साधारण जीवन की असाधारण कविता: दीवार में एक खिड़की रहती थी
राकेश मिश्र
समीक्षित पुस्तक: दीवार में एक खिड़की रहती थी
लेखक: विनोद कुमा शुक्ल
प्रकाशक: हिन्दी युग्म
मूल्य:₹196.00
पृष्ठ संख्या: 248
ISBN: 978-9392820786
एमाज़ॉन लिंक: दीवार में एक खिड़की रहती थी
विनोद कुमार शुक्ल हिंदी साहित्य के एक प्रसिद्ध और सम्मानित लेखक हैं। उन्होंने कविता, उपन्यास और कहानियों के माध्यम से हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी है। उनकी प्रमुख किताबों में नौकर की कमीज़, दीवार में एक खिड़की रहती थी, खिलेगा तो देखेंगे, सब कुछ होना बचा रहेगा, हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी, बौना पहाड़ और महाविद्यालय जैसी रचनाएँ शामिल हैं, जिन्हें पाठकों द्वारा बहुत सराहा गया है।
मैंने उनकी कई कविताएँ पढ़ी हैं और हाल ही में नौकर की कमीज़ के बाद दीवार में एक खिड़की रहती थी पढ़ी। विनोद जी की लेखनी की खास बात यह है कि वे साधारण जीवन की घटनाओं को बहुत ही संवेदनशील और कल्पनाशील तरीके से प्रस्तुत करते हैं। उनकी भाषा सरल है, लेकिन उसमें गहराई और भावनात्मक प्रभाव है। ऐसा लगता है कि उन्होंने हर शब्द को मंथन करके, बहुत सावधानी से पन्ने पर रखा है।
इस उपन्यास में एक युवा दंपति है: रघुबर प्रसाद, जो एक प्राइवेट महाविद्यालय में गणित के शिक्षक हैं, और उनकी पत्नी सोनसी। कहानी में एक हाथी है, उसका महावत एक साधु है, स्कूल में विभागाध्यक्ष हैं, छोटू है, बूढ़ी अम्मा हैं, और रघुबर प्रसाद के माता-पिता हैं। कहानी इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती है। एक छोटी सी गृहस्थी है, निर्धनता है, लेकिन बहुत सारा स्नेह है। पति-पत्नी में असीम प्रेम है। दीवार में एक खिड़की है और उस खिड़की के पार एक समृद्ध जीवन है।
रघुबर प्रसाद का व्यक्तित्व संवेदनशील लेकिन संकोची है। वे अपनी बात कहते-कहते रुक जाते हैं। रोज़ आठ किलोमीटर दूर कॉलेज जाते हैं, लेकिन टेम्पो वाले या तो रोकते नहीं या पहले से भीड़ होती है। फिर हाथी और साधु से जान-पहचान होती है और वे हाथी पर बैठकर कॉलेज जाने लगते हैं। यह प्रसंग बहुत ही रोचक है और उससे भी ज़्यादा रोचक है विभागाध्यक्ष जी से रघुबर प्रसाद की हाथी की सवारी पर चर्चा।
रघुबर प्रसाद दोनों हाथों से एक जैसा लिख सकते हैं और विद्यालय में सम्मानित शिक्षक हैं। पुस्तक की शुरुआत सूर्योदय और सूर्यास्त के रंगों से होती है और रात्रि के अंधकार से लेखक संकेत देते हैं कि रघुबर प्रसाद दिखते कैसे हैं। साधु से उनकी मित्रता स्पष्ट नहीं है, लेकिन वह रोज़ उन्हें कॉलेज ले जाता है और कभी-कभी बिना बताए हाथी को उनके घर छोड़ जाता है। रघुबर प्रसाद छुट्टी लेकर हाथी की देखभाल करते हैं और दोनों पति-पत्नी सोचते हैं कि उन्हें साधु से हाथी को आज्ञा देने वाले शब्द सीखने चाहिए। वे कभी यह नहीं कहते कि उन्हें ऐसा क्यों करना चाहिए।
कहानी तब एक नई दिशा लेती है जब रघुबर के पिता सोनसी को छोड़ने आते हैं। यहाँ से कहानी कल्पना की उड़ान भरती है। युवा दंपति खिड़की कूदकर एक कल्पनालोक में जाते हैं। वहाँ नदी है, सुंदर जलाशय हैं जिनमें कमल खिले हैं, सुगंधित और शीतल हवा है, मोर हैं, गोबर से लीपी पगडंडियाँ हैं। सोनसी और रघुबर वहाँ स्नान करते हैं, चाँदनी रात में साफ़टिक की शिला पर सोते हैं, सुगंधित फूलों और जुगनुओं से खेलते हैं। वहाँ एक बुढ़िया अम्मा हैं जो उन्हें बड़े स्नेह से दुलारती हैं। एक बार सोनसी को वे सोने के कंगन देती हैं। कई बार वे सारी रात वहीं रह जाते हैं और सुबह नहा कर लौटते हैं।
रघुबर प्रसाद की माता जी और सोनसी के संबंध बहुत ही मधुर हैं। वे जब भी आती हैं, अपने साथ ढेर सारा स्नेह और सीख लेकर आती हैं। निर्धनता प्रत्यक्ष है, लेकिन उससे परिवार प्रभावित नहीं है। रघुबर प्रसाद के पिता की उपस्थिति है, लेकिन वे स्वयं कम दिखते हैं।
विभागाध्यक्ष और रघुबर प्रसाद के संवाद कभी हाथी को लेकर, कभी साइकिल को लेकर होते हैं। कभी लगता है कि विभागाध्यक्ष उन्हें छोटे भाई की तरह सजग कर रहे हैं, कभी खीज जाते हैं। एक बार विभागाध्यक्ष भी उस खिड़की के पार जाते हैं और वहाँ की सुंदरता से चमत्कृत हो जाते हैं। लेकिन जब वे घर के पीछे जाकर देखते हैं, तो उन्हें ना वृक्ष दिखते हैं, ना तालाब, ना गोबर से लीपी पगडंडी, ना सुगंधित हवा, ना हवन की सुगंध, ना शिवलिंग। वे आश्चर्यचकित हैं और बार-बार रघुबर प्रसाद से पूछते हैं कि वे फिर कब जा सकते हैं।
सोनसी और रघुबर प्रसाद का प्रेम पूरी पुस्तक में बहता रहता है। जब रघुबर बिना खाए कॉलेज जाते हैं, तो सोनसी उनके लिए भात और लाल साग लेकर कॉलेज जाती हैं। फिर रघुबर उन्हें अवकाश लेकर घर छोड़ने आते हैं। उनका प्रेम कई बार खिड़की के पार होता है: जब वे नदी में तैरते हैं, शिवालय जाते हैं, चट्टान पर चंद्रमा और जुगनुओं को देखते हुए सो जाते हैं। जब सोनसी नैहर जाती हैं, तो रघुबर की उदासी घर में छितराई रहती है। सोनसी ख़ुश हैं कि वे अपने माता-पिता से मिलेंगी, लेकिन उन्हें चिंता भी है कि रघुबर कैसे रहेंगे। दोनों के बीच संवाद बहुत कोमल हैं और लेखक ने उन्हें स्नेह से पन्नों पर अंकित किया है।
सोनसी के जाने के बाद की उदासी विनोद जी ने उकेरी है, लेकिन उसे हावी नहीं होने दिया। जब सोनसी लौटती हैं, तो रघुबर की ख़ुशी कई पन्नों पर छलकती है। शृंगार दबे-छुपे आता है, एक सुगंधित और शीतल हवा के झोंके की तरह, और हवन की सुगंध की तरह स्थिर रहता है।
इस कहानी में सभी भाव धीमी आँच पर पकते भोजन की तरह हैं। लेखक को कोई जल्दी नहीं है कुछ भी कहने की। कई बार तो बहुत सारा प्रयास इस बात पर है कि जो कहा नहीं गया है, उसे सुना कैसे जाए। दरअसल, इस पुस्तक में कोई आरंभ और अंत नहीं है, लेकिन बहुत सारा जीवन है। निर्धनता है, लेकिन उससे प्रभावित नहीं हैं रघुबर प्रसाद और सोनसी। दीवार में उस खिड़की की वजह से वे बहुत ही समृद्ध जीवन जीते हैं। बहुत सारा प्रेम, संकोच, धैर्य है इस कहानी में। प्रेम तो ऐसा कि वहीं रह जाने को मन करता है। उस खिड़की से निकलकर उन पलों को जीने का मन करता है। यह पुस्तक एक मधुर प्रेम कविता है, जो बहुत ही कोमलता से लिखी गई है।
‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ केवल एक उपन्यास नहीं, बल्कि एक भावनात्मक यात्रा है जो हमें जीवन की सादगी, प्रेम की गहराई और कल्पना की उड़ान से परिचित कराती है। विनोद कुमार शुक्ल की लेखनी हमें यह सिखाती है कि जीवन की सबसे सुंदर चीजें अक्सर सबसे साधारण लम्हों में छिपी होती हैं। यह रचना पाठक को भीतर तक छूती है और उसे एक ऐसी दुनिया में ले जाती है जहाँ प्रेम, संवेदना और कल्पना की कोई सीमा नहीं होती।