संवेदनाओं की यथार्थवादी अभिव्यंजना : मोह के धागे

01-05-2024

संवेदनाओं की यथार्थवादी अभिव्यंजना : मोह के धागे

डॉ. विभा कुमरिया शर्मा (अंक: 252, मई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: मोह के धागे (कहानी-संग्रह)
रचनाकार: वीणा विज ‘उदित’
प्रकाशक: बिम्ब–प्रतिबिम्ब प्रकाशन, फगबाड़ा (पंजाब)
प्रकाशन वर्ष: 2021
मूल्य: ₹225.00
पृष्ठ संख्या: 125
ISBN: 978-81-949779-8-8

बिंब प्रतिबिंब सृजन संस्थान, फगवाड़ा पंजाब से प्रकाशित कहानी-संग्रह ‘मोह के धागे’ लेखिका वीणा विज ‘उदित’ द्वारा 2021 में प्रकाशित रचना है और यह साहित्य जगत को उनकी तरफ़ से अनमोल देन है। 

प्रो. हरमहेंद्र सिंह बेदी, (कुलपति केंद्रीय विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश) मोह के धागे पुस्तक के विषय में अपने विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि—कहानी-संग्रह मोह के धागे लेखिका के व्यक्तित्व को बहुरंगी बनाते हैं, लेकिन वर्तमान का यथार्थ उसे उनके कर्तव्यबोध से जोड़ देता है। नारी चित्त की यह कहानियाँ समकालीन हिंदी साहित्य को नया मोड़ देती हैं और मोह के धागे अपनी सत्ता को हर घटना में बनाए रखती हैं। 

‘मोह के धागे’ कहानी-संग्रह के विषय में लेखिका वीणा विज उदित जी लेखिका होने के आधार पर इस पुस्तक की रचना के विषय में पाठकों के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हुए उनसे पुस्तक और प्रत्येक रचना हेतु निष्पक्ष आलोचना और समीक्षा का निमंत्रण देती हैं। वह कहती हैं कि मैं आभारी हूँ उस प्रभु की, जिसने मुझे विचार और ज्ञान रूपी वरदान दिया है। जिससे मैं संवेदनाओं की अनुभूति और अभिव्यक्ति पर खरी उतर सकी हूँ। समीक्षा अथवा आलोचना हेतु पाठक वर्ग को उनके द्वारा दिया गया खुला निमंत्रण बताता है कि उनका हृदय विशाल है और पाठक आसानी से उनकी सहृदयता को पहचान लेता है। 

शीर्षक—मोह के धागे के नाम से पुस्तक मेरे पास है। मैं वीणा विज उदित जी का धन्यवाद करने लगती हूँ। मन ही मन में हर्षित होती हूँ कि उन्होंने मुझे इस क़ाबिल समझा और पुस्तक उपहार स्वरूप मुझे दी। एक दिन बातों ही बातों में उन्होंने पूछ लिया, “क्या आपने पढ़ ली मेरी रचना?” किसी भी रचना को पढ़ने का मेरा अपना ही तरीक़ा है। उसे समाप्त करने के लिए मैं पढ़ती नहीं जब तक वह रचना मेरे दिल में उतर कर मुझे प्रश्न नहीं करती तब तक उस रचना के विषय में मेरा मन कुछ सोचता ही नहीं है। केवल पाँच कहानियाँ पढ़ने के बाद मैं उन कहानियों के विषय में ही सोच रही थी। मैंने उन्हें सच-सच बता दिया, “सिर्फ़ पढ़ने के लिए नहीं पढ़ रही हूँ जब तक उसे मन में महसूस न कर लूँ मुझे कहानी का कथानक मुँह चिढ़ाता है, मेरा मज़ाक़ उड़ाता है।” उन्होंने कहा—आराम से पढ़िए और समीक्षा दीजिए, आलोचना कीजिए आपकी मर्ज़ी। आज मैं उनकी लिखी रचना पर अपने विचारों के साथ एक कोशिश करना चाहती हूँ या यूँ समझिए कि अब मैं शायद समुद्र से मोती खोज सकी हूँ। 

कुल 18 कहानियों का संग्रह। मोह के धागे—उन अनुभवों का प्राकट्य है जो अनुभव हमारे रोज़मर्रा के अपने जीवन में अक्सर होते रहते हैं। कहानियाँ छोटे कलेवर में होने के बाद भी एक बड़ा और गहरा संदेश और संवेदना छोड़ जाती हैं। एक लंबे अनुभवशाली जीवन की अभिव्यक्ति कहती है और उनकी क़लम जीवन के किसी भी पल में पक्षपात नहीं करती। 

कहानी संग्रह में आरंभ में ही शीर्षक पर आधारित कथा (मोह के धागे) में आत्म प्रवंचना के क्षणों में नायिका के माध्यम से वह कहती हैं—उसने टीवी का स्विच ऑफ़ किया तो लगा उसके नीचे की अलमारी जो काफ़ी सालों से बंद पड़ी थी उसके भीतर से जैसे खटखटाने की आवाज़ उसे सुनाई दी। मानो वह इल्तज़ा कर रही हो, आज मुझे खुली हवा में साँस लेने का मौक़ा दे दो—वास्तव में अतीत की दस्तक तब तक सुनाई देती रहती है जब तक मोह किसी न किसी धागे से अथवा किसी न किसी डोर से जुड़ा रहता है। वैभव के रूप में उसकी यादों की प्रतीक फोटो को चिंदी-चिंदी कर देना एहसास दिलाता है कि यथार्थ के धरातल पर जीवन की वास्तविकता क्या है और प्रेम की वास्तविकता क्या है? 

‘साझी’ कहानी पुनर्जन्म पर आधारित घटनाक्रम है। हिंदू धार्मिक मान्यता के आधार पर समाज में कभी-कभी कुछ इस प्रकार की घटनाएँ घटित होती रहती हैं जो घटनाक्रम से संबंधित लोगों को अचंभित कर देती हैं और अपने मोह के पाश से मुक्त होने ही नहीं देती। कहानी की नायिका तारा के माध्यम से पूर्व जन्म के संबंधों और वर्तमान के पारिवारिक संबंधों को एक तार से जोड़ने वाली लड़की का दो परिवारों में तारतम्य बिठाना आश्चर्यजनक रूप से अभिभूत करता है लेकिन पाठक को भी इस स्थिति से बाहर नहीं आने देता—एक किवाड़ की साँकल क्या खुली कि विश्वास और वहम की सारी साँकलें खुलती चली गईं। घर में सब हैरान थे कि इन कोठरियों की तरफ़ कभी किसी का ध्यान क्यों नहीं गया? ख़ैर बैठक में वापस आकर सतिया ने एक-एक करके सारे गहने गिना दिए। दोनों भाइयों और बच्चों की आँखों से ख़ुशी की जलधाराएँ बह रही थीं। सभी उसे गले से लगाने को आकुल थे . . .  कालांतर में चतुर्वेदी जी ने उनके लिए एक पक्की इमारत बनवा दी तारा बिटिया अब सत्य भी थी वह साझी हो गई थी—कहानी पुनर्जन्म घटना पर आधारित है। पाठक इस बात पर बहस करना ही नहीं चाहता कहानी को जैसे कहा गया है उसी रूप में स्वीकार करता है और उसकी यह स्वीकारोक्ति स्पष्ट करती है हिंदु समाज में पुनर्जन्म की सत्यता को। 

‘वक़्त की तपिश’ कहानी में जहाँ एक तरफ़ लेखिका अपनी रचनाधर्मिता का पालन करती दिखाई देती है वहीं दूसरी तरफ़ वह कथानक को बिखरने नहीं देती। उनका कवयित्री मन, प्रकृति वर्णन अथवा परिस्थिति जन्य प्रकृति के विकराल रूप से अछूता नहीं रहता। प्राकृतिक आपदाओं के परिप्रेक्ष्य में लिखी रचना की भयावहता में इंसान का इंसान होना, परिस्थितियों का मिलकर सामना करना, सुखद संदेश देता है। ऐसी भयानक स्थिति में अपने अस्तित्व परिवार और सहयात्रियों की चिंता अनायास ही मनुष्यता के संबंधों को गहरा देती है। कुछ समय की विपत्ति खोया और पाया का गणित बताने के बाद भी एहसास शेष छोड़ जाती है। एक उदाहरण देखिए—तपती भट्टी से निकल खरे सोने से रिश्ते थे। बस मोल समझना था अब—क़लम का एक और कमाल देखिए—चारों तरफ़ तेज़ रफ़्तार से बढ़ता जल घाटी को भर रहा था उस जल में लाल मिट्टी मिली होने से उसका रंग ख़ूनी लाल दिख रहा था, उसकी फ़ितरत भी ख़ूनी हो गई लग रही थी—प्रतीकों के माध्यम से कथानक के साथ सामंजस्य बैठाने की शैली पाठक को कश्मीर धाटी के जलप्लावन की वास्तविकता से परिचित करवाती है। 

आत्मग्लानि किसी भी इंसान के मन मस्तिष्क की वह स्थिति होती है जब उसे अपने द्वारा किए गए कुकर्मों के चीत्कार जीने नहीं देते। भ्रूण हत्या पर आधारित कहानी ‘नन्ही चीखें’ समाज और हर उस इंसान की मानसिकता का पर्दाफ़ाश करती है जो पुत्र कामना से कन्या भ्रूण हत्या करने जैसे अपराध से पीछे नहीं हटते। जब तक किसी इंसान की आत्मा सोई रहती है वह अपने आसपास होने वाले घटनाक्रम पर ध्यान नहीं देता लेकिन दृश्य बदलते ही आत्मग्लानि का भाव उसे सर से पैर तक झकझोर देता है। आत्ममंथन के चैतन्य में यदि वह सँभल जाए तो अनर्थ होने से बच जाता है। लेखिका वीणा विज उत्कृष्ट कहानीकार तो हैं ही इसके साथ ही कहानी को शब्द चित्र शैली में लिखना उनकी विशेषता है। नन्ही चीखें कहानी जहाँ अपने शीर्षक से लोगों का ध्यान आकर्षित करती है वही उनके शब्द चित्र सब कुछ जीवंत कर देते हैं। एक उदाहरण देखिए—दीवारों पर लाल छींटे तो धरा पर लाल-लाल बिखरा कीच। इस कीच में नंग-धडंग ढेरों भ्रूण हैं और नवजात शिशु भी। ख़ून में लिपटे हाथ पाँव मार-मार कर चीत्कार कर रहे हैं ‘हमें मत मारो, मत मारो। हम पर अत्याचार मत करो। हमें भी जीने दो’—ऐसे शब्द पढ़कर कोई भी इस कहानी को पढ़े बिना नहीं रह सकता। 

‘तीन चौक्के’ कहानी मानवीय पीड़ा, संवेदना के सूक्ष्म तारों की कथा है जो प्रवासी भारतीयों के आमूल-चूल परिवर्तन की प्रतीक है। जो प्रतीक है इस यथार्थ भाव की जिसमें लोग अपने देश की संस्कृति से अनभिज्ञ हैं। ऐसे लोग जो पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण स्वेच्छा से करते हैं और स्वयं को आधुनिक बताते हैं। 4:44 समय बार-बार कहानी के घटनाक्रम में प्रवेश कर अपनी स्थिति और महत्त्व को मज़बूत करता है। पश्चिमी आधुनिक सभ्यता का अंधानुकरण रिश्तों की मर्यादा का दुश्मन होता है। 4:44 पर कहानी की पात्र पेम को समय की चुनौती, यौन संबंधों से उपजी विकृतियों से वितृष्णा, 4:44 पर गोल्डन गेट ब्रिज पर आकाश और तनीमा का एक्सीडेंट। आकाश की मौत और तनीमा का कोमा में चले जाना। ऑपरेशन द्वारा बच्ची के जन्म के बाद 4:44 पर प्राण त्याग देना यह तीन चौक्के लेखिका वीणा विज के द्वारा पॉउलो कोएल्हो की अल्केमिस्ट रचना का प्रभाव है। वह इस रचना के माध्यम से यह स्वीकार करते हैं कि-बहुत ही साधारण दिखने वाली चीज़ें हमारे जीवन में सबसे असाधारण होती हैं। कहानी तीन चौक्के उसी का प्रतीक है। 

नशे की लत में डूबती पंजाब की नौजवान पीढ़ी के जीवन को ‘टीके वाली’ कहानी के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए लेखिका नौजवान पीढ़ी को जागृत करना चाहती है। अपने आसपास के वातावरण से प्रभावित और अपनी पत्नी को दुनिया से अलग आनंद देने की धुन में बहने वाला कहानी का नायक समर का सही समय पर सँभालना सुखद निर्णय और वक़्त की आँधी से बचाव है। लेखिका नशे में गुम होती युवा पीढ़ी की वापसी चाहती है। वह नहीं चाहती कि नवयुवक अपनी ऊर्जा को नशे का ग़ुलाम बनाकर अपना और राष्ट्र का सर्वस्व बर्बाद कर दें। 

समलैंगिक रिश्तों के प्रति आसक्ति और उनसे बनने वाले सम्बन्ध, नए युग की पहचान हो सकते हैं। भारत में भले ही इस विदेशी संस्कृति को स्वीकृति मिल गई हो, पर पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली परम्पराएँ और संस्कृति इसे स्वीकार नहीं कर पाती। लेखिका वीणा विज जहाँ एक तरफ़ कपोल कल्पित कथानक पर एक सुंदर रचना उकेर देने में पारंगत हैं, वहीं वह अपने आसपास के वातावरण से भी अनभिज्ञ नहीं रहती हैं। यदि वह टीके वाली कहानी के माध्यम से नशे की आसक्ति में जीवन बर्बाद करने की कहानी कह सकती हैं, वह भारत सरकार द्वारा युवा पीढ़ी को समलैंगिक रिश्ते निभाने की अनुमति से हताश दिखाई दे सकती हैं तो ‘पक्की सहेली’, ‘हथेली पर सूरज’, ‘बिट्टी’ जैसी कहानी लिखकर पाठकों का मन जीतने में सफल रहती हैं। 

शीर्षक ‘बालू भित्तिका’ के माध्यम से युवा पीढ़ी के अवसान काल की चुनौती के दर्शन होते हैं। प्राकृतिक, नैसर्गिक जीवन से दूर, संतानोत्पत्ति में असमर्थ, सामाजिक उपेक्षा के शिकार, सामाजिक तौर पर दोहरी ज़िन्दगी जीने को मजबूर हैं। ऐसे लोग न तो समाज के साथ सामंजस्य बैठा पाते हैं और ना ही वह वैवाहिक जीवन को सार्थक कर सकते हैं। परिवारों के बिखराव और विघटन पर आधारित यह कहानी पाठक वर्ग में जागरूकता का संचार करती है और साथ ही साथ इस बात को भी प्रमाणित करती है कि लेखिका एक जागरूक लेखिका है जो सामाजिक उत्थान हेतु वक़्त की आवाज़ और आवश्यकता को भली-भाँति पहचानती भी हैं। कहानी की नायिका रँगीली अपने समलैंगिक पति के आचरण से व्यथित होकर शादी के बाद जब पहली बार अपने मायके जाने लगती है उसका दृढ़ निश्चय इस बात की घोषणा करता है कि अब नई भी अनाड़ी नहीं रह गई है और ना ही उसके घर वाले इस बात को दोहराते हुए दिखाई देते हैं कि जहाँ तुम्हारी डोली गई है वहाँ से अर्थी उठेगी। समाज जागरूक हो रहा है और समाज ने जो करवट ली है उसके अनुसार कहानी की कुछ पंक्तियाँ कहानी का परिणाम स्वयं ही सामने लाकर रख देती हैं—उन सब को अँधेरे में रखकर एक समलैंगिक के साथ उनकी सामान्य बेटी का सम्बन्ध बनाया गया है। यह लोग दंड के अधिकारी तो हैं, उन्होंने इन तीनों को काल कोठरी में बैठकर मंत्रणा करने और खिचड़ी पकाने का इंतज़ाम उनके विरुद्ध केस करके कर दिया। 

‘पक्की सहेली’ के तने पानी के द्वारा वह अनुभव जान सकते हो उजागर करते हैं कि जब तो पक्की सहेलियों में से एक सहेली दूसरी सहेली से कहती है ‘तुझे जो बात बता रही हूँ मैं किसी और से ना कहना . . . ’ फिर तो भली करे राम . . .समझो बात घर-घर पहुँच गए गई। कथानक चरम बिंदु पर पहुँचकर टिड्डसहेली को हल्के हाज़मे अर्थात् अपनी बचपन की सहेली के छुपाने वाले रहस्य को ना छुपाने के कारण दूसरी सहेली रतनी को कुएँ में गिरकर आत्महत्या करनी पड़ती है। 

पंजाबी भाषा से प्रभावित और पंजाब के पृष्ठभूमि पर लिखी गई कहानी में लेखिका ने पंजाबी शब्दों का जी भरकर प्रयोग किया है, लेकिन पाठक वर्ग में से जो पंजाबी जानते नहीं हैं, उनके लिए उसे हिंदी में अनुवाद रूप में लिखकर उन्होंने उनकी समस्या का भी पर्याप्त समाधान कर एक वृहत पाठक वृंद को जोड़ने का प्रयास किया है। 

‘एक और गुनाहों का देवता’ कहानी के माध्यम से लेखिका मन की व्यथा और छटपटाहट को शब्दों के ताने-बाने में प्रयोग कर उत्कृष्ट ढंग से अपने ही ताने-बाने से जोड़े रखती है। एक उदाहरण विशेष रूप से दृष्टव्य है—घर पर ताला लगा देखकर घर के पास लगे गुलमोहर के पेड़ की जड़ों को अपना संदेश दे आई थी। उनको आँसुओं में भिगोकर उसकी जड़ों के पास पड़े पत्थरों से प्रहार कर करके उन्हें चोटें देकर, जिससे उन्हें छलनी देखकर, वापस आने पर तुम जान सको मेरे छलनी होते हृदय की हर धड़कन की पीड़ा को। 

सम्पूर्ण कहानी संग्रह में यत्र-तत्र हिंदी के साथ-साथ अन्य कई भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया गया है। कहीं-कहीं तो उन पर स्थानीय भाषा का प्रभाव दिखाई देता है और कहीं-कहीं वह परिस्थितियों के साथ तालमेल बैठाने के लिए देशकाल और वातावरण को दृष्टिगत करते हुए इस तरह के शब्दों का प्रयोग करती हैं जिस तरह के वातावरण में सर्वसाधारण उनकी कल्पना करता है। कहानियों से तारतम्य बिठाने के लिए—मिट्टी की दीवारें, साझी—कहानी देशकाल के अनुरूप रचित होने के कारण भाषा भाव से और स्रोत हैं। पंजाबी उर्दू, बिहारी भाषा और देहाती वाक्यांशों के प्रयोग से उसे कहानी के अनुरूप वातावरण देने का प्रयास बहुत सुंदर बन पड़ा है। प्रत्येक कहानी में अपनी गतिशीलता है जो निर्बाध गति से बढ़ती जाती है। कथावस्तु के आधार पर मिट्टी की दीवारों के संग बिताए गए बरसों बीते वर्षों को याद करते बड़ी बहू के शब्द मन को भिगो देते हैं—बहन जी मैं अपनी मिट्टी की दीवारों को जफ्फियाँ डालकर आई हूँ। माँ जैसे ही ध्यान रखा था उन्होंने मेरा—यह वाक्य जैसे आँसुओं की भाषा बोलता है और पाठकों का मन भी कहानी के घटनाक्रम जैसा हो जाता है। जिन लोगों को अपनी जड़ों से जुड़ाव महसूस होता है वह निशब्द रहकर भी आँखों से आभार व्यक्त कर ही देते हैं। 

वीणा विज उदित जी हिंदी साहित्य जगत की सहृदय, संवेदनशील रचनाकार हैं। एक तरफ़ वह यथार्थवादी दृष्टिकोण रखती हैं तो दूसरी तरफ़ आदर्शोन्मुख भी हैं। जो कुछ समाज में घटित हो रहा है यदि वह समाज के लिए लाभदायक है तो ठीक नहीं तो उनकी क़लम सच कहे बिना नहीं रहती। उन्होंने अपने आसपास जिन विसंगतियों को देखा, जैसी सामाजिक उठापटक को महसूस किया उसे ‘मोह के धागे’ के माध्यम से अत्यंत सरल व सहज ढंग से पाठक वर्ग के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। उनकी कथाओं के कलात्मक कौशल देखा जा सकता है। प्रसंगानुकूल संवाद द्वारा वह भाव और विचार को बहुत संजीदगी से संप्रेषित करने में सक्षम हैं। वीणा विज जी का कहानी-संग्रह अनमोल एवं असरदार है। भविष्य में इसी प्रकार समय-समय पर उनकी रचनाएँ पढ़ने को मिलती रहेंगी, मैं ऐसी उम्मीद करती हूँ। 

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