साँप: परंपरा और आधुनिकता के बीच फँसे घुमंतू समाज का यथार्थ
डॉ. दिनेश कुमार वर्मा
समीक्षित पुस्तक: साँप (उपन्यास)
उपन्यासकार:रत्नकुमार सांभरिया
प्रकाशक: सेतु प्रकाशन, प्रा. लि., सी -21, सेक्टर जेड 65, नोएडा, उत्तर प्रदेश, भारत, पिन कोड -201301
मूल्य: ₹375.00 (पेपरबैक)
पृष्ठ सं: 474
प्रथम संस्करण: 2022
‘साँप’ घुमंतू समुदाय पर केन्द्रित उपन्यास है। घुमंतुओं को विमुक्त, ख़ानाबदोश, घुमक्कड़, वीराना आदि नामों से भी पहचाना जाता है। परंपरागत अर्थों में घुमंतू वह लोग हैं, जिनका कोई स्थायी ठौर-ठिकाना नहीं होता और जो आजीविका तथा रोज़ी-रोटी के लिए यायावर जीवन जीते हैं। किसी स्थान विशेष पर निश्चित समयावधि तक ठहरने के बाद यह लोग अपने डेरे संग अन्यत्र प्रस्थान करते हैं। स्वतंत्रता के बाद राज्य सरकारों के उदासीनतापूर्ण रवैये के कारण इन समुदायों का बहुसंख्यक वर्तमान में भी बदहाल हैं, इनके पास न ज़मीन है, न घर, न खेत और न ही पहचान है। घुमंतुओं के प्रति ऐसा उपेक्षा भाव सरकारी तंत्र में ही नहीं, बल्कि साहित्यिक क्षेत्र में भी रहा है। विडम्बना है कि देश की कुल आबादी का लगभग दस प्रतिशत होने के बावजूद, इनके दुःखों और त्रासदियों की साहित्यिक अभिव्यक्ति एक फ़ीसद भी नहीं है। ‘साँप’ उपन्यास घुमंतू समुदायों की जीवनशैली को कथात्मक अंतर्वस्तु के रूप में पिरोकर, साहित्य जगत में पसरे इस सन्नाटे को तोड़ने का सार्थक प्रयास करता है।
रत्नकुमार सांभरिया द्वारा लिखित ‘साँप’ सन् 1972 के कालखण्ड और राजनीतिक-सामाजिक परिवेश को लेकर बुना गया है। 35 अध्यायों में फैली इसकी कथावस्तु सेठ मुकुन्ददास और मिलनदेवी के चार सौ वर्ग गज के प्लाट की नींव की खुदाई में साँप निकल आने से शुरू होकर, लखीनाथ सँपेरे के साहसिक प्रयास द्वारा विषैले साँप को पकड़ लेने, निःसंतान मिलनदेवी का लखीनाथ के रूप-स्वरूप और साहस पर मोहित होकर चाँदी के सिक्के का पारितोषिक देने, मिलनदेवी की जेठानी का तंज़ ‘सपेरा के अंश वंश चलाएगी’ से होते हुए विकास करती है। अपराध में लिप्त एम.एल.ए. के लोगों को बचाने के लिए थानेदार का लखीनाथ सँपेरे और भलीराम मदारी को झूठे मुक़द्दमे में फँसाना, दोनों से मारपीट करना, जन-मन समिति की सचिव मिलनदेवी का दोनों को छुड़ाने के लिए घुमंतू लोगों को एकजुट करना, घुमंतू लोगों का अपने-अपने जानवरों के साथ सदर थाने का घेराव करना, एस.पी. के हस्तक्षेप के बाद असल अपराधियों का पकड़ा जाना और लखीनाथ व भलीराम दोनों को रिहा करना, पुलिस की गोली से घायल लखीनाथ को अस्पताल में भर्ती कराना, अस्पताल में उपचाराधीन लखीनाथ से मिलनदेवी का ‘सबके लिए पक्की छत’ का वादा करना, निःसंतान मिलनदेवी के वादे पर लखीनाथ का अपनी मूँछ का बाल सौंप देने से होते हुए उपन्यास की कथा मध्य तक पहुँचती है।
प्रतिशोधवश थानेदार और एम.एल.ए. के लोगों का घुमंतुओं के डेरे में आग लगाना, मिलनदेवी का डेरों की जगह पर पक्के घरों के लिए सर्वे करना, सर्वे की फ़ाइल को शहरी विकास मंत्री के पास जमा करना, तीन महीने तक कार्रवाई का इंतज़ार करने और सर्वे पर कोई कार्रवाई न होने पर घुमंतुओं का जानवरों सहित मुख्यमंत्री का घेराव करना, मुख्यमंत्री से मुलाक़ात कर अपनी तकलीफ़ों से अवगत कराना, मुख्यमंत्री का आगामी चुनावों के मद्देनज़र पंद्रह दिन के भीतर पुनर्वास कार्य शुरू करने का आश्वासन देना, घुमंतुओं को ज़मीन का पट्टा मिलना, सड़क का बस्ती तक पहुँचना, मकान बनाने का काम शुरू होना, बस्ती के लोगों का परंपरागत काम रोक कर निर्माण साइट पर दिहाड़ी मज़दूरी करना, वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 का पारित होना, घुमंतुओं को अपने जानवरों की चिंता सताना व पुलिसिया कार्रवाई के डर से अपने जानवरों को स्थानीय थाने के हवाले करना, नयी बस्ती का उद्घाटन होना, सबको आवास मिलना और मिलनदेवी का वादा पूरा होना, से होते हुए कथा अपने चरम पर पहुँचती है। चरम पर पहुँच कर कथा अपने अंत की ओर बढ़ती है; पक्की छत का वादा पूरा होने के बाद मिलनदेवी का लखीनाथ को उसके वादे की याद दिलाना, दोनों का होटल पहुँचना, लखीनाथ का मिलन से शारीरिक सम्बन्ध बनाने से मना करना, लेकिन वचनबद्धता पर प्रसूता रमतीबाई के पेट में पल रहे अपने बच्चे को मिलनदेवी को सौंपने का वचन देना, अंत में लखीनाथ द्वारा अपने अंश (बच्चा) को समस्त डेरे की उपस्थिति में मिलनदेवी के वंश के रूप में सौंपना, के साथ कथा का समापन होता है।
लेखक घुमंतू समाज की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थिति और शिक्षा, रोज़गार, आवास जैसी उनकी मूल ज़रूरतों को गंभीरता से पाठक के सामने रखता है। घुमंतू समाज मुख्यतः अपने पारंपरिक पेशों से जुड़े रहे हैं; लखीनाथ सँपेरा साँप पकड़ने-साँप नचाने, सहादीन बहुरूपिये का पेशा करने, सकरादास और उसकी पत्नी छुटकी नांदिया बैल से जीविका चलाने, मीघाराम-घीघाराम मदारी बंदर का तमाशा दिखाने, भलीराम रीछ का नाच दिखाने, मेरूं खाँ करनट खेल-तमाशा-करतब दिखाने, रोशनी कुचबन्द खिलौने बनाने, रंगदास बूझागर बूझा बताने का काम करके जीविका चलाते हैं। साँप पकड़ने, रीछ-भालू-बंदर पालने, रस्सी पर करतब दिखाने के पेशे जोखिम भरे हैं। लखीनाथ सँपेरे के बड़े भाई सरुपानाथ की मौत सर्पदंश से होती है। रोज़ी-रोटी कमाने के लिए सँपेरों को बार-बार ऐसे मौत के खेल खेलने होते है। साँप के जोड़े को पकड़ने से मन में व्यापे मौत के भय को दूर करता हुआ लखीनाथ कहता है, “मौत। अरे मौत तो जिनगानी की डोर होवै भई। टूटनी है, एक न एक दिन।”(साँप, पृष्ठ-55) जीविका चलाने के लिए मेरूं खाँ का परिवार भी जोखिम भरे करतब दिखाता है और उसकी एवज़ में दर्शक उन्हें कुछ पैसे, आटा, अन्न जैसी सामग्री देते हैं। करतब दिखाने के काम में अमूमन बच्चों को भी लगाया जाता है ताकि दर्शकों के मर्म को झकझोर कर उनसे ज़्यादा अन्न, धन मिल सके। मेरूं खाँ की लड़की करतब दिखाते हुए गिर पड़ती है। लेखक लिखता है, “उकी छोरी थाली में बैठ के रस्सी पे सरकती-सरकती खेल-तमाशो दिखावे थी। भभूल्यो आ गयौ। झोल खा, गिर पड़ी। पैर न टूट्यो। चोट आई घणी।”(पृष्ठ-219)
जोखिम और अत्यधिक परिश्रम वाले पेशों को करने के बाद भी घुमंतुओं का जीवन भूख और ग़रीबी के बिलबिलाते सागर में फँसा रहता है। दिन भर की जुगत के बाद भी कोई आमदनी होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं। पूरा दिन भाग-दौड़ करने, पसीना बहाने के बाद भी चूल्हा जलेगा, इसका कोई एतबार नहीं। लखीनाथ का कथन, “साब हम धरती बिछावाँ। आकास ओढ़ा। अपना पसीना से नहावाँ अर भूख खा के सौ जावाँ।”(पृष्ठ-255) घुमंतुओं के क्रूर यथार्थ को प्रस्तुत करता है। घुमंतुओं के डेरे को अक्सर गाँव-शहर के बाहर ख़ाली पड़ी सरकारी ज़मीन पर या शहर में सड़क के किनारे फ़ुटपाथ पर आबाद होते हैं। न शहर के लोग इन्हें स्वीकरते हैं और न ही गाँव के लोग इन्हें अपनाते हैं। शहर से गाँव जाने वाले रास्ते पर चौराहे के मोड़ पर ‘बंजारा की थड़ी’ आबाद थी। बंजारा की थड़ी में लोगों के आर्थिक हालात और उनके घरों की स्थिति पर नज़र डालते हुए लेखक लिखता है, “झुग्गियाँ! छ्तें तिरपाल। गार-मिट्टी लिपि सरकण्डों की दीवारों का लेब धुल गया था। जैसे मृत पशु की खाल उतरने पर उसकी हड्डियाँ दिखती हों। किवाड़ों की जगह फटी-पुरानी धोती झूल रही थी।”(पृष्ठ-20)
स्वतंत्र रूप से विचरण करके व्यापारिक और आर्थिक गतिविधियाँ चलाने वाली इन आत्मनिर्भर जातियों के दारिद्रय का कारण लेखक इतिहास में अंग्रेज़ी क़ानूनों और वर्तमान सरकारों के उदासीन और किंकर्तव्यविमूढ़ रवैये में देखता है। ऐसा माना जाता है कि ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ सशस्त्र विद्रोहों में भागीदर होने और परंपरागत रूप से विभिन्न सामाजिक उत्पादन और वितरण कार्यों से जुड़े होने की वजह से यह लोग ब्रिटिश सत्ता और अर्थव्यवस्था के लिए सदैव एक चुनौती रहे। ऐसे में इन घुमंतू जातियों से पार पाने के लिए औपनिवेशिक शासन ने ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट, 1871’ लागू किया। इस क़ानून से घुमंतू जातियों को जन्मजात आपराधिक जातियों की श्रेणी में डाल दिया गया और इनके स्वतंत्र विचरण तथा व्यापारिक गतिविधियों पर रोक लगा दी गई। कहीं भी आने जाने पर इनके लिए नज़दीकी थाने में सूचना देने को अनिवार्य बना दिया गया। इन क़ानूनी पाबन्दियों ने घुमंतुओं के अर्थतन्त्र को बर्बाद कर दिया और इन्हें बदहाली व घोर ग़रीबी की गर्त में धकेल दिया। आज़ादी के लगभग पाँच वर्षों के बाद सन् 1952 में घुमंतुओं को ‘क्रिमिनल ट्राइब एक्ट’ से मुक्ति मिली, लेकिन यह समुदाय सरकारी अनदेखी से मुक्त नहीं हो सके। विकास नाम की चिड़ियाँ इनसे कोसों दूर रही। लखीनाथ आज़ादी के बाद सरकारी अनदेखी का ज़िक्र करते हुए कहता है, “हकम साची बात तो यो है के देस आजाद हुयो, हम ना।”(पृष्ठ-255) सरकारी तंत्र की विफलता और इन जातियों से बरते जा रहे बेगानेपन का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज़ादी के एक लंबे अंतराल के बाद भी इन लोगों को राशनकार्ड और वोटर आई.डी. कार्ड जैसी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हुई है। विडम्बना है कि चुनावी व्यवस्था में आदमी की गिनती एक वोट के रूप में होती है। सभी पार्टियाँ उस वोट को हासिल करके जीत सुनिश्चित करना चाहती है, लेकिन यह लोग वोट के अधिकार से वंचित रहे हैं। संभवतः यही वजह रही कि सरकारों ने इनके उत्थान के लिए कोई सक्रिय क़दम नहीं उठाए और इनके विकास को लेकर निरंतर लापरवाही बरती। लखीनाथ कहता है, “म्हारी घुमक्कड़ जातियाँ अपना ही देस में बीरानी हैं। अनजानी हैं। बिना चेहरा की हैं। देस अपणो। परदेस अपणो। पर ना म्हारो कोई गाम। ना ठीयो। ना गली। ना कूचो।”(पृष्ठ-255)
घुमंतू लोग सरकार की उदासीनता के साथ-साथ पुलिस की डण्डे व उत्पीड़न का शिकार भी बनते रहे हैं। पुलिस का लखीनाथ सँपेरे और भलीराम मदारी को पकड़ कर जेल में डाल देना, उनसे मारपीट करना, लखीनाथ को गोली मारना, थानेदार द्वारा सरकीबाई को अपनी वासना का शिकार बनाने की कोशिश करना आदि घटनाएँ घुमंतू लोगों पर पुलिस-तंत्र की ज़्यादतियों को उजागर करता है। पुलिस उत्पीड़न की शिकार बनी सरकीबाई कहती है, “दारीका पुलसया म्हारा मुरगा, बकरा खा जावै। रतबासो कर जावै।”(पृष्ठ-257) पुलिसिया उत्पीड़न का ऐसा ही वृत्तांत लखीनाथ भी बयान करता है, “बँगला-कोठी चोरी-चकारी खुद घरवाला कर ले। पुलस को धाड़ौ म्हारा डेरा में पड़े। मरदां ने उठा ले जावै। मारे-पीटे। झूठ पे साचो गूण्ठा टिकवा ले। थाना में बंद कर दे। ना म्हारी सफारस। ना म्हारे पास पीसा। छोड़े तब छोड़े।”(पृष्ठ-255)
ग़रीबी, भूख से पीड़ित घुमंतू जातियाँ सभ्य समाज के तथाकथित उच्च लोगों से जातिगत भेदभाव, सामाजिक अपमान और शोषण का शिकार भी होती रही है। अपने को श्रेष्ठ समझने वाला आभिजात वर्ग अतीत में यद्यपि बहुत-सी ज़रूरी वस्तुओं की पूर्ति, मनोरंजन, परिवहन व अन्य कार्यों के लिए इन जातियों पर निर्भर रहा है, लेकिन फिर भी वह इन्हें बराबरी का दर्ज़ा देने से कतराता है। वह इनके साथ छुआछूत व भेदभाव करता है। सेठ मुकुन्ददास काम निकल जाने के बाद लखीनाथ से कहता है, “सँपेरा डिक्की खोल दी है, मैंने। टोकरी रख दे उसमें और पीछे की सीट पर जा बैठ।”(पृष्ठ-50) सेठ मुकुन्ददास का बड़ा भाई सुकुन्ददास लखीनाथ के हवेली प्रवेश पर क्रोधपूर्वक कहता है, “अरे ओ सँपेरा। रुक यहीं। एक क़दम आगे मत बढ़ना। वरना मेरे सा दुश्मन नहीं होगा।”(पृष्ठ-91) घुमंतुओं की सामाजिक अस्वीकृति, सामाजिक बेगानापन इस क़द्र है कि इनके दुःख में भी तथाकथित संभ्रांत वर्ग इन्हें सहारा नहीं देता। लखीनाथ का कथन “म्हारो मरयो माणस जीवता से घणो दुःख पावै। ढोता फिरां। दो गज जगा ना मिले। जहाँ रहवाँ, नीड़े-गोड़े दफणा दया, चुपचाप।”(पृष्ठ-256) शव दफ़नाने के लिए दो गज़ ज़मीन का न होना और दर-दर भटकने को मजबूर होना, तथाकथिक सभ्य समाज का घुमंतुओं के साथ ऐसा असभ्य मज़ाक़ है जो उनके मानव होने के क़ुदरती अधिकारों का उल्लंघन करता है। ऐसे ही जन-मन समिति के सदस्य काजल, शशि का सँपेरे के घर का पानी पीने को लेकर असहज होना, उनके उच्च जातीय दंभ को दिखाता है।
घुमंतू समाज के तीज-त्योहार, शादी-विवाह, पूजा-अर्चना की पद्धतियाँ, परम्पराएँ व मान्यताएँ स्थायी गुज़र-बसर करने वाले समाज से विशिष्ट रही हैं। यह समाज मूलतः पितृसत्तात्मक रहे हैं। रोशनी का पति बोलाराम उसे पैसे के लिए पीटता है, “पिसा की खातर मूँज सी ऐसी कूटे, बिचारी डांगर की नाई ढा-ढा रोवै।”(पृष्ठ-212) इसी तरह रमती के गर्भ में पल रहे बच्चे के सम्बन्ध में लखीनाथ का कथन की, “यो मेरो टाबर होवेगौ। म्हारी जात में आदमी को कहावै।”(पृष्ठ-378) घुमंतू समाज की अलग अर्थ-संरचना और उत्पादन गतिविधियों में महिलाओं का परस्पर योगदान, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का एक अलग समाजशास्त्र निर्मित करते हैं। घुमंतू समाज में स्त्री को संभ्रांत वर्गीय घरेलू महिला से अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र है। ‘साँप’ उपन्यास की पात्र रोशनीबाई बोलाराम की मारपीट, परस्त्रीगमन से परेशान है। वह अब बोलाराम के साथ नहीं, देवर मनीराम के साथ रहना चाहती है। बस्ती का बुज़ुर्ग रोशनीबाई और मनीराम की इच्छा जान लेने के बाद कहता है, “मियां-बीवी राज़ी तो क्या करेगा काजी” (पृष्ठ-333) और घोषणा करता है, “आज से दोनों मरदबीर। बोलो दूर।”(पृष्ठ-333) दरअसल, यहाँ शादी धार्मिक संस्कार से कहीं ज़्यादा एक मैत्रीपूर्ण क़रार है। उपन्यास में घुमंतू जीवन की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक दशा का विस्तृत विवेचन है। यह विवेचन प्रकृतिवादी नहीं है। लेखक सामाजिक यथार्थ को पकड़ता है और उपन्यास में उसकी बख़ूबी अभिव्यक्ति देता है। वह सामयिक बदलावों का वस्तुनिष्ठ विवेचन करता है। वह बदले हुए हालातों में घुमंतू जीवन को प्रस्तुत करता है। आज़ादी के बाद स्वदेशी सरकार और कथित लोक-कल्याणकारी राज्य अस्तित्व में आया। लोगों को अनेक अधिकार मिले। शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ। अनेक जन-कल्याणकारी योजनाओं और संस्थाओं की स्थापना हुई। घुमंतुओं को देर से ही सही, लेकिन आपराधिक जातियों के तमगे से मुक्त करके, विमुक्त घोषित किया गया। यह बदलाव उनके लिए नई उम्मीद, उत्साह और साहस लेकर आये।
उपन्यास के पात्र इस नित परिवर्तित युग के पात्र हैं। वह डरपोक भी हैं और बहादुर भी। उनमें त्याग भी है और स्वार्थ भी। उनमें झगड़ा भी है और सौहार्द भी। उनमें गुण भी और अवगुण भी। उनमें नए की चाहत भी है, लेकिन पुराना छोड़ने को लेकर हिचक भी; यानी उपन्यास के पात्र अपने युगीन मानवीय अंतर्विरोधों से ग्रस्त हैं। लखीनाथ ऐसा ही एक पात्र है। वह पुलिस से डरता है, लेकिन थानेदार के मुँह पर घूसा मार कर उसका जबड़ा भी तोड़ देता है। वह स्वाभिमानी है, लेकिन घर में तोड़ा (ग़रीबी) होने के कारण वह सेठ मुकुन्ददास की चुभने वाली बात सुन कर भी गाड़ी में बैठा रहता है। वह स्वार्थी है; 100 रुपये और चाँदी का सिक्का कमा लेने के बाद भी जान जोखिम में डाल कर साँप के जोड़े को पकड़ने और 20 रुपया और कमाने का लालच करता है, लेकिन वह निस्वार्थी भी है; वह ठेकेदार द्वारा रुपयों का लालच देने के बाद भी कच्ची ईंटें उतरवाने नहीं देता है। वह नया पेशा करना चाहता है, लेकिन अपने जानवरों को छोड़ने को लेकर हिचकता भी है। वह मिलनदेवी के प्रति सहज आकृष्ट भी है, पर उससे शारीरिक सम्बन्ध बनाने से मना कर देता है। वह मिलनदेवी को अपना बच्चा देने को वचनबद्ध है, लेकिन वचनपूर्ति को लेकर उसके मन में हिचक और उठा-पटक भी है। लखीनाथ की यह जटिलताएँ उसे प्रातिनिधिक या प्रारूप पात्र बनाती है। प्रारूप का चरित्र कभी भी सामान्य साधारण नहीं होता। उसके चरित्र में अंतर्विरोध, जटिलताएँ और विषमताएँ होती हैं। हंगेरियाई चिंतक जॉर्ज लुकाच अपनी किताब ‘स्टडीस इन यूरोपियन रियलिज़्म’ में प्रारूप पात्र की कसौटी निर्धारित करते हुए लिखते हैं, “प्रारूप एक विचित्र संश्लेषण होता है जो चरित्र और स्थितियों के सन्दर्भ में सामान्य और विशेष को अटूट सम्बन्धों में बाँध देता है। प्रारूप को प्रारूप बनाने वाला तत्त्व उसकी औसत गुणवत्ता नहीं होती, न ही महज़ वैयक्तिकता होती है—चाहे उसकी भावना कितनी ही गहराई में क्यों न प्रस्तुत हो, उसे प्रारूप बनाने वाली विशेषता यह होती है कि उसमें संभावनाओं के अंतिम अनावरण में, उनकी अतियों की अत्यधिक अभिव्यक्ति में, उसमें मानवीय और सामाजिक स्तर पर सारे निर्धारक तत्त्व विकास के सर्वोच्च उत्कर्ष में प्रकट हो, जिसके फलस्वरूप मानव और युगों के सर्वोपरि बिंदु और सीमाएँ मूर्त रूप ग्रहण कर सके।”(स्टडीस इन यूरोपियन रियलिज़्म, पृष्ठ-6)
मिलनदेवी आधुनिक नारी है। वह सामाजिक न्याय के लिए संघर्षशील है। वह घुमंतुओं के न्याय और आवास के लिए पुलिस और मंत्री से भिड़ जाने वाली साहसी महिला है। लेकिन वह निःसंतान है; सामाजिक कलंक से बचने के लिए कृत्रिम गर्भ धारण करती है। वह लखीनाथ से कहती है यदि तुम अपना वचन पूरा नहीं करोगे तो मैं जीवित नहीं रहूँगी, जो उसके व्यक्तित्व की कमज़ोरी को उजागर करते हैं। रमतीबाई लखीनाथ और मिलनदेवी के सम्बन्धों को लेकर संशयित रहती है, वह मिलनदेवी को पसंद नहीं करती, लेकिन वह मिलनदेवी के अहसानों के प्रति कृतज्ञ है। इसलिए वह अपने नवजात बच्चे को उसे सौंप कर बड़ा त्याग करती है। सेठ मुकुन्ददास जो अभिमानी और जातिवादी है, लेकिन ज़रूरत पड़ने पर सँपेरे के दरवाज़े बार-बार जाता है और उसके बच्चे को भी अपनाता है।
दरअसल, उपन्यासकार ने इस ओर विशेष ध्यान दिया है कि उसके पात्र रिरियाते, मिमियाते न दिखें। वह विषम परिस्थितियों में घुटने न टेकें, वह उत्पीड़न का रोना न रोयें। इसलिए उपन्यास के पात्रों में जिजीविषा है, बेहतर जीवन की ललक है। वह ऐसे जीवट वाले पात्र हैं, जो प्रतिकूल हालातों से लोहा लेने को तैयार हैं, जो अपने अधिकारों और शोषण के ख़िलाफ़ लड़ने को तत्पर हैं। जब लखीनाथ सँपेरे व भलीराम को मदारी पुलिस झूठे मुक़दमे में गिरफ़्तार कर लेती है, तब इसके विरोध में डेरे के लोग थाने का घेराव करते हैं। लेखक लिखता है, “ख़ानाबदोश लोग अपने-अपने जानवरों को पकड़े, जीवों को लिए यह कहते शहर की ओर कूच कर गये थे, देवरा आकर धोकेंगे।”(पृष्ठ-159) उत्पीड़न के ख़िलाफ़ घुमंतुओं का थाने के बाहर आ जुटना, उनका किसी भी ज़्यादती को न सहने का उद्घोष है। यही नहीं बहरूपिया तो एस.पी. से मुख़ातिब होकर दो टूक कहता है, “मैडम बेकुसूर लोगों खानाबदोशों को थाने में बंद कर दिया। लुटेरों को छोड़ दिया? सब गोल-माल है। सबकी एक चाल है।”(पृष्ठ-166) अपने साहस और एकजुटता के दम पर डेरे के लोग लखीनाथ और भलीराम को पुलिस के कुचक्र से छुड़ाने में कामयाब रहते हैं। घुमंतुओं की एकता और साहस का ऐसा ही परिचय मुख्यमंत्री आवास के घेराव के समय भी मिलता है। डेरे के लोग मुख्यमंत्री आवास पहुँचते हैं और तख़्ती उठा कर नारे लगाते हुए आंदोलन करते हैं। यह आंदोलन पात्रों की एकजुटता और उनकी चेतना में हो रहे बदलावों की फलश्रुति है।
वंचितों और घुमंतुओं की ज़िन्दगी में व्यापक बदलाव के लिए ज़रूरी है कि वह सरकारी कृपा दृष्टि का ख़ुद-ब-ख़ुद दरवाज़े पहुँचने का इंतज़ार न करें बल्कि अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करें। संघर्ष की सफलता, उसके व्यापक जन-आंदोलन बन जाने में होती है, जिसमें अन्य वर्गों के उन्मुक्त विचारों के लोग भी शरीक होते हैं। मिलनदेवी अन्य वर्ग या कहें की उच्च जाति की महिला है। वह घुमंतुओं का मार्गदर्शन करने के साथ-साथ पुलिसिया दमन और आवास के प्रश्न को लेकर भी अंत तक साथ देती है। वह घोषणा करती है, “मैं डरपोक नहीं हूँ . . . पुलिस ने हमें रोकने की कोशिश की, मारपीट या ज्यादती हुई, पुलिस का पहला डंडा मैं खाऊँगी।”(पृष्ठ-246) यहाँ व्यापक जन एकता को वंचित-शोषित-हाशियाई लोगों की मुक्ति के लिए अपरिहार्य बताना, लेखकीय अभीष्ट है। परिवर्तन या मुक्ति के आंदोलनों या ग़रीबी, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य के संघर्ष को मुकम्मल रूप से तब ही लड़ा जा सकता, जब उसे व्यापक जन-समर्थन प्राप्त हो। यही नहीं, लेखक इस एकता और आंदोलन की व्यापकता के लिए इन्सानों के साथ जानवरों को भी आंदोलन में शामिल कर लेता है।
उपन्यासकार की ख़ूबी है कि वह जातिवाद को ‘बदलाव में निरन्तरता और निरंतरता में बदलाव’ की दृष्टि से अभिव्यक्ति देता है। लखीनाथ सँपेरे का ईमान की बात करना और साथ चलने से मना करना, सेठ मुकुन्ददास को नागवार गुज़रता है। सेठ का आत्मगत संवाद कि “यह अकड़ू ग़ुलामी के दिनों मेरे पिता के सामने हुआ होता। चमड़े के तसमें बँधे डंडे से बात करते। महीनों बेगार कराते। कोड़े पड़ते। ऐसे अकड़ुओं-झकड़ुओं को तो वे जूत-जूत छोत झाड़ते थे। आज़ादी क्या आयी, घूमते-फिरते, धरती रगड़ते घुमंतुओं के दिन भी फिर गए।”(पृष्ठ-75) लेकिन जात्याभिमानी सेठ के पास आज़ाद भारत की बदली हुई परिस्थितियों और नई क़ानूनी-व्यवस्था में अपने मन को मसोस कर रह जाने और अपने क्रोध को पी जाने के सिवा कोई उपाय नहीं बचता है। लेखक जातिवाद की मौजूदगी को दरिद्रता और ग़रीबी की वस्तुस्थिति में देखता है। शुरू में जो काजल और शशि फटेहाल और गंदी बस्ती में रहने वाले सँपेरे के घर का पानी पीने तक से मना करती हैं, वही शशि और काजल नया घर बन जाने, गंदगी का आलम न होने के चलते बिना नाक चढ़ाये पानी पी लेती हैं। यही नहीं काजल मिलनदेवी से अपनी अनुभूति साझा करते हुए कहती है, “वक्त-वक्त की बात है, मिलन। कितने गंदे-संदे डेरे पड़े थे, यहाँ। उनकी जगह कितने सुंदर-सुंदर मकान बन गए हैं। पहले मन उठ कर चलने को करता था, अब रुचता है।”(पृष्ठ-391) उपन्यास में जातिवाद की अमूर्त और प्रत्ययवादी व्याख्या नहीं है, जैसी की प्रायः अन्य दलित लेखकों के यहाँ मिलती है। लेखक मानता है कि जातिवाद का ख़ात्मा महज़ मानसिक और सांस्कृतिक बदलावों से सम्भव नहीं है, बल्कि मानसिक और सांस्कृतिक बदलाव भी, तब ही सम्भव होंगे, जब वंचित और हाशिए के समाज को आर्थिक रूप से सबल बनाया जा सकेगा, घृणित कार्यों से मुक्ति दिलाकर उनके लिए बेहतर रोज़गार का सृजन किया जाएगा और उनकी जीवन स्थितियों में आमूलचूल बदलाव लाया जाएगा। लखीनाथ सँपेरे के हालातों में आए बदलाव के साथ काजल और शशि के व्यवहार में आया परिवर्तन, इस तर्क को पुष्ट करता है।
बदली परिस्थिति, बढ़ता औद्योगीकरण, परिवहन व सेवा क्षेत्र के विकास ने घुमंतुओं के सामाजिक महत्त्व को घटा दिया। यातायात के साधन विकसित होने से ‘बंजारों’ का माल ढुलाई और नमक व मुलतानी मिट्टी का व्यवसाय कमज़ोर पड़ा। जंगली जानवर पकड़ने पर रोक के क़ानून से भालू और बन्दर का करतब दिखाने वाले ‘कलंदर’ और साँप का खेल दिखाने वाले सँपेरों की जीविका पर असर पड़ा। रेडियो, टीवी आदि मनोरंजन के साधन विकसित होने से ‘बहुरूपिये’ और हाथ की सफ़ाई दिखाकर मनोरंजन करने वाले ‘बाजीगर’ प्रभावित हुए। प्लास्टिक के खिलौनों के आने से ‘कुचबंदा’ जाति के मिट्टी के खिलौनों की माँग घट गयी। यानी उत्तरोत्तर बढ़ती पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में घुमंतू जातियों के पहले से ही अलाभकारी हो चुके परम्परागत काम-धंधों को और अधिक अलाभकारी बना दिया, जिस वजह से यह जातियाँ अपने परम्परागत पेशों को छोड़ कर दिहाड़ी मज़दूरी करने या अन्य कामों की ओर रुख़ करने लगी। उपन्यास में कई ऐसे पात्र हैं जो अपने परंपरागत काम-धंधे को छोड़कर शहर में मेहनत-मज़दूरी का काम करते हैं। गुड्डो रेबारी और उसकी पत्नी शहर में मज़दूरी करके पेट भरते हैं। धूनाराम बंजारा पारंपरिक काम छोड़ चाय की दुकान चलाता है और चाय के साथ बिस्कुट, नमकीन, पेठा आदि बेचता है। इसी तरह सपरानाथ की बहन जूनाबाई सपेरन भी शहर में मज़दूरी करती है। परंपरागत काम के क्रमश: अलाभकर होते चले जाने और साँप पकड़ने, रीछ-भालू-बंदर रखने और करतब दिखाने का काम जोखिम भरा होने के चलते जब कभी इन लोगों को परंपरागत काम छोड़ने का अवसर मिला, उन्होंने इन कामों को छोड़ दिया। डेरे के लोगों के सामने ऐसा अवसर उस समय आया, जब ठेकेदार को लेबर की ज़रूरत पड़ती है। लेबर की पूर्ति के लिए ठेकेदार डेरे के लोगों को दिहाड़ी पर मज़दूरी करने का सुझाव देता है। वह मज़दूर को 4 रुपए और कुली को 3 रुपए दिहाड़ी देने की बात कहता है। डेरे के लोग मीघाराम, गुलाबीबाई, भलीराम इसके लिए झट-पट तैयार हो जाते हैं। मीघा और उसके कम आमदनी वाले काम के बारे में बताते हुए लेखक लिखता है, “बंदर-बंदरिया का खेल-तमाशा दिखाने के उपरांत मँगता कि फैली हथेली की तरह धरती पर बिछी उसकी चादर पर दर्शकों के द्वारा एक पैसा, दो पैसा, तीन पैसा, पाँच पैसा फेंकने पर शाम तक एक-दो रुपए मुश्किल से बनते थे।”(पृष्ठ-293) काम बदलने, दिहाड़ी पर काम मिलने से सालों से दरिद्रता का जीवन जी रहे इन घुमंतुओं के जीवन में ख़ुशहाली की बयार फैल गयी। लेखक कहता है, “दिहाड़ी मिल रही थी, रोज़। दोनों टेम। चूल्हा जला करता, देर तक। साग, तरकारी, रोटी, पूड़ी, पराठे बनते।”(पृष्ठ-322) इस बीच ‘वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972’ में लागू होने की ख़बर जब बस्ती में फैलती है तब मीघा-घीघा, सीकाराम, समोदर, लखीनाथ में बेचैनी व्याप जाती है। इस बेचैनी का कारण जानवरों का इनकी आजीविका का साधन होना मात्र नहीं है, बल्कि इसका एक कारण जानवरों से इनका असीम लगाव होना भी है। समोतर भालू के बच्चे को, सीकाराम रीछ के बच्चे को, मीघाराम और घीघाराम बंदर के बच्चों को बहुत छोटी अवस्था में घर लाये थे। मीघाराम की घरवाली ने तो अपने सातेक (सात) महीने के बच्चे का स्तन छुड़वा कर, भूख से बिलखते बंदर के सातेक दिनों के बच्चों को स्तनपान करवाया था। इस असीम लगाव के कारण ही जानवर भी अपने पालनहारों से दूर नहीं जाना चाहते। यही कारण है कि जंगल में छोड़ आने के बाद भी जानवर रात में घर वापस आ जाते हैं। समोतर कहता है, “भगा आया था। उलटा आ गया रात।”(पृष्ठ-352) उपन्यास में लेखक द्वारा मानव और जानवर के आपसी लगाव, उनकी बेचैनी आदि का चित्रण बहुत ही मनोहारी ढंग से किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक मानव के हृदय और संवेदनाओं के साथ-साथ जानवर के हृदय और संवेदनाओं पर भी बराबर अधिकार रखता है।
हालाँकि, घुमंतू दिहाड़ी का काम मिल जाने से धीरे-धीरे ख़ुद-ब-ख़ुद इन कामों को छोड़ने लगे थे। लखीनाथ कहता है, “पहल्याँ साँप, सटक, नाग, पकड़, बेचण को घरूँ धंधों करया करतो। हुक्म, वो छोड़ दियो इब . . .। साब मजूरी करां, पेट भरां।”(पृष्ठ-340) यद्यपि घुमंतू लोग अवसर मिलने पर अपना पेशा बदल रहे थे लेकिन रोज़गार के स्थायित्व की कमी, जानवरों और पुश्तैनी काम से विशेष लगाव के कारण उनमें द्वंद्व भी था, लेकिन मकान से स्थायित्व आ जाने, पुराने काम धंधों का अलभाकारी हो जाने, परंपरागत काम में जोखिम होने, पुलिस के डंडे और कड़ी सज़ा के डर और परिस्थितियों में वृहद् बदलाव के कारण घुमंतू अंत में अपने जंगली जानवरों को थाने छोड़ आने का फ़ैसला करते हैं।
सामाजिक बदलाव के अनुरूप डेरे की भावी पीढ़ी भी आगे बढ़े, वह पढ़ना-लिखना सीखे, अच्छी नौकरी करे; इसके लिए लखीनाथ अपने बच्चे को स्कूल भेजता है। वह शिक्षा के महत्त्व को समझता है; वह सेठ मुकुन्ददास द्वारा रुपयों का लालच दिखाने और बच्चे का स्कूल से एक दिन नागा कराने की बात पर बिगड़ उठता है। लखीनाथ के बच्चों के साथ डेरे से समोतर की लड़की भी स्कूल पढ़ने जाती है। एक बुज़ुर्ग लखीनाथ को ख़ाली पड़ी ज़मीन पर मंदिर बनवा देने की बात कहता है, लेकिन लखीनाथ मंदिर की बजाय स्कूल बनवाने के पक्ष में है, “स्कूल बणवावांगा दादा। पूरी बस्ती का टाबर एक साथ पढैगा।”(पृष्ठ-309) उपन्यास के पात्र बदलते हुए परिवेश के अनुरूप ख़ुद को ढालने को तत्पर हैं और अपने भविष्य के प्रति सचेत भी हैं।
उपन्यास पाठक पर समुचित प्रभाव छोड़ सके, इसके लिए उसके शिल्प-पक्ष का मज़बूत और प्रभावकारी होना आवश्यक है। भाषा का मुहावरेदार होना, प्रतीकों का प्रयोग होना, चित्रात्मकता, आंचलिकता ‘साँप’ उपन्यास का शिल्प वैशिष्ट्य है। लेखक केवल अनुच्छेदों (पैरा) के बीच में मुहावरों का प्रयोग नहीं करता, बल्कि कहीं-कहीं वह पूरे-पूरे अनुच्छेद का निर्माण ही मुहावरों के माध्यम से करता है, “बोलाराम के दाम्पत्य की डोर टूट गई। उम्मीद को पाला मार गया। पैरों के तले से ज़मीन खिसक गई। कलेजे ने जगह छोड़ दी। दिन में तारे नज़र आने लगे।”(पृष्ठ-332) लेखक ने उपन्यास में प्रतीकों का ग़ज़ब प्रयोग किया है, एक उदाहरण दृष्टव्य है, “दरख़्त पर बैठा कौआ, काँव-काँव करता उड़ा और दूसरे पेड़ पर जा बैठा था। उसकी काँव-काँव में हताशा थी। टहनी पर बैठी गौरैया गर्दन उठाकर फुदकी और इस टहनी से दूसरी टहनी पर जा बैठी। उसकी फुदक में उमंग थी।”(पृष्ठ-331) यहाँ कौआ बोलाराम और गौरैया रोशनीबाई का प्रतीक है। उपन्यास में राजस्थानी के आंचलिक शब्दों जैसे नपूता, बापरो, सूगली, उकड़ूँ, दावण का प्रयोग भरपूर हुआ है, जो इस अँचल विशेष से जुड़े पाठकों के लिए रस और आनंद का कारण बनता है, लेकिन अन्य पाठकों के लिए पाठ को थोड़ा दुष्कर बना देता हैं, लेकिन लेखक ने जटिल शब्दों के अर्थ अंत में देकर लेखकीय कुशलता का परिचय दिया है। इसके साथ ही लेखक ने पात्रों की भाव-भंगिमा, वेषभूषा और जानवरों की हरकतों का बड़ा ही मनोरम विवरण उपन्यास में किया है।
उपन्यास के उजले पक्ष के साथ-साथ कुछ ऐसे संदर्भ और घटनाएँ हैं, जो पाठ की कमज़ोर कड़ी बन कर उभरे हैं। मिलनदेवी के कृत्रिम गर्भ धारण का प्रसंग, उपन्यास की कथावस्तु का एक अटपटा और नाटकीय प्रसंग लगता है। बावजूद इसके वह उपन्यास को अंत की ओर ले जाने में सहायक सिद्ध होता है।
अंत में कहा जा सकता है कि उपन्यासकार ‘साँप’ में घुमंतू समाज का स्टीरियो टाइप व फोटोग्राफिक विवरण नहीं करता है। वह जहाँ एक ओर घुमंतू समाज की ग़रीबी, उत्पीड़न, जातीय भेदभाव व दरिद्रता-जनित दुश्वारियों को पाठक के सामने प्रस्तुत करने में सफल रहा है, वहीं दूसरी ओर वह बदलते समय-संदर्भों और बदलते सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य में, घुमंतू समाज की जीवन-शैली, चेतना और समाज में आ रहे बदलावों को भी प्रकट करने में सफल रहा है। इस तरह लेखक घुमंतू जीवन के यथार्थ का अधिक सत्य, अधिक पूर्ण, अधिक मूर्त, अधिक गतिमान चित्रण प्रस्तुत करता है, जो पाठक को अन्यथा उपलब्ध नहीं होता है। यही नहीं रचनाकार पाठक के पूर्वाग्रहों को तोड़कर, उसके अनुभवों का सामान्यीकरण करके उसे उसकी सीमाओं से बाहर ले जाता है और उसे परंपरा और आधुनिकता के बीच फँसे घुमंतू समाज के यथार्थ की अधिक मूर्त समझ उपलब्ध कराता है।
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