राजपाल सिंह गुलिया – दोहे – 001
राजपाल सिंह गुलिया
अधम कमाई से हुए, सदा बुरे ही काम।
रंगरेली में लग गए, रंगदारी के दाम॥
हर्षित, दर्पित या करे, कोई सोच-विचार।
अंतर्मन के भाव तब, लें मुख पर आकार॥
खेत बेच कर सेठ को, भेजा पुत्र विदेश।
उम्मीदों ने कर दिया, कितना बड़ा निवेश॥
गौरव को गिरवी किया, खाया बेच लिहाज़।
भौतिकवादी सोच से, लौकिक हुआ मिज़ाज॥
बातें सुन बुनियाद की, सहम गई दीवार।
आख़िर कितने दिन सहें, हम तेरा ये भार॥
दुख में रहता सुख छुपा, शंका बीच यक़ीन।
अक़्सर काली रात में, स्वप्न मिले रंगीन॥
बिना ठोस संकल्प के, कौन गलाए दाल।
चाह हमेशा चाहती, पका पकाया माल॥
कैसा दिया विकास ने, हमको ये उपहार।
धुआँ-धुआँ सी हो गयीं, अपनी स्वच्छ बयार॥
लुटा रहा धन नीर सा, दोनों हाथ उलीच।
मिलें उसी लंकेश के, संग बहुत मारीच॥
भूल तनिक पर भी नहीं, डालोगे जब धूल।
कहो खिलेंगे किस तरह, विश्वासों के फूल॥
बुरा किसी को गर लगा, तुरत जताओ खेद।
रिश्तों में पनपें नहीं, वैचारिक मतभेद॥
सीख दिलों को जीतना, आलिम की तजवीज़।
पैसे से मिलती कहाँ, दुनिया में हर चीज़॥
दुख में रहता सुख छुपा, शंका बीच यक़ीन।
जैसे काली रात में, स्वप्न रहें रंगीन॥
होता ख़त्म विवाद में, जब शब्दों का कोष।
आता मान बचाव को, तभी यकायक रोष॥
खाद बीज की हाट पर, मिला नहीं सामान।
लेकिन मिली शराब की, हरदम भरी दुकान॥
ग़ैर संग जोरू गई, लगा दाग़ दहलीज़।
पति बेचे बाज़ार में, वशीकरण तावीज़॥
बोल तोल कर बोलिए, क़ायम रहे तमीज़।
बातों में सम्मान की, लाँघो मत दहलीज़॥
हुई टिकट के नाम पर, ऐसी बंदर-बाँट।
इस दल से उस दल गए, कितने मार गुलाँट॥
करके निंदा ईश की, हँसा ख़ूब शैतान।
इसी बात पर लड़ मरे, कितने ही नादान॥
अगवाह किया पगार को, महँगाई ने आज।
निकली ख़ाली जेब की, नहीं तनिक आवाज़॥