच अपना स्थान बनाने में सफल है। इस सुन्दर सृजन के लिए शैलेन्द्र चौहान जी को साधुवाद एवं अनेकों शुभकानाएँ। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें