संकेतक और सचेतक कविताओं का संग्रह: पीपल वाला घर
नरेन्द्र कुमार कुलमित्रसमीक्षित पुस्तक: पीपल वाला घर (काव्य संग्रह)
लेखक: रमेश कुमार सोनी
प्रकाशक: जिज्ञासा प्रकाशन गाजियाबाद 2023
पृष्ठ:130
मूल्य: 200₹
ISBN: 978-81-19292-90-5
‘पीपल वाला घर’ रमेश कुमार सोनी का सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह है। संग्रह में लिखी सारी कविताएँ पर्यावरणीय चिंता और चिंतन पर आधारित है। समकालीन समय विमर्शों का समय है। विमर्श के लिए हमारे पास अनेक विषय हैं। धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक मुद्दों पर लगातार विमर्श हो रहे हैं। पर्यावरण का लगातार बिगड़ते स्वास्थ्य के मद्देनज़र पर्यावरण विमर्श सबसे अहम हो गया है।
संवेदनशील रचनाकार लेखक हो या कवि अपने समय की चिताओं से परे नहीं हो सकता। पीपल वाला घर काव्य संग्रह जैसे कि नाम से ही स्पष्ट है, एक ऐसा घर जिसके पास ही विशाल पीपल का पेड़ है। इस समय सजावटी पेड़ों से सजाने सँवारने का प्रचलन है। शहरों में बरगद पीपल जैसे विशाल पेड़ों को लगाने के लिए जगह नहीं है। पहले गाँव के आसपास और तालाब के पार में विशाल बरगद पीपल के पेड़ का होना आम बात थी। पर्यावरण की दृष्टि से इन पेड़ों का महत्त्व तो था ही धार्मिक नज़रिए से भी विशेष महत्त्व होता है। परंपरा है कि महिलाएँ अपने पति की लंबी उम्र की कामना से वट सावित्री व्रत रखती हैं और वे बरगद वृक्ष की पूजा करते हैं। इसी तरह पीपल पेड़ पर बरम बाबा का निवास मानकर शाम में पीपल के पास दीए जलाए जाते हैं। मृत आत्मा की शान्ति के लिए पीपल पेड़ पर घड़े में पानी भरकर बाँधने का रिवाज़ रहा है। गाँव में ऐसे पीपल को घंटहा पीपल कहा जाता है।
हमारे पुरखों ने पेड़ों को बचाने के लिए धार्मिक और मनोवैज्ञानिक रास्ता अख़्तियार किया था। वे इस मनोविज्ञान से भली-भाँति परिचित थे कि लोग ईश्वर देवता या धर्म के नाम से डरते हैं, इसीलिए वे अलग-अलग पेड़ों पर अलग-अलग देवता के वास होने का उपाय सोच लिए थे। आस्तिक जन पेड़ों को काटने से इसलिए डरते थे कि अलग-अलग पेड़ों पर अलग-अलग देवताओं का वास होता है। वहीं कुछ पेड़ों में प्रेत आदि नकारात्मक शक्ति का वास होना बताया जाता था जिससे लोग डर से पेड़ को नहीं काटते थे। भारतीय परंपरा में घर में तुलसी का पौधा या नीम का पेड़ लगाना शुभकारी माना गया है। इस तरह भारतीय संस्कृति में प्रकृति को देवी मानते हुए प्रकृति के सारे उपादानों पेड़-पौधे, पर्वत-पठार, नदी-झरने, धरती, जल, पवन आदि का अलग-अलग अवसरों पर पूजा की जाती है। धार्मिक परंपराओं में प्रकृति पूजा के पीछे प्रकृति संरक्षण का भाव अंतर्निहित है।
प्रकृति और मनुष्य का सम्बन्ध अटूट रहा है। मनुष्य प्रकृति से अलग अपने अस्तित्व के बारे में सोच भी नहीं सकता। हमारी साँसों से प्रारंभ सारा जीवन प्रकृति पर अवलंबित है। प्रकृति चित्रण साहित्य में प्रारम्भ से मिलता है। ऋग्वेद, वाल्मीकि रामायण, संस्कृत साहित्य, जैन साहित्य, बौद्ध साहित्य, अपभ्रंश साहित्य आदि में प्रकृति चित्रण प्रसंग देखे जा सकते हैं। हिंदी कविताओं में प्रकृति चित्रण की सुदीर्घ परम्परा रही है। प्राचीन एवं मध्यकाल में प्रकृति चित्रण सौंदर्यात्मक एवं आह्लादकारी है। प्रेम और सौंदर्य की कविताओं में प्रकृति के आलम्बन एवं उद्दीपन रूप का ख़ूब चित्रण मिलता है। तब पर्यावरण संकट की स्थिति इतनी भयानक न थी शायद इसीलिए कवियों की दृष्टि सौन्दर्य चित्रण से इतर ना हो सकी। आदिकाल में बिसलदेव रासो में प्रकृति के उद्दीपन रूप का चित्रण मिलता है। विद्यापति की कविताओं में प्रकृति के विविध रूपों का चित्रण है। अमीर खुसरो की पहेलियों में प्रकृति चित्रण के दर्शन होते हैं। भक्ति काल में सुर, तुलसी की रचनाओं के साथ मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत में प्रकृति के बारहमासा का चित्रण मिलता है। रीतिकाल में केशव, देव, भूषण तथा सेनापति की कविताओं में प्रकृति चित्रण देखे जा सकते हैं। आधुनिक काल के अंतर्गत भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, रामनरेश त्रिपाठी की कविताओं में प्रकृति के मनोहारी रूप का चित्रण मिलता है। छायावादी कवियों में प्रसाद, पंत, निराला तथा महादेवी वर्मा जी ने जिस कुशलता से प्रकृति का चित्रण किया है कि पाठक प्रकृति चित्रण को ही छायावाद समझने की भूल करते हैं। समकालीन कविताओं में नरेश मेहता, केदारनाथ अग्रवाल, भवानी प्रसाद मिश्र, कुँवर नारायण की कविताओं में प्रकृति चित्रण मिलता है। प्रकृति के प्रति सौंदर्यप्रियता के साथ-साथ विमर्शात्मक सोच आधुनिक काल के समकालीन कवियों में विशेष रूप से देखी जा सकती है। कुँवर नारायण की कविता दृष्टव्य है जिसमें कवि प्रकृति का सौंदर्यात्मक चित्रण करने के बजाय विमर्शात्मक रूप प्रस्तुत करते प्रतीत हो रहे हैं: “अबकी घर लौटा तो देखा वह नहीं था/वही बूढ़ा चौकीदार वृक्ष/जो हमेशा मिलता था घर के दरवाज़े पर तैनात/”
हरियाली से दमकते वृक्ष, खिलते महकते फूल, कल-कल बहती नदियाँ, गझीन पेड़ों से भरे ऊँचे-ऊँचे पहाड़, घने जंगलों की वादियाँ भला किसे आकर्षित नहीं करता . . .? शहरी संस्कृति की आपाधापी से थककर हम सब तरोताज़ा होने के लिए उन्हीं के क़रीब जाते हैं। स्वार्थ के फेर में फँसा इंसान धीरे-धीरे प्रकृति से दूर होता जा रहा है। हम विकास के रास्ते पर आगे बढ़ते-बढ़ते विनाश के मुहाने तक पहुँच चुके हैं। दिनों दिन शहरों का विस्तार हो रहा है और जंगल सिमटता जा रहा है। हर तरफ़ सड़कों और उद्योगों का जाल बिछ रहा है, पेड़ काटे जा रहे हैं, नदियाँ सिमटती जा रही हैं। ऐसे में एक चेतस रचनाकार अपने शाब्दिक प्रयासों से पर्यावरण को बचाने के पक्ष में खड़ा होता है, यह श्लाघनीय है। ‘पीपल वाला घर’ काव्य संग्रह के माध्यम से एक ओर जहाँ भौतिकवादी, उपभोक्तावादी और बाज़ारवादी संस्कृति के प्रभाव से पर्यावरण के बिगड़ते स्वास्थ्य के प्रति चिंता व्यक्त की गई है तो दूसरी ओर पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए लोगों से प्रेमभरा मनुहार की गई है। इस संग्रह में पर्यावरणीय चिंता और चिंतन पर आधारित कल 51 कविताएँ संगृहीत है।
कवि ने जैसा कि संग्रह की भूमिका में कहा है कि, “यह काव्य संग्रह आम पाठकों में पर्यावरणीय चेतना जागृत कर सके तथा वे इससे प्रेरित होकर अपने परिवेश को सँवार सके” इस उद्देश्य से लिखा है। ज़ाहिर है काव्य संग्रह का उद्देश्य पर्यावरण के प्रति लोगों को संवेदनशील बनाना है। काव्य संग्रह में कवि जहाँ एक ओर सकारात्मक शब्दों एवं पंक्तियों के माध्यम से पर्यावरण के तमाम अंगों का चित्रण करते हैं तो दूसरी और उपभोक्तावादी संस्कृति से उपजे नकारात्मक शब्दों एवं पंक्तियों को प्रयुक्त कर प्रकृति के साथ हो रहे अत्याचार को मार्मिक अभिव्यक्ति देते हैं। संग्रह की कविताओं में प्राकृतिक उपादानों जैसे पेड़-पौधे, नदी-घाटी, पहाड़, बादल, हवा-पानी, सुबह, शाम, सूरज, चाँद, सितारे, मिट्टी, चिड़िया, घोंसले जैसे शब्दों की पुनरावृत्ति तथा पक्षियों का बसेरा, ठंडी घनी छाँव, साँसों की रसोई जैसे ही पंक्तियों की प्रयुक्ति पर्यावरण के प्रति पाठकों को सजग बनाती है।
शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण से निःसंदेह विकास हुआ है मगर साथ ही साथ हमने अपने पर्यावरण को विकास के बुलडोज़र से विनाश की ओर धकेल दिया है। मानव द्वारा पर्यावरण पर अवांछित हस्तक्षेप से होने वाले दुष्परिणामों तथा पर्यावरण की सेहत को बिगाड़ने वाले शब्दों-प्लास्टिक, अम्लीय वर्षा, विषैली कचरा, बारूदी गंध, बाज़ार, बोतल बंद पानी, नंगे पहाड़, प्यास का बाज़ार, कृत्रिम हवा, उपभोक्ताओं की फ़ौज, रोते-बिलखते वृक्ष, गुमशुदा गाँव आदि शब्दों का प्रयोग बार-बार मिलता है।
उपभोक्तावाद और बाज़ारवाद से पनपी नई संस्कृति ने लोगों को संवेदनहीन बना दिया है। भौतिक सुविधाओं को जुटाने की दौड़ में हम इतना तेज़ भाग रहे हैं कि सिवाय अपने स्वार्थ के कुछ और नहीं सूझ रहा है। इस भागमभाग दौर में संवेदनाएँ पथरा रही हैं। ऐसे में बच्चों के भोलेपन एवं कोमल संवेदनाओं से बड़ों को सीख लेने की ज़रूरत है। ‘अँखुआ रहे हैं बच्चे’ कविता में बच्चों की सदाशयता देख कवि सुकून से भर जाता है:
“मेरे लिए सुकून भरे क्षण होते हैं/जब कोई बच्चा बचा रहा होता है/बीच सड़क में किसी पिल्ले को/बना रहा होता है उसके लिए एक डॉगी हाउस/ओढ़ा रहा होता है जूट का बोरा/किसी आवारा मवेशी को/चुगा रहा होता है दाना पानी/किसी घायल परिंदे को/”
हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं और हमारा जीवन कृत्रिमता से भर गया है। हमारा दैनिक क्रिया व्यवहार बनावटी हो चुका है। प्रकृति से मिलने वाला आनंद कृत्रिम चीज़ों में ढूँढ़ रहे हैं। ‘ख़ुशियाँ रोप ले’ काव्य की पंक्तियाँ इसी ओर इंगित करती हैं:
“प्लास्टिक के फूल बेचकर ख़ुश हैं/बहुत से बचे खुचे हुए लोग/मोबाइल में पक्षियों के रिंगटोन से/”
शहरी अपसंस्कृति धीरे-धीरे गाँव की ओर पाँव पसारने लगा है। फिर भी गाँव की संस्कृति और प्रकृति की मौलिकता अभी बाक़ी है। अब भी गाँवों की सुबह शहर की तरह उदास नहीं होती। ‘स्वर्णिम आभा’ कविता में गाँव में भोर के दृश्य का सुंदर चित्रण है:
“भोर मुझे किसी बच्ची की निष्कपट मुस्कान की जैसी लगती है भोर मेरी खिड़की पर आकर रोज़ मुझे/स्कूल जाने को उठा देती है/बिल्कुल मेरी माँ के जैसी/”
पेड़-पौधे और जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियाँ लुप्त होने के कगार पर हैं। सारी दुनिया में केवल इंसानी दुनिया और इंसानी भीड़ बढ़ती जा रही है। जीव जंतुओं के उजड़ रहे आशियानों से बिल्कुल बेपरवाह है इंसानी दुनिया। ‘लाड़ले परिंदे’ कविता में परिंदों द्वारा इंसानों के समक्ष अहिंसा के रास्ते समाधान माँगने के सवालों पर क्रूर इंसान मौन रह जाता है:
“फिर भी वे वहीं बैठते हैं/शायद शोक गीत गाने/शोक भरे हुए पेड़ का/शोक उजड़े हुए आशियाने का/ शोक रूठे हुए मौसम का/एवं शोक बिगड़ैल इंसानों का/परिंदे अपना समाधान/सिर्फ अहिंसा के मार्ग से चाहती हैं/और आप कैसा समाधान चाहते हैं?”
नदियों की पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति और मनुष्य की अमानवीय प्रवृत्तियों पर तंज़ ‘नदी की यात्रा’ कविता में देखी जा सकती है:
“नदियाँ नंगे पहाड़ों की आँसू है/लेकिन आदमी की परिभाषा में/नदी एक प्यास का बाज़ार है/”
इतना ही नहीं मानवीय सभ्यताओं को बसाने वाली नदियों को मानवीय सभ्यताओं ने अपने स्वार्थ के लिए बाज़ार की वस्तुएँ बना दी है:
“नदियों ने बसाई सभ्यताएँ/सभ्यताओं से उपजे बाज़ार/और बाज़ार की वस्तुएँ हो गईं/एक-एक कर सारी नदियाँ/”
‘काँपती नदी’ कविता में नदी इंसानी हथियारों के डर से काँपती हुई प्रतीत होती है। अकेले गुज़रते हुए उसे हमेशा बारूदी सुरंग एवं बाँधों का डर बना रहता है। मगर विडंबना यह है कि वह अपनी सुरक्षा की माँग करें भी तो किससे क्योंकि सही मायने में जिन्हें रक्षक होना चाहिए था वही भक्षक बन बैठे हैं।
आजकल लोग छायादार तथा फलदार पेड़ों को काट-छाँटकर बौना बना दे रहे हैं। पेड़ अब फल फूल और छाया के लिए न होकर गमले में सजावटी सामान हो गया है। परिवर्तन कविता में रमेश जी की कल्पना अद्भुत है:
“ऐसे इंसानों की दुनिया में/बोनसाई को देखा तो लगा कि/किसी पेड़ को बाज़ार ने/कनबुच्ची सज़ा दी हुई है/”
रचनाकार हर विपरीत और नकारात्मक परिस्थितियों में सकारात्मक होता है। कवि हमेशा आशा उम्मीद का रस घोलकर अपनी कविताओं को जनमानस में परोसता है। ‘पेड़ रोपते हुए’ कविता में कवि मन की उदात्त कल्पना मर्मस्पर्शी है:
“पेड़ रोपते हुए/मैंने बोया है/भविष्य के गर्भ में/पानी हवा छाया फल सुकून और/थोड़ी सी पृथ्वी की साँसें/”
जितनी प्रकृति बदली है उससे कहीं अधिक संस्कृति बदली है। संस्कृति और प्रकृति में बदलाव एक दूसरे को प्रभावित करती है। अधिकांश कविताओं में नदी और पानी का बार-बार ज़िक्र हुआ है। यह अकारण नहीं है क्योंकि नदी और पानी दोनों हमारी संस्कृति से गहरे जुड़े हुए हैं। हमारी संस्कृति में अपरिचित को भी पानी पूछने का रिवाज़ रहा है। जो अब धीरे-धीरे लगभग समाप्त हो रहा है। पानी अब बाज़ार की वस्तु बन गया है। बोतल बंद पानी हमारे समय का कड़वा सच है। इसी कड़वे सच को कवि मन स्वीकार करते हुए कहता है:
“पानी की बोतल ख़रीदते हुए देख रहा हूँ/हमारे प्याऊ सभ्यता की अर्थी/”
संग्रह की अंतिम कविता ‘अलार्म बज रहा है’ समय की चिंताओं के प्रति सजग करती है। कविता में दिन-ब-दिन गहराते संकट की ओर संकेत है। हमारी ख़ूबसुरत प्रकृति से पेड़-पौधे, नदियाँ, शुद्ध हवा पानी, जंगल, मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू, चिड़ियों तथा जीव जंतुओं का शोरगुल दूर होते जा रहा है। लगातार ख़तरे का अलार्म बज रहा है कि प्रकृति वीरान होने वाली है:
“अलार्म बज रहा है सर्वत्र /श . . . श . . . श . . . कोई जा रहा है/”
कुछ कविताओं की पंक्तियाँ बेहद सपाट बयानी लगती है जिसमें काव्यात्मकता एवं सरसता का अभाव है। पंक्तियाँ नारा लेखन सा बिल्कुल सूचनात्मक है काव्य जैसी कसावट नहीं है। ‘भयानक स्वप्न’ की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं:
“तेल की बूँदें बचाएँ/गाड़ियां शेयर करें/सार्वजनिक वाहन का उपयोग करें/आवश्यक यात्रा से बचें/साइकिल चलाएँ/तेल की ऊर्जा बूँदें करें यही पुकार/नई भोर में हो इसकी जय जयकार/”
ऐसी ही ‘आखिरी पाठ’ कविता की कुछ पंक्तियों में सूचनात्मकता है मगर काव्यात्मकता का अभाव है:
“कुछ लोग सीख सीखा रहे हैं/पानी कैसे बचाना चाहिए/सूखी होली खेलें/नल की टोटी बन्द रखें/ पौधा लगाएँ/पक्षियों के लिए सकोरा रखें/”
संग्रह की कविताओं में नए समय के नए-नए उपमानों का प्रयोग किया गया है, जैसे—अब वह ग़ुस्से में कुकर बन बैठी है, ओज़ोन की फटी छतरी ओढ़े, पसीना बोते हैं किसान, प्रचंड लू की नागिन, व्यवस्था का एरावत सुस्ता रहा है, वक़्त का ऊँट किस करवट बैठेगा? आदि। संग्रह की कविताओं में स्थानीयता का प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई देता है। कविताओं में छत्तीसगढ़ी शब्दों का प्रयोग स्वाभाविक ढंग से हुआ है, जैसे—बरदी मेरे गाँव की, मिट्टी का मितान आदि।
कुल मिलाकर ‘पीपल वाला घर’ की कविताएँ एक तरह से संकेतक कविताएँ हैं जो हमें प्रकृति को नुक़्सान पहुँचाने वाले ख़तरों की ओर संकेत करती हैं तो दूसरी तरफ़ यह सचेतक कविताएँ भी हैं जो हमें ख़तरों के मद्देनज़र सचेत भी करती हैं। उम्मीद है कि कवि रमेश कुमार सोनी की संकेतक और सचेतक कविताएँ पाठकों को प्रभावित करेंगी।
समीक्षक:
नरेंद्र कुमार कुलमित्र
(सहायक प्राध्यापक)
पी.जी. कॉलेज—कवर्धा, छत्तीसगढ़
मो: 97558 52479