साहित्य में कोई राम बाण या लक्ष्मण रेखा नहीं होती—सन्दीप तोमर

15-06-2024

साहित्य में कोई राम बाण या लक्ष्मण रेखा नहीं होती—सन्दीप तोमर

निशा भास्कर (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)


सन्दीप तोमर देश की राजधानी दिल्ली में रहकर साहित्य सेवा कर रहे हैं, मूल रूप से वे उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के गाँव गंगधाडी से हैं। पच्चीस से अधिक वर्षों से लेखन से जुड़े रहे हैं, लघुकथा पर अध्ययन और लेखन उन्हें विशिष्ट पहचान देता है। लघुकथा की बारीक़ियों पर उनके आलेखों को देखा जा सकता है, लघुकथा समीक्षा और आलोचना में दख़ल रखते हैं। कितने ही लेखक उनसे लघुकथा सीख साहित्य साधना कर रहे हैं। वर्तमान में हिन्दी कहानियों और उपन्यासों से उन्होंने साहित्य में एक अलग पहचान बनायी है, निशा भास्कर ने उनसे साक्षात्कार किया, श्री तोमर ने इस साक्षात्कार में बेबाकी से ईमानदार उत्तर दिए हैं। आइए रूबरू होते हैं इस अनोखे साक्षात्कार से

—सम्पादक 

निशा भास्कर: 

आजकल लघुकथा पर काफ़ी ज़ोरों-शोरों से काम चल रहा है। क्या आप लघुकथा की वर्तमान स्थिति से संतुष्ट हैं? 

सन्दीप तोमर: 

देखिये निशा जी, ये सत्य है कि आजकल लघुकथा पर काफ़ी ज़ोरों-शोरों से काम चल रहा है। लेकिन सत्य यह भी है कि क्वालिटी काम बहुत कम हो रहा है, इस मत से मेरा अभिप्राय निराशावादी दृष्टिकोण नहीं है। आज थोक के भाव लघुकथा लिखी जा रही हैं, हरियां के एक रचनाकार ने तो एक रात में २८ लघुकथाएँ लिखने तक का दावा किया है। एक उपन्यासकार भी एक सिटिंग में इतने पेज अपने उपन्यास के नहीं लिख पाता होगा, तो तय कीजिये कि जो ज़ोरों-शोरों से काम हो रहा है, उसमें क्वालिटी वर्क कितना है? आजकल लघुकथा के शोध-केंद्र तक खुले हैं, पता किया जा सकता है कि वहाँ क्या, कितना और कैसे शोध हो रहा है? सवाल ये है कि शोध के असल मायने क्या हैं? गोष्ठियाँ आयोजित करना शोध है या समीक्षा लिखना शोध है या फिर लघुकथाओं का वाचन शोध है? शोध का शाब्दिक अर्थ भी लें तो उसे अनुसन्धान कहना उचित होगा, अर्थात्‌ विधिवत गवेषणा, वैज्ञानिक अनुसन्धान में जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश की जाती है, जॉन ड्यूवी तो नयी जिज्ञासा उत्पन्न करना भी इसमें शामिल करते हैं, जब स्थापित शोध केंद्र तक को यह स्पष्ट नहीं है कि क्या किया जा रहा है और क्या करना है तो लघुकथा की वर्तमान स्थिति से संतुष्ट होने का प्रश्न ही नहीं होता। 

निशा भास्कर: 

लघुकथा साहित्य में सोशल मीडिया के कौन-कौन से प्लैटफ़ॉर्म महत्त्वपूर्ण है? ये मीडिया किस तरह से लघुकथा के लिए कार्य कर रही है? 

सन्दीप तोमर: 

इसमें कोई संदेह नहीं कि सर्वप्रथम फ़ेसबुक लघुकथा के प्रसार के लिए सोशल मिडिया के रूप में उपयोग किया गया, उसके लगभग 6 या 7 साल बाद व्हाट्सअप ग्रुप्स बनने लगे, वाहन भी लघुकथाओं ने विस्तार पाया, यूट्यूब को भी प्रयोग किया जा रहा है, अब तो इन्स्टाग्राम भी एक माध्यम है सभी सोशल माध्यमों का भरपूर उपयोग लघुकथा लेखक कर रहे हैं, लेकिन यहाँ एक सत्य यह भी है कि इन माध्यमों में अधिकांशतः संपादन का अभाव है, उन्मुक्त माध्यमों पर रचनाकार लिखने के लिए मुक्त है, लेकिन मुझे लगता है कि संपादन के अभाव में रचनाएँ कई बार अपना अभीष्ट प्राप्त नहीं कर पातीं। रचनाकार जो भी लिखना है, वह उसे मुकम्मल मान लेता है, मूल्यांकन के अभाव में रचनाकार अपनी लेखन के दुर्बल पक्षों से अवगत ही नहीं हो पाता। 

निशा भास्कर: 

क्या आप भी किसी सोशल मीडिया के माध्यम से लघुकथा के लिए कार्य कर रहे है? 

सन्दीप तोमर: 

आधुनिक होना ही किसी रचनाकार के सफल होने की कुंजी है, मेरे एक लघुकथा लेखक मित्र हैं, एक बार मैंने उनसे कहा—मित्र, आप आज भी ८० के दशक के स्टाइल में रचनाएँ लिखते हो, जबकि आज अनेक माध्यमों के आने से हमने ख़ुद को अपडेट करने की ज़रूरत है तो मैं आज के लगभग सभी माध्यमों से किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ हूँ। 

जितने भी लघुकथा लेखक हैं वे या तो फ़ेसबुक से जुड़े, या फिर व्हाट्सअप से, मेरे एक मित्र हैं ललित मिश्र, सर्प्रथम उन्होंने और मैंने लघुकथा को वाचन के माध्यम से श्रोताओं के मध्य ले जाने का विचार बनाया, वर्जिन स्टूडियो के माध्यम से अनेक लघुकथा लेखकों की रचनाओं का वाचन हमने स्वयं या अन्य से कराया, ललित की कार्यशैली के चलते मैंने यह कार्य स्वयं करने की ठानी और अफ़साने साहित्य के यूट्यूब चैनल बनाया, जिसे साहित्यानामा बाय संदीप तोमर के नाम से खोजा जा सकता है, यह निलेश मिश्रा, या स्टोरीवाला की तरह ख़ूब सराहना मिली, उसके बहुत बाद रवि यादव ने बोल हरयाणा चैनल से लघुकथा को वाचन के माध्यम से विस्तार दिया, आज तो हर लघुकथा लेखक इस विधा का मुरारी बाबु है, बहराल, अच्छा लगता है कि ये विधा किसी न किसी रूप में लगातार अपनी सीमाओं का विस्तार कर रही है। 

निशा भास्कर: 

आपकी दृष्टि में ऐसे कौन से विषय हैं जो लघुकथा में अब तक अछूते रहे हैं? 

सन्दीप तोमर:

मेरी दृष्टि में अंचल विशेष और दिव्यांग व्यक्तियों की समस्याओं पर बहुत कम लिखा गया है। मुझे लगता है इन विषयों पर अधिक लिखे जाने की ज़रूरत है ताकि समाज का रवैया दिव्यांगों के प्रति बदले, मुझे याद आता है सुभाष नीरव की एक लघुकथा है “लँगड़ी सोच” लघुकथा से भी महत्त्वपूर्ण है रचना-प्रक्रिया, सुभाष जी के बेटे की शादी में आये लघुकथा मनीषियों के वार्तलाप से उसका कथानक लिया गया है, मज़ेदार बात ये है कि उस रचना का नायक कहीं उपस्थित न होकर भी उस रचना का सबसे सशक्त पात्र है, चलिए सुभाष जी की उस रचना सुन कुछ लुत्फ़ उठाते हैं:

लघुकथा

लँगड़ी सोच
-सुभाष नीरव

राजेश जिस समय फ़ॉर्म हाउस पहुँचा, पार्टी अपने शबाब पर थी। एक प्रकाशक ने अपने प्रकाशन की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर इस शानदार डिनर पार्टी का आयोजन किया था। छोटे-बड़े प्रकाशकों, पत्रकारों, लेखकों का अच्छा-ख़ासा जमावड़ा था। कुछ वी.आई.पी. चेहरे भी दिख रहे थे। राजेश ने प्रकाशक से मिलकर उसे बधाई दी, फिर अपने कुछ परिचितों से हाथ मिलाया, हैलो-विश की और लॉन के एक कोने वाली गोल मेज़ की तरफ़ बढ़ गया जिधर उसके कुछ ख़ास लेखक मित्र बैठे थे। 

“क्या बात, देर से पहुँचा?” प्रताप ने हाथ मिलाते हुए पूछा। 

“आजकल यह बहुत व्यस्त लेखक है यार . . . समय कहाँ मिलता है इसे,” संजय ने पनीर-टिक्के का एक पीस मुँह में डालते हुए कटाक्ष किया। 

“धड़ाधड़ किताबें आ रही हैं तेरी! इतने सारे प्रकाशकों को कैसे पटा लेता है बे?” यह अनुपम था जिसने दारू वाले गिलास को दोनों हाथों से ढक रखा था। 

“और सुना . . . आजकल हम पुराने मित्रों को तो तू भूल ही गया! . . . न जाने किन-किन ऐरे-ग़ैरे लेखकों की किताबें पढ़कर फ़ेसबुक पर लिखता रहता है, कभी हमारी किताब की ओर भी झाँक लिया कर . . .” राजेश कुछ जवाब देता, उससे पहले ही उमेश बोल उठा। 

“अरे, आजकल ये महाशय, युवा लेखक कौशल पर फ़िदा हैं,” प्रताप ने मुँह खोला। 

“वो लँगड़ा . . . ” अपना गिलास ख़ाली करते हुए संजय बोला। 

“हाँ। अपने-आप को वो जाने क्या समझता है! और ये महोदय आए दिन उसे झाड़ पर चढ़ा रहे हैं,” अनुपम ने होंठ टेढ़े किए। 

“उसका लिखा साहित्य भी लँगड़ा ही है, मैंने पढ़ा है। साहित्य की दौड़ में ये टहल-क़दमी ही कर सकता है, ज़्यादा दूर नहीं जा सकता। थक-हाँफ कर जल्द ही बैठ जाएगा लँगड़ा, देखते रहना,” प्रताप ने अपने अंदर इकट्ठा हुई कुंठा, कुर्सी के पीछेवाली झाड़ की जड़ में थूक दी। 

राजेश जो अभी तक चुपचाप सबकी बातें सुन रहा था, उसके लिए और अधिक वहाँ बैठ पाना कठिन हो गया। वह कुर्सी पर से उठा और सबके चेहरों पर बारी-बारी अपनी एक निगाह डालकर बोला, “सुनो, काग़ज़ पर क़लम को चलना होता है, टाँग को नहीं।”

सब चित पहलवान-से हकबका गए। 

“उसका शरीर विकलांग है, क़लम नहीं। पर, तुम लोग दिल, दिमाग़ और क़लम . . . हर फ़्रंट पर विकलांग लगते हो। घिसटते रहो यूँ ही अपनी विकलांगता के साथ . . .” कहकर वह मुड़ा और लॉन के साथ वाले हॉल की ओर चल दिया जिधर डिनर खोल दिया गया था। 

 

हालाँकि मेरी इस रचना के शीर्षक से सहमति नहीं है लेकिन इस रचना का शिल्प, इसका रचना विधान इस रचनाकार को भीड़ से अलग करता है, यहाँ कोई दयाभाव नहीं है, पाठक स्वतः ही पात्र से जुड़वाँ महसूस करने लगता है। तो ऐसी रचनाएँ और ऐसे विधाओं पर रचनाएँ लिखी जानी चाहिए। 

निशा भास्कर: 

अभी आपने शैली की बात की, तो हम आपसे पूछना चाहते हैं कि वह कौन सी शैली है जिसमें बहुत कम लघुकथाएँ लिखी गई है? 

सन्दीप तोमर:

साहित्य की शैलियों में एक उपशैली है—कॉमेडी, जिसमें बहुत कम लघुकथाएँ लिखी गयी हैं। लघुकथाओं में डायरी शैली, पत्र शैली में भी लघुकथा लिखने का चलन अभी नहीं के बराबर है। पंजाब से स्नेह जी ने अभी पत्र शैली में संकलन सम्पादित किया है, उनके संपादन में एकालाप शैली में भी एक संकलन प्रस्तावित है, आज भी अधिकांश लोग विवरणात्मक शैली और आत्मकथ्यात्मक शैली को अधिक अपनाये हुए हैं, लघुकथा में आत्मकथ्यात्मक शैली में रचनाकार कई बार कथा-सर्जन करता है, यह एक बहुत ही मुश्किल शैली है जिसमें रचनाकार जानकारी के अभाव में स्वयं को नायक के तौर पर प्रदर्शित करता है जबकि इस शैली में ऐसा नहीं करना होता, अधिकांश लेखक यहाँ चूक कर जाने के कारण आत्म-विवेचन का शिकार हो जाते हैं। मोनोलॉग शैली (स्वयं से बात) में भी लघुकथा लिखते हुए रचनाकार वही ग़लती दोहरा देता है। कहा जा सकता है कि इसमें अक्सर लेखक पक्षपाती हो जाता है। यहाँ से लेखन में लेखकीय प्रवेश होता है, लेखक को इससे बचना होगा, कुछ रचनाकार तो इन दोनों में अंतर को भी नहीं समझते। आत्मकथात्मक शैली या मोनोलोग को लेखक को बहुत अधिक आवश्यक होने पर ही अपनाया जाना चाहिए। लेखकीय प्रवेश न हो इसका भी प्रयास किया जाना चाहिए। 

निशा भास्कर: 

साक्षात्कार शैली में लघुकथा लिखने के लिए आवश्यक तत्त्व क्या होने चाहिए? 

सन्दीप तोमर: 

साक्षात्कार शैली प्रश्न पूछने की विधि को निर्धारित करती है। इसमें व्यवहार संबंधी सवालों के जवाब पूछने की आवश्यकता हो सकती है, जो समान भूमिकाओं में लेखन करने वालो को मददगार हो, व्यक्ति के संघर्ष, उनके कार्य के तरीक़े पर बातचीत महत्त्वपूर्ण है।  ओपन एंडेड, स्थिति जन्य, व्यवहार इत्यादि पर प्रश्नों को शामिल किए जाना मुझे अधिक उपयुक्त लगता है। 

जहाँ तक तत्त्वों को बात है तो मुझे लगता है साक्षात्कार शैली में लघुकथा लिखने के लिए पाँच आवश्यक तत्त्व हैं: प्रत्यक्षीकरण, परिवर्तनशीलता, समायोजनशीलता, रोचकता, और विशिष्टीकरण। एक लघुकथा लेखक में तीक्ष्णता के साथ तथ्यों को प्रस्तुत करने का कौशल होना चाहिए। साक्षात्कार शैली में ये बहुत ज़रूरी है कि प्रश्नों का क्रमवार ब्योरा लिया जाए ताकि पाठक उस परिवर्तनशीलता से ख़ुद को कनेक्ट करे हाँ। ये भी ज़रूरी है कि एक संयोजन की स्थिति बनी रहे, साक्षात्कारकर्ता और वह व्यक्ति जिसके साक्षात्कार के निमित्त रचना प्रक्रिया चल रही है उनमें लेखक समायोजन स्थापित करे। रोचकता बनाये रखने की ज़िम्मेदारी भी लेखक की ही है, अंत में विशिष्टीकरण बहुत आवश्यक है, साक्षात्कार शैली में लिखने वाला इस कला में कितनी विशिष्टता रखता है, ये महत्त्वपूर्ण है। 

निशा भास्कर: 

लघुकथा मनीषी लघुकथा के लिए “लघुता में प्रभुता” या “गागर में सागर” भरने की बात करते हैं परन्तु आजकल देखने में आ रहा है कि नवीन रचनाकार या वरिष्ठ रचनाकार इस पूर्वाग्रह को पीछे छोड़ कर कथ्य की संप्रेषणीयता पर अधिक बल दे रहे हैं। इस विषय पर आप क्या कहना चाहेगे? 

सन्दीप तोमर: 

यह सत्य है कि लघु-कथा, ‘गागर में सागर’ भर देने वाली विधा है। लघुकथा में लघुता और कथा दोनों एक साथ है। यह न लघुता को छोड़ती है, न कथा को ही। इसमें किसी क्षण विशेष या किसी विशेष घटना का कथानक के रूप में चयन करके रचनाकार रचना प्रक्रिया करता है, जिस प्रकार वन एक्ट प्ले में एक ही घटना को बिना पर्दा गिराए ख़त्म कर दिया जाता है उसी प्रकार लघुकथा भी एक एक्ट में समाप्त होने वाली कथा है। यह एक अंकीय प्रक्रम ही इसकी पूर्णता है। आपका प्रश्न नवीन रचना‌कार या वरिष्ठ रचनाकार इस पूर्वाग्रह को पीछे छोड़ कर कथ्य की संप्रेषणीयता पर अधिक बल देने पर है तो इस विषय में मैं कहना चाहूँगा कि कथ्य की संप्रेषणीयता पर बल देने का अभिप्राय यह क़तई नहीं है कि हम इस विधा के मूल को छोड़ दें? लघुकथा में भले ही इसके आकार को लेकर अनिल शूर, अशोक भाटिया, या बलराम अग्रवाल आदि वरिष्ठ विवाद या संवाद करते रहें लेकिन इसके मूल में जो लघु शब्द है उसको नहीं छोड़ा जा सकता।

अशोक भाटिया की एक लघुकथा कम शब्दों यानी दो-तीन पंक्ति की लघुकथा है: 

“अपनों की गुलामी”

सड़क के दोनों ओर खड़े ग़रीब लोगों के ठेले लाठियाँ मार-मारकर हटाए जा रहे थे।

किसी को बंद किया जा रहा था। कारण ज्ञात हुआ, बात बस इतनी सी थी कि अगले दिन15अगस्त है—अर्थात् स्वतंत्रता दिवस। 

मेरा मत तो यह है कि रचना की लघुता कथानक, कथ्य की संप्रेषणीयता, कथा-विन्यास या यूँ कहें कि कथा की डिमांड पर निर्भर करती है, कथा कितना विस्तार लेती हैं यह रचना-प्रक्रिया के समय तय होता है, इस पर ज़्यादा विवाद में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। 

निशा भास्कर: 

एक समीक्षक या आलोचक रचनाकार से अलग होते हैं? एक अच्छा रचनाकार समीक्षक या आलोचक का कार्य नहीं कर सकता? इस विषय पर आप अपनी राय दें। 

सन्दीप तोमर: 

निशा जी, इस प्रश्न के जवाब में जाने से पहले मैं एक वाक़या साझा करना चाहूँगा—दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में लघुकथा पर कोई कार्यक्रम था, जिसमें एक वक्ता ने कहा—एक लघुकथा लेखक को वाचन भी आना चाहिए। मैंने अपने वक्तव्य में इसका खंडन किया, मेरा स्पष्ट कहना था—जैसे फ़िल्मों में सबके अपने कार्य बँटे होते हैं, मसलन: अभिनय, डायलॉग लिखना, पार्श्व गायन, नृत्य, कॉमेडी वैसे ही लेखन और वाचन को भी देखा जाए, एक रचनाकार यदि अच्छा वाचन करता है तो यह अच्छी बात है लेकिन अगर उसका वाचन अच्छा नहीं है तो ये बुरी बात नहीं है। अब आते हैं समीक्षक या आलोचक रचनाकार से अलग या एक होने पर, तो समीक्षक या आलोचक और रचनाकार अगर अलग हैं तो ये विशुद्ध साहित्य की दृष्टि से अच्छी बात है, ऐसा नहीं है कि एक अच्छा रचनाकार अच्छा आलोचक नहीं हो सकता लेकिन मेरी समझ से इन दोनों के बीच कोई बाध्यता नहीं होनी चाहिए, आप देखिये नामवर सिंह के बारे में कहा जाता है कि वे कभी भी एक अच्छे कवि नहीं हुए लेकिन कविता की आलोचना में उन्होंने एक बड़ी लकीर खींची है, इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है एक रचनाकार अच्छा आलोचक नहीं हो सकता। 

निशा भास्कर: 

कई बार हमें रचनात्मक क्षेत्र में भी ख़ेमेबंदी की बदबू आती है। क्या इस वर्ग में ऐसी गुटबंदी या ख़ेमेबंदी समाज को विकृत नहीं कर रही है। एक बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा ऐसे व्यवहार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? 

सन्दीप तोमर: 

ये तो प्रेमचंद युग में भी था, उनके बाद भी रहा और अब भी है, इससे बचा नहीं जा सकता। लघुकथा में यह ज़्यादा ही है। एक लघुकथाकार ने बाक़ायदा शिष्याओं को ट्रेनिंग दी, हद तो यह हुई कि उनकी एक शिष्या ने बाक़ायदा लघुकथा का स्कूल खोलकर गुरु को ही चुनौती दे डाली, यानी परेलल धारा, वास्तव में ऐसी प्रवृति लेखक समाज का अहित ही कर रही है, जो आज प्रपंच रच रहे हैं। निश्चित रूप से इनका खेल भी अधिक दिन नहीं चलेगा, लेकिन शायद ऐसे लोग तब तक समाज का काफ़ी अहित कर चुके होंगे। दरअसल इसमें ग़लती हमारे कुछ अग्रज लेखकों की है, वे कभी सौन्दर्य की चकाचौंध तो कभी मठाधीश बने रहने की प्रवृति के चलते कुछ मेहरबानियाँ करते रहते हैं, शुरूआत में यह सब फौरी तौर पर सही लगता है लेकिन कालांतर में इसके दुष्प्रभाव दिखने लगते हैं। ऐसे ही एक रचना की सराहना पर एक नामचीन लघुकथा लेखक से मेरी काफ़ी बहस हुई उन दिवंगत मित्र से मेरा इतना ही कहना था कि सिर्फ़ चेहरा देख वाहवाही करने से आप विधा का अहित ही कर रहे हैं। लेकिन सम्पादित किताबों का व्यापार करने वाले मेरे मित्र अपने अंतिम समय तक मेरी बात से सहमत नहीं दिखे, परिणाम हम सबके सामने है। 

निशा भास्कर: 

उचित अध्ययन और अच्छी पुस्तकें हर लघुकथाकार को नया सिखाती हैं। इस बात के अतिरिक्त नए लघुकथाकारों के लिए कोई सन्देश? 

सन्दीप तोमर: 

निशा जी, पढ़ना किसी भी विधा के अंगोपांग को समझने के लिए ज़रूरी है। हाँ, बाद में पढ़ना भी बहुत मायने नहीं रखता। अगर आप एक अच्छे पाठक हैं तो ये अच्छी बात है, लेकिन अधिक पढ़ने से कुछ नवरचनाकार दूसरों का स्टाइल कॉपी करने लगते हैं, वे किसी लेखक से इतने प्रभावित हो जाते हैं कि उनकी शैली को ही अपनाने लगते हैं। नयी पीढ़ी को मैं कहना चाहता हूँ कि ख़ेमेबाज़ों और लघुकथा सिखाने का दावा करने वालों से सवधान रहें। उनसे किनारा करें, धन देकर साझा संकलन निकालने वालों से भी सावधान रहें। मठाधीशों से भी दूर रहें, किसी एक वरिष्ठ पुरुष की बात को पकड़कर न बैठें, साहित्य में कोई राम बाण या लक्ष्मण रेखा नहीं होती, अपनी राह ख़ुद तलाशनी होती है, लेखन सिखाने से नहीं, स्व प्रयास से आएगा। 

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