सच्ची दीपावली
दीपक मेनारिया 'दीपू'आज सुबह से ही रौनक़ शाम होने का इंतज़ार कर रहा था, एक-एक पल उसके लिये भारी पड़ रहा था, दीपावली के इस दिन का वह महीनों से इंतज़ार कर रहा था। आख़िर वो शाम आ ही गई। दीपावली की पूजा-अर्चना के बाद पापा, मम्मी और अपनी प्यारी बहना के साथ पटाखे फोड़ने के लिए घर के बाहर आ गया। पूरा परिवार पटाखे फोड़ने का आनंद लेने लगा। उनके इस आनंद को एक मैले-कुचैले कपड़े पहने बच्चा देख रहा था। मौक़ा मिलने पर वह बच्चा उन पटाखों के समीप पहुँचा और एक पटाखे का डिब्बा उठा कर भागने लगा। उसको पटाखे चुराते देख रौनक़ उसे पकड़ने के लिये उसके पीछे भागा। आख़िर वह रौनक़ की जान चुरा कर ले जा रहा था।
कुछ ही दूरी पर कच्ची बस्ती में उसका घर था वह बाहर से ही चिल्लाया , "भैया देखो मैं पटाखे लाया।"
"और नये कपड़े!" यह कहते हुये उसका भाई दौड़ कर बाहर आने लगा कि अचानक से दरवाज़े से टकरा कर गिर पड़ा। वह दिव्यांग था।
"कपड़े तो नहीं मिले,"थोड़ा ठहर कर वह बच्चा बोला।
"हम आज फिर नये कपड़े नहीं पहन पायेंगें," भैया बोला।
रौनक़ को यह समझते देर नहीं लगी कि वह बच्चा जो उसके पटाखे उठा कर लाया है वह चोर नहीं है और अपने भाई के लिए उसने ऐसा किया है जो चल नहीं सकता।
इधर रौनक़ को अपने पास नहीं पाकर सभी परिवारजन परेशान हो गये, तभी रौनक़ सामने से घर आता नज़र आया। उसने अपने परिवारजनों को सारी बात बताई । सभी कुछ पटाखों, नए कपड़ों, मिठाइयों एवं दीयों के साथ उस बच्चे के घर पहुँचे और उन्हें दिये, साथ ही रौनक के परिवारजनों ने उस दिव्यांग बच्चे का ऑपरेशन करवाया और उसे अपने पैरों पर खड़ा कर दिया।
आज रौनक़ और वह बच्चा बहुत ख़ुश थे कि ‘उनके जीवन की ये सबसे अच्छी और सच्ची दीपावली थी ।’