सार्थक व्यंग्य की उमड़ती नदी

15-08-2022

सार्थक व्यंग्य की उमड़ती नदी

राहुल देव (अंक: 211, अगस्त द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: बचते बचते प्रेमालाप ( व्यंग्य संग्रह) 
व्यंग्यकार: अनीता श्रीवास्तव
प्रकाशक: अनामिका प्रकाशन, प्रयागराज
प्रकाशन वर्ष: 2022 
पृष्ठ संख्या: 142
मूल्य: 450/-

कहा जाता है कि विज्ञान की पृष्ठभूमि वाले लेखक कला वर्ग के साहित्यिकों के बनिस्बत अच्छे साहित्यकार होते हैं। व्यंग्यभूमि मध्य प्रदेश की उभरती हुई व्यंग्य लेखिका अनीता श्रीवास्तव का पहला व्यंग्य संग्रह ‘बचते बचते प्रेमालाप’ पढ़ते हुए यह बात पूरी तरह से सच होती दिखाई देती है। सबसे पहले तो मुझे किताब के कलात्मक कवर व रोमांटिक शीर्षक को देखकर एकबारगी कविता संग्रह का भ्रम हुआ लेकिन नहीं यह तो भरे पूरे व्यंग्यों से सजा हुआ शानदार व्यंग्य संग्रह निकला। इस संग्रह में उनके 42 व्यंग्य शामिल हैं जिनसे लेखिका के व्यंग्य प्रेम और उनके रचना प्रक्रिया का पर्याप्त परिचय पाठक को प्राप्त हो जाता है। 

अधिसंख्य लेखकों की तरह अनीता भी कविता, कहानी और बाल गीतों की यात्रा तय करते हुए व्यंग्य तक पहुँची हैं और अब उन्हें समझ में आ गया है कि यही उनकी असली विधा है। अपनी बात में लेखिका की ईमानदार आत्मस्वीकारोक्ति पढ़कर मैं यही कहूँगा देर आए दुरुस्त आए। वैसे तो परिमाणात्मक रूप से व्यंग्य साहित्य में स्त्री लेखिकाओं की आमद बढ़ी है लेकिन आमतौर पर कई सीमाओं में बंद होने के कारण उनका लेखन गुणात्मक रूप में उस तरह से विकसित नहीं हो पाता जैसा कि साहित्यगत कसौटियों की अपेक्षा होती हैं। आमतौर पर वह विचार के तौर पर कमज़ोर होते हैं या उनमें विषयगत विविधताएँ नहीं होती हैं। उनमें रचनात्मक इकहरापन पाया जाता है या उनमे सामाजिक सन्दर्भों की बहुआयामिकता नहीं दिखती। वह राजनीति से बचती हैं और हल्के-फुल्के व्यंग्य लिखकर ही संतुष्ट हो जाया करती हैं। लेकिन अनीता अपनी व्यंग्य प्रतिभा से इस ‘क्लीशे’ को तोड़ती दिखाई देती है वह स्त्री सुलभ सीमाओं को तोड़कर मानो नदी की तरह उमड़ती हुई आगे बढ़ती जाती है। अगर संग्रह से लेखिका का नाम हटा दिया जाए तो आप बता नहीं पाएँगे कि यह किसी महिला व्यंग्यकार का संग्रह होगा। उनके इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ ग़ज़ब की समझ, साहस और आत्मविश्वास के साथ लिखी गई मालूम पड़ती हैं। 

‘आस्तीन के साँप’ शीर्षक व्यंग्य में वे लिखती हैं, “इधर आधी आबादी (महिलाएँ) भी कम सशंकित नहीं है। समाज और परिवार में दोयम दर्जे की हैसियत के कारण वे दो तरफ़ा हमले की शिकार हो रही हैं। ऐसे में अपने सम्मान की ख़ातिर उन्होंने भी कुछ एतिहाती क़दम उठाए। ख़ासकर जो ख़ुद को मॉडर्न मानती हैं और जिनके हाथों में महिला सशक्तिकरण की मशाल है ऐसी लड़कियों ने आज आस्तीन छोटी करवा लीं या विदाउट स्लीव्स पहनने लगीं। कॉलेज में लड़के ऐसा करते तो इसे उनका स्टाइल समझा जाता। उन्हें लताड़ा जाता। लड़कियाँ आस्तीन से बचतीं तो उन्हें फ़ैशनेबल समझा जाता। उन्हें अच्छी लड़कियों में नहीं गिना जाता और कुछ दक़ियानूसी टाइप लोग इन लड़कियों को बिगड़ा हुआ भी मान लेते। मगर उम्रदराज महिलाओं की बात अलग है उन्हें पूरा हक़ है आधी आबादी के लिए मार्ग प्रशस्त करने का।”

उनके व्यंग्यों में जगह-जगह मार्मिक टिप्पणियाँ उपस्थित मिलती हैं। ‘दो हफ़्ते की ऑक्सीजन’ शीर्षक व्यंग्य में उनका यह कथन देखिये कि—“एक बूढ़ा पीपल अपनी डाली पर बैठी चिड़िया को उदास देख बोला तुम चिंता मत करो मैं हूँ ना!” इसी तरह एक अन्य स्थल पर वे लिखती हैं, “मैंने उन्हें अलग ला कर बैठा लिया, एक बंद दुकान के आगे बनी बेंच पर जोकि ऐसे ही थके हुए लोगों के इंतज़ार में तैनात रहती है।” अनीता सीधी-सरल भाषा शैली से पाठक के मर्मस्थल पर प्रहार करती है। जहाँ अधिकांश व्यंग्य रचनाओं में रम्यता और पठनीयता है वहीं कुछ रचनाओं में एक क़िस्म का कच्चापन भी है। स्वाभाविकता व निजता का गुण इनकी रचनाओं की अपनी ख़ासियत है। अनीता श्री अपने इस व्यंग्य संग्रह के ज़रिए समकालीन व्यंग्य पटल पर संभावनाशील व्यंग्य लेखिका के रूप में सशक्त उपस्थिति दर्ज करती हैं। 

‘आज के समय का साक्षात्कार’ शीर्षक व्यंग्य में वे लिखती हैं, “जीवन में पतझड़ आने पर इंसान दुखी होता है। जितना लंबा पतझड़ उतना बड़ा दुख, क़ायदे से होना तो यही चाहिए मगर ऐसा होता नहीं, मसलन, विधुर हुए आदमी को जल्दी ही कोई और स्त्री भा जाती है। पतझड़ समाप्त। बसंत चालू।” वहीं ‘अहा बक्सवाहा स्वाहा बक्सवाहा’ नामक व्यंग्य में दिखावे की संस्कृति पर प्रहार करते हुए स्पष्ट रूप से कहती हैं, “आज के शिक्षित लोगों में जागरूकता है तभी तो लोग पूरे साल एक ख़ास दिवस की प्रतीक्षा करते हैं उस दिन वे एक पौधा लगाते हैं और चार-छह आदमी उसमें हाथ लगा कर फोटो खिंचवाते हैं। उसे स्टेटस पर डालते हैं। वीआईपी हुए तो अख़बार में छपवाते हैं। इनमें से नब्बे प्रतिशत तो पलट कर देखते भी नहीं कि पौधा किस हाल में है। क्यों देखें? . . . उन्हें जीवन में आगे बढ़ना है। पीछे देखते हुए वे आगे कैसे बढ़ेंगे!” इन व्यंग्य रचनाओं की उद्देश्यपरकता और सहज व्यंग्यदृष्टि प्रभावशाली है। अंदरूनी रचनाओं के शीर्षकों से ही व्यंग्य झलकता है। यह लगता ही नहीं कि यह किसी लेखिका का पहला व्यंग्य संग्रह है। 

‘चुग़ली की गुगली’ शीर्षक व्यंग्य में लेखिका लिखती है—“ये अनुमान अपने आप लग गया कि चुग़ली समाज में समरसता बनाए रखने में सहायक है। कैसे? जो बातें मुँह पर कह देने से झगड़े का डर होता है यदि चुग़ली के माध्यम से संबंधित तक पहुँचा दी जाएँ तो लाठी भी नहीं टूटती और साँप भी मर जाता है।” बार-बार दोहराया गया झूठ आख़िर क्यों सच होने का भ्रम देता है इस थीम पर लिखा गया ‘बड़ा आदमी आम और देशहित’ इस संग्रह का सबसे महत्त्वपूर्ण व्यंग्य है। बड़ा होने के लिए जन्म और कर्म के कांसेप्ट से अलग भी क्या कुछ हो सकता है यह व्यंग्य इसकी भी पड़ताल करता है। संग्रह में यह ‘ये टर्राने का मौसम’ और ‘सारी कुकुर जी’ जैसी मज़ेदार रचनाएँ पढ़कर बीच-बीच में आप अनायास मुस्कुरा पड़ते हैं। मिडिल क्लास ज़बान को कुत्तापा की तरह से देखने का तिर्यक नज़रिया लेखिका के पास हमेशा मौजूद रहा है। अचानक चल रहे चिंतन से चुहल की ओर मोड़ देने की यह अदा लेखिका को विशिष्ट बनाती है। यहाँ एक और व्यंग्य का ज़िक्र करना ज़रूरी समझता हूँ ‘हँसोड़कालीन सभ्यता के अवशेष’। रूपकों और प्रतीकों का व्यंग्य के पक्ष में ऐसा इस्तेमाल बहुत कम देखने को मिलता है—“अवसादोन्मुखी सभ्यता के पुरातत्व विभाग ने एक ऐसे नगर की खोज की है जिसे हँसोड़ कालीन सभ्यता कहा जा रहा है। पुरातत्व विभाग के कारिंदे उस वक़्त मुँह के बल गिरते-गिरते बचे जब ख़ुदाई में लगे मज़दूरों ने हाँफते-हाँफते बताया कि ईंटें खिलखिला रही हैं।” आपका यह व्यंग्य इतिहास के आलोक में भविष्य के दृष्टिगत वर्तमान से प्रश्न करता है। समय की ऐसी आवाजाही इनके व्यंग्य को एक अलग पहचान व नया आयाम प्रदान करती है। अनीता श्रीवास्तव के लेखन में मौजूद मौलिकता और मार्मिकता के तत्व, करुणा और हास्य का संतुलन देखकर आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते। मुझे बहुत दिनों बाद प्रचलित मुहावरों से हटकर लिखी गई व्यंग्य रचनाएँ पढ़ने को मिलीं हैं। उनमें सूर्यबाला की तरह यथार्थ को व्यंग्यार्थ के साथ लक्षित करने की अचूक सामर्थ्य परिलक्षित होती है। ‘प्लेट खोकर चम्मच में ख़ुश होने वाले’ शीर्षक व्यंग्य में वे मानवीय मनोविज्ञान की सूक्ष्म ऑब्ज़र्वेशन करती हुई लिखती हैं, “गोविंद जी ने पलटकर उस काउंटर की ओर वैसे ही देखा जैसे कुछ लोग सजी-धजी महिलाओं को थोड़ा दूर जाने पर देखते हैं। . . . जब तक पास खड़ी रहती हैं वे इधर-उधर देखते रहते हैं . . . सभ्यता के नाते।” अपने आसपास की छोटी-छोटी बातों से व्यंग्य निकाल लाने का हुनर उनमें बख़ूबी है। विचार के स्तर पर गुंजाइश हमेशा बनी रहती है और यह परिपक्वता धीरे-धीरे लिख-पढ़कर ही आती है। 

पुस्तक के शीर्षक व्यंग्य ‘बचते बचते प्रेमालाप’ का यह अंश उल्लेखनीय है, “आदमी इमोशनल डायलॉग बोलने में माहिर है। उसने तय कर लिया है कि आज वह भावनाओं के स्विमिंग पूल में उस स्त्री को हंड्रेड परसेंट बहा ले जाएगा जो उसकी पत्नी नहीं है। जल्दी ही वे दोनों सच्ची-मुच्ची के मित्र होंगे। किसी पार्क में मिलेंगे . . . आमने सामने बैठेंगे नेत्र कोटरों में स्थित प्राकृतिक कैमरों से एक दूजे की यथार्थ फोटो खींचेंगें। उसने यह भी तय किया कि वह उसकी पसंद के फ़्रेम में ख़ुद को फ़िट करके ही दम लेगा भले ही इसके लिए उसे अपने यथार्थ को क्रॉप करना पड़े।” चरित्र विश्लेषण करने में उन्हें महारथ हासिल है साथ ही शिल्प के स्तर पर इन रचनाओं में काफ़ी विविधता मौजूद है। संग्रह का एक और व्यंग्य ‘महिला सूचक गाली . . . सांस्कृतिक विरासत है आली’ पढ़कर आप पाते हैं इनके यहाँ स्त्री विमर्श का आहवादी स्वर नहीं है बल्कि आलोचना के दायरे में वे ख़ुद को भी रखती हैं और अनावश्यक हो हल्ला करने वाले लोगों के डबल स्टैंडर्ड्स को भी रेखांकित करती हैं। वे उलटबांसी की तरह से गालियों के समाजशास्त्र को गाली चिंतन कहकर पुकारती हैं। अनीता व्यंग्य की किसी कुशल सर्जन की तरह विसंगति का आद्योपांत ऑपरेशन कर डालती हैं। किताब में कुछ प्रकाशकीय त्रुटियाँ भी हैं जैसे कि ‘भैंस के आगे हॉर्न बजाना’ यह व्यंग्य दो बार छप गया है। साथ ही किताब का मूल्य भी ज़्यादा है इसे कम होना चाहिए था। 

अनीता श्री को व्यंग्य का सटीक निर्वहन करना आता है। मेरी उत्कृष्टता की कसौटी पर 42 में से 22 व्यंग्य खरे उतरे हैं। एक जगह उनका यह कथन दृष्टव्य है, “संपन्नता एक ऐसी बुशर्ट है कि चाहे जितनी बड़ी हो, तंग ही रहती है।” एक उदाहरण और देखें, “आदमी का सोचना उसकी सुविधा और पसंद का है। आदमी ने हमेशा यही किया अपना सच दूसरों पर थोपा।” धार्मिक ढकोसलों पर भी लेखिका पूरी सतर्कता के साथ अपनी क़लम चलाती है। आपके यहाँ कल्पना की ऊँची उड़ान भी पूरे खिलंदड़पन के साथ मौजूद रही है। ‘मच्छर का ईमान और आदमी का खून’ शीर्षक व्यंग्य रचना में उनका यह कहना, “पिताजी के जीवन में अपने बेटे की बेरोज़गारी को देखते हुए यही एकमात्र गर्व का विषय बचा है कि वह ओल्ड पेंशन स्कीम के ज़माने में पैदा हुए थे।” वे बग़ैर किसी लाग-लपेट के प्रवृत्तिगत सच को अनावृत करती चली जाती हैं। 

‘हे मंजे हुए लोगों’ में लेखिका ने शिक्षक, डॉक्टर, नेता और व्यवसायी इन सभी क्षेत्रों के मंजे हुए लोगों की जमकर ख़बर ली है। सत्ता और पूँजीपतियों की साँठ-गाँठ को खोलते हुए वे लिखती हैं—“यह बढ़-चढ़कर चंदा देते हैं। चुनाव का बोझ जब नेताजी के कंधों पर आता दिखता है, अपना कंधा लगा देते हैं। सत्ता की पालकी, ये कहार बनकर ढोते हैं। बदले में सत्ता भी इन्हें हर क़हर से बचाती है। इन दोनों की जोड़ी देश की तरक़्क़ी के लिए आवश्यक समीकरण रचाती है।” इस उपक्रम में वे समाज और साहित्य के कोने-अतरे तक झाँक आयी हैं। ‘अमरता सूत्रम समर्पयामि’ शीर्षक व्यंग्य में लेखिका ने अद्भुत देह विमर्श प्रस्तुत किया है। इस किताब में एक से बढ़कर एक व्यंग्य हैं। आपकी रचनाशीलता में अनुभव और अध्ययन की सम्मिलित गहराई झलकती है। ‘बेहद ख़ुशमिजाज’ हिंदी की दुर्दशा पर एक बेहतरीन व्यंग्य रचना बन गयी है—“इधर कुछ दिन से मैं बीपी शुगर की धकेली उतनी ही सुबह सैर पर जाती हूँ। वे लोग मुझे कल रास्ते में मिले। मुझे देखकर सामूहिक राधे-राधे हुई। मैंने ज़ुबान पर आती गुड मॉर्निंग को दाढ़ चले दबाया और कहा राधे-राधे जी। तभी मुझे लगा मेरे भीतर एक संस्कारी क़िस्म की हिंदी भाषी नारी गश खाकर गिर गई।” तो वही ‘कुछ ख़ास नहीं’ शीर्षक व्यंग्य में वे व्यंग्य करती हुई लिखती हैं, “मैं कई दिनों से परमार्थ का कोई काम हथियाना चाह रही थी ताकि जीवन सार्थक हो जाए।”

अगर मैं इसे अब तक प्रकाशित इस साल का सबसे उल्लेखनीय संग्रह कहूँ तो शायद कोई अतिशयोक्ति न होगी। विज्ञान की इस अध्यापिका में अदम्य प्रतिभा और व्यंग्याभिव्यक्ति की एक सघन बेचैनी है। अगर वे इसी तरह लिखती रहीं तो बहुत आगे जायेंगीं। आगे चलकर इस युवा लेखिका में बड़ा साहित्यकार बनने की संभावनाएँ विद्यमान हैं। उनका यह पहला संग्रह तो यही उम्मीद जगाता है कि वह सही दिशा में है। व्यंग्य जगत को अपनी इस नई लेखिका का खुले दिल से स्वागत करना ही चाहिए। 

राहुल देव
-9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध) सीतापुर (उ.प्र.) 261203
rahuldev.bly@gmail.com

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