रागिनी

01-01-2025

रागिनी

डॉ. सरला सिंह ‘स्निग्धा’ (अंक: 268, जनवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

रागिनी देखने में जितनी सुन्दर थी उतनी ही पढ़ाई में भी होशियार थी। अपने विद्यालय में चाहे खेल हो या कोई कार्यक्रम सभी में वह बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थी। सभी अध्यापिकाओं को वह जितना प्रिय थी उतना ही अपनी सहेलियों और साथ पढ़ने वाली लड़कियों को भी। इसका कारण यह भी था कि वह सबकी मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहती थी। 

रास्ते में कभी कोई घायल पक्षी, बिल्ली या कुत्ते का बच्चा मिल जाता था तो उसे उठा कर अपने घर ले जाती थी भले ही उसके लिए उसकी माँ उसे ख़ूब खरी-खोटी सुनाती। हाँ इतना ज़रूर था कि उसके पिता जी और छोटा भाई इसमें उसके मददगार होते थे। जब तक वह जानवर पूरी तरह ठीक नहीं होता था वे लोग उसके खाने पीने व इलाज की पूरी व्यवस्था करते थे। माँ हमेशा चिल्लाती, “इस घर में किसी को भी घर की फ़िक्र नहीं है, बस इन लोगों से जानवर पलवा लो। एक लड़की है, उसे भी बिगाड़ रहे हैं।”

“अरे कंचन, इसे बिगाड़ना नहीं, सँवारना कहते हैं। किसी की मदद करना कोई बुराई नहीं है इसे अच्छाई कहा जाता है,” महेश्वर प्रसाद हँसते हुए कहते फिर चारों लोग खिलखिला कर हँस पड़ते। 

धीरे-धीरे समय बीतता गया, रागिनी ने बीए, बीएड कर लिया। छोटे भाई केशव ने भी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर ली उसकी एक प्राइवेट कंपनी में ठीक-ठाक नौकरी भी लग गई। 

इसी समय कंचन की दूर की एक रिश्तेदार ने रागिनी के लिए एक रिश्ता लेकर आयीं। 

“कंचन दीदी देख लो, बहुत ही अच्छा रिश्ता है यह। लड़का बस दो ही भाई है, घर में बड़े भाई और भाभी हैं जिनका अपना अलग मकान है। लड़के के साथ केवल उसकी माँ रहती हैं,” कंचन जी की दूर के रिश्ते में ममेरी बहन लगने वाली मंजरी ने कहा। 

“वो तो ठीक है पर लड़का क्या करता है?” पास में ही बैठे महेश्वर प्रसाद ने पूछा। 

“लड़का भी प्राइवेट नौकरी ही करता है, उसका भी अपना मकान है। उसकी माँ को भी उनके पति की पेंशन मिलती है,” मंजरी ने बड़े ही रोब से बताया। 

“फिर तो मंजरी तू बात कर ही ले, पर दान-दहेज़ तो अधिक नहीं लेंगे?” कंचन ने पूछा। 

“अरे नहीं दीदी कुछ भी नहीं लेंगे वे लोग, उनको तो बस एक पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए। अपनी रागिनी तो पढ़ी लिखी भी है, संस्कारी भी है और देखने सुनने में भी सुन्दर है।”

“वे कुछ नहीं लेंगे तो हम भी कौन-सा ख़ाली हाथ भेजने वाले हैं। अपनी क्षमता के अनुसार जो कुछ बन पायेगा हम लोग भी देंगे ही,” महेश्वर प्रसाद ने कहा 

इसी समय रागिनी भी आ गई। वह भी नौकरी के लिए जगह-जगह आवेदन करने में लगी हुई थी। उसने दरवाज़े पर खड़े होकर उन लोगों की सारी बातें सुन ली थीं। 

“मुझसे भी तो पूछो कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं करना है? बिना नौकरी लगे मैं कहीं भी शादी-वादी नहीं करने वाली,” रागिनी ने अपने पिता जी की ओर देखते हुए कहा। 

“वो सब ठीक है बेटा पर शादी के बाद भी तुम नौकरी की तैयारी कर सकती हो। उस घर में हैं ही कौन केवल लड़का और उसकी माँ। जेठ-जेठानी और उसके बच्चे अलग ही रहते हैं। तीन लोगों का खाना बनाना कौन सा बड़ा काम है,” मंजरी ने रागिनी को समझाते हुए कहा। 

“हाँ बेटा, सबसे अच्छी बात तो यह है कि उन लोगों की कोई भी दहेज़ की माँग नहीं है जबकि लड़का भी नौकरी करता है। उसकी माँ को भी उनके पति की पेंशन मिलती है। इस हिसाब से देखा जाए तो यह बहुत ही अच्छा रिश्ता है।”

“पापाजी आप मुझे केवल दो साल और दे दीजिए। इतने समय के अन्दर मैं एक अच्छी नौकरी प्राप्त कर लूँगी। फिर आप जहाँ आप की मर्ज़ी हो, आप मेरा रिश्ता कर देना।” रागिनी कहते हुए अपने कमरे में चली गई। आज वह बहुत ही परेशान थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और क्या नहीं करे? 

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आज सुबह से ही रागिनी के यहाँ चहल-पहल थी। उसके घर उसे देखने के लिए लड़के वाले आ रहे थे। रागिनी के पिताजी इस रिश्ते को इस लिए चाहते थे कि यहाँ दहेज़ की कोई भी माँग नहीं थी और साथ ही परिवार भी छोटा था, लड़का भी नौकरी वाला था। उधर लड़के वाले इस रिश्ते को इस लिए चाहते थे कि लड़की पढ़ी-लिखी और सुन्दर थी। उसने बीएड किया था इस कारण वह सरकारी स्कूल में भी नौकरी पा सकती थी। दहेज़ का क्या वह तो ख़र्च ही हो जाता है लेकिन जानी-समझी लड़की मिलना भी कठिन होता है। 

लड़के वालों के आने पर रागिनी के माता-पिता व भाई ने उनकी ख़ूब आवभगत की। महँगी मिठाई, फल, नमकीन सब कुछ उनके सामने रखा गया। अन्त में रागिनी के हाथों चाय मँगवायी गयी। 

“बेटा रागिनी, ज़रा चाय लाना बेटा।” 

रागिनी की मामी अपने साथ रागिनी को लेकर तथा चाय की ट्रे हाथ में लेकर स्वयं उन लोगों के पास आयीं। 

सभी को नमस्कार करके रागिनी वहीं खड़ी हो गई। 

“बैठो बेटा, खड़ी क्यों हो? आओ मेरे पास इधर बैठो,” रागिनी की होने वाली सास सरिता देवी ने कहा। 

कुछ देर तक इधर उधर की बातें चलती रही फिर रागिनी की माँ ने मयंक से कहा, “बेटा आपको भी जो पूछना है पूछ लो, शादी-विवाह का मामला है, यह तो जीवन भर का रिश्ता होता है।”

“नहीं आंटी जी मुझे कुछ नहीं पूछना है मैं तो बस इतना ही चाहता हूँ कि जो भी मेरे घर आये वह मेरी माँ की सेवा करे और आर्थिक मज़बूती के लिए मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रहे,” मयंक ने गम्भीर स्वर में कहा। इसके बाद रागिनी से उसकी पढ़ाई और पसंद तथा नापसंद आदि पूछकर उसे उसके कमरे में जाने के लिए कह दिया गया। 

“जाओ बेटा अपने कमरे में चली जाओ, तुम आराम करो,” रागिनी की माँ ने उससे कहा। 

रागिनी के जाने के बाद सरिता देवी ने कहा, “देखो जी हमें और हमारे बेटे को आपकी बेटी बहुत पसंद हैं। और हमें कोई दान-दहेज़ भी नहीं चाहिए लेकिन इतना तो होना ही चाहिए कि चार लोग वाह-वाही करें।”

“हाँ आपकी बात सही है, अपनी बेटी को ख़ाली हाथ भी कोई नहीं भेजता। जितनी हमारी क्षमता होगी हम उतना अवश्य करेंगे। आपकी कोई ख़ास माँग हो तो वह भी बता दीजिए,” रागिनी के पिताजी ने कहा। 

“अरे नहीं भाई साहब हमारी कोई भी ख़ास माँग नहीं है,” सरिता जी ने कहा। 

शादी विवाह में शुरू से ही सारी बातें साफ़ साफ़ होनी चाहिए। घुमा-फिरा कर कोई भी बात नहीं करनी चाहिए। रागिनी के पिताजी को लग रहा था कि वे लोग जब कुछ भी माँग नहीं कर रहे हैं तो फ़ालतू का क्यों ख़र्च करना? मयंक और उसकी माँ को लग रहा था कि सरकारी नौकरी करने वाला व्यक्ति तो ख़ूब दान-दहेज़ देगा, उससे माँगना ही क्यों? 

कुछ समय बाद अच्छा-सा शुभ मुहूर्त देखकर रागिनी और मयंक की सगाई कर दी गई। सगाई में भी रागिनी के परिवार वालों ने अपनी हैसियत से बढ़कर सब कुछ किया लेकिन मयंक और उसकी माँ सरिता देवी को कुछ ख़ास नहीं लगा था। खटास की शुरूआत हो चुकी थी लेकिन रागिनी के घर वाले इसे जानकर भी नज़र अंदाज़ कर दे रहे थे। 

बेटी की सगाई की मिठाई महल्ले भर में बाँटी गई। सभी लोगों ने रागिनी के माता-पिता को बधाई दी। कुसुम देवी ने तो कंचन जी से पूछ भी लिया, “रिश्ता तो बहुत अच्छा पा गयी हो, दान-दहेज़ कितना ले रहे हैं?” 

“कुसुम जी लड़के वाले बहुत अच्छे हैं, उनका कहना है कि आप की जो हैसियत हो ख़र्च करना, हमारी तरफ़ से कोई भी माँग नहीं है,” कंचन जी ने कहा। 

“कभी-कभी हमारी कोई माँग नहीं है कहते-कहते लड़के वाले अपना असली रूप दिखाने लगते हैं। आप लोग ज़रा खुलकर बात कर लेना,” राघव जी ने कहा। 

“अरे नहीं भाई साहब लड़के वाले बहुत ही अच्छे हैं। जब वे लोग कुछ माँग नहीं रहे हैं तो बेवजह क्यों पूछने जाऊँ कि उनको क्या चाहिए?” 

सगाई के बाद रागिनी के विवाह की तैयारी आरंभ हो गई। 

रागिनी से सगाई के मयंक का फोन रोज़ ही एक-दो बार आ ही जाता था। वे दोनों ढेर सारी बातें करते, आगे के जीवन की योजनाएँ बनाते तो कभी कहाँ-कहाँ घूमने जाना है इसी की योजना बनाते। धीरे-धीरे दोनों का आपस में अच्छा तालमेल बैठने लगा। रागिनी को भी मयंक के फोन का इंतज़ार रहता था। कभी वे दोनों अपने अपने माता-पिता से पूछकर बाहर घूमने जाने का प्रोग्राम भी बना लेते मगर‌ शाम तक घर वापस आ जाते थे। 

धीरे-धीरे विवाह का दिन नज़दीक आने लगा। अब लड़के की माँ ने रागिनी के माता-पिता के पास दहेज़ के सामानों की एक फ़ेहरिस्त भेज दी। उसे देख कर रागिनी के माता-पिता स्तब्ध रह गए। इस समय शादी के कार्ड भी बँट चुके थे। लड़की की शादी का मामला था, इन्कार भी नहीं किया जा सकता था। 

“यह इतने सारे सामानों की लिस्ट उन्होंने क्यों भेजी है? पहले तो कहा कि हमें कुछ भी नहीं चाहिए और अब लिस्ट भिजवा रही हैं,” रागिनी के पिता महेश्वर प्रसाद ग़ुस्से में बोले। 

“मुझे तो जैसा आदेश हुआ, मैंने उसे कर दिया। अब आप जो भी जवाब देंगे मैं उनको जाकर बता दूँगा,”समाचारवाहक ने कहा। 

“ठीक है तो जाकर कह देना कि मुझसे जितना सम्भव होगा मैं बस उतना ही कर पाऊँगा। यह सब बातें पहले ही करनी चाहिए थीं। फिर मैं जवाब देता कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं,” रागिनी के पिताजी ने कहा। 

“जी ठीक है मैं उनसे जाकर यही कह दूँगा,” कहकर सन्देश वाहक वहाँ से चला गया। 

कुछ दिनों तक घर में अजीब सी ख़ामोशी छायी रही सबको यही लग रहा था कि कहीं उधर से वे लोग विवाह से इन्कार न कर दें। दो-तीन दिन के बाद सरिता देवी का फोन आया, उन्होंने कहा, “मैंने तो बस अपनी इच्छा ज़ाहिर की थी, आपके पास जो क्षमता है वही आप कीजिए।” 

“कोई बात नहीं बहन जी, हम लोग तो डर गये थे कि हम लोग इतना अधिक कैसे कर सकेंगे?” रागिनी के पिताजी ने कहा। 

“अरे इसमें डरने की क्या बात है? माता-पिता अपनी बेटी को डरकर नहीं प्रेम से उपहार दिया करते हैं। आप डरते क्यों हैं, हम आपस में डरने डराने के लिए थोड़े नहीं जुड़ रहे हैं,” सरिता देवी ने हँसते हुए कहा। 

गम्भीर हो रहा माहौल हल्का हो गया था। दोनों परिवार फिर शादी की तैयारी में लग गए थे। वास्तव में बात यह थी कि सरिता देवी का बेटा मयंक कोई भी काम नहीं करता था। वह इधर-उधर कुछ ठेकेदारी का काम कर लिया करता था बाक़ी तो माँ की पेंशन से ही घर का ख़र्च चल रहा था। रागिनी जैसी लड़की उनकी दीया लेकर ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलती। रागिनी के लिए सरकारी नहीं तो एक अच्छे प्राइवेट स्कूल में नौकरी कहीं नहीं गयी थी। वह उसे आसानी से मिल सकती थी। 

सरिता देवी की बातें उलझाव लिए हुए थीं इसीलिए रागिनी के पिताजी ने अपनी बेटी को दहेज़ में लगभग सबकुछ दिया। पचास हज़ार रुपए दहेज़ में भी दिए परन्तु सरिता देवी और मयंक को इससे कहीं अधिक दान-दहेज़ की ख़्वाहिश थी। विवाह के समय, इतनी ग़नीमत थी कि वे लोग कुछ भी नहीं बोले। मगर मन से ख़ुश भी नज़र नहीं आ रहे थे। विवाह का सारा कार्यक्रम सम्पन्न हुआ उसमें सासू माँ का चेहरा कहीं भी ख़ुश नज़र नहीं आया। जब माँ नाराज़ हो तो बेटा कहाँ ख़ुश हो सकता है। विदाई भी ठीक-ठाक निपट गया। 

विदाई के समय रागिनी के माता-पिता ने मयंक और उसकी माँ से कहा, “अगर हम लोगों से कोई कमी रह गई हो तो हमें माफ़ कर दीजियेगा, खुल कर बता दीजियेगा लेकिन किसी भी तरह से मेरी बेटी को उसकी सज़ा मत दीजिएगा।”

“आप बिल्कुल भी चिंता नहीं कीजिए, आपकी बेटी अब मेरी बेटी जैसी ही है। उसे हम किसी तरह की कमी नहीं होने देंगे,” मयंक की माँ सरिता देवी ने कहा। 

रागिनी के माता-पिता व भाई को डर लग रहा था कि शादी तो सम्पन्न हो चुकी है और अब उनकी बेटी के साथ कहीं वे लोग कोई दुर्व्यवहार न करें। उनके मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे। विशेष रूप से रागिनी की माँ बहुत परेशान थी। कहते हैं कि कभी कभी किसी भी चीज़ का आभास इंसान को पहले से ही हो जाता है। ‌

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“बहू तो बहुत सुन्दर है सरिता जी, बहुत क़िस्मती हो,” जमुना जी ने कहा। 

“हाँ ठीक ही है। मेकअप करके सभी सुन्दर दिखती हैं। मैं तो इससे कई गुना सुन्दर लगती थी,” सरिता देवी ने कहा। 

“अरे तो आज भी कौन-सा कम लगती हो, बहू से थोड़ी ही बड़ी लग रही हो,” जमुना जी ने कहा। 

सरिता देवी ख़ुद भी तो सजी-धजी खड़ी थी और चाहती थी कि वहाँ आये लोग बहू की बजाय उनकी ही तारीफ़ करें। बहू को मिलने वाला सारा उपहार वे स्वयं सँभाल रहीं थीं। उनके बड़े से पर्स में पैसों वाला लिफ़ाफ़ा प्रवेश करता जा रहा था और बाक़ी समानों के लिए अलग लोग थे। रागिनी के जेठ और जिठानी भी आये हुए थे और भी बहुत से रिश्तेदार शामिल थे। 

रिसेप्शन ठीक-ठाक से निपट गया। फिर पग फेरों की बारी आ गयी। ‌इसमें भी रागिनी के पिताजी ने अपनी ख़ुशी के अनुसार विदाई की। 

पग फेरों के बाद रागिनी की जिठानी माधवी ने रागिनी को समझाते हुए कहा, “रागिनी मैंने मम्मी जी के साथ कई साल गुज़ारे हैं। उनकी आदत है अपनी डींग हाँकना और दूसरों को कमतर आँकना। तुम उनकी इस बात पर ज़्यादा ध्यान ही मत देना। मुझे भी शुरू-शुरू में बुरा लगता था फिर मैंने इसे अपनी आदत बना लिया था।”

“जी दीदी जी,” रागिनी ने कहा। 

“और हाँ रागिनी तुम उनको पलटकर जवाब तो भूल कर भी मत देना वरना वे ड्रामेबाज़ भी ख़ूब हैं और उनके बेटे पूरे श्रवण कुमार। तुम मेरी छोटी बहन जैसी हो इसलिए समझा रही हूँ। इसे गाँठ बाँध लेना।”

रागिनी की जिठानी माधवी भी नौकरी करती थी और उसने अपने ऑफ़िस के नज़दीक ही मकान बनवा लिया था। सरिता देवी कभी-कभी उसके पास भी रहने के लिए चली जाती थी। माधवी की दो बेटियाँ ही थीं जिसके कारण सरिता देवी प्रायः उसे ताने दिया करती थीं। दादी का यह व्यवहार छोटी-छोटी बच्चियों को बिल्कुल भी पसंद नहीं आता था। 

सभी रिश्तेदार रिसेप्शन से पग फेरों के रस्म के बीच ही चले गए। अब रसोई का सारा काम रागिनी के हिस्से में आ गया। घर के कामों के लिए कामवाली बाई तो थी मगर ऊपरी काम भी बहुत सारे हो ही जाते हैं। पहले ही दिन रागिनी को अपने पास बुलाकर सरिता देवी ने कहा, “रागिनी बेटा इस घर में सभी सुबह पाँच बजे तक उठ जाते हैं, तुमको भी सुबह पाँच बजे उठ जाना है और नहा-धोकर, पूजा करके चाय बनाकर सबके पास पहुँचाना है।” 

“जी मम्मी जी,” रागिनी मन ही मन में हँस पड़ी कि इस घर में कुल तीन तो सदस्य हैं और मम्मी जी इस तरह कह रही हैं जैसे घर में कितने सारे लोग हों। उसने अपना रोज़ का यही तरीक़ा ही अपना लिया। उसके चाय बनाने तक भी दोनों माँ-बेटे नहीं उठते थे, वही उनके जागने की प्रतीक्षा करती थी। मगर सरिता देवी इस फ़िराक़ में हमेशा रहती थी कि कब वह देर से उठे और कब वे उसे चार बातें सुनाए। रागिनी उनके डर के कारण पाँच बजे ही उठ जाती थी। पूजा भी कर लेती थी और चाय की तैयारी करके उनके जागने की प्रतीक्षा करती। उन दोनों के नहाने के बाद नाश्ता बनाती फिर खाने की व्यवस्था करती। 

सरिता देवी किसी भी काम में हाथ नहीं लगाती थी अपने कमरे में बैठे-बैठे ही तरह-तरह की चीज़ें बनाने का आदेश ज़रूर जारी करती थी। खाना खाते समय खाने में मीन-मेख निकालना और अपनी तारीफ़ करना उनकी आदत सी हो गई थी। सरिता देवी थोड़ा-सा अपनी छोटी बहू के मायके वालों से चिढ़ती भी थीं। उनकी इच्छा थी कि वे लोग इतना दहेज़ दे देते कि थोड़ा बहुत मिलाकर बड़े बेटे की तरह छोटे बेटे का भी अच्छा सा मकान बन जाता। मगर वहाँ से जो मिला उससे तो स्वीकार कर पाना भी मुश्किल था। 

“रागिनी जब-तक सरकारी नौकरी नहीं लग रही है तब तक किसी प्राइवेट स्कूल में ही नौकरी कर लो,”सरिता देवी ने कहा। 

“जी मम्मी जी, मैं कोशिश करती हूँ,” रागिनी ने कहा। अब तक उसे यह पता चल चुका था कि उसका पति कोई नौकरी नहीं करता, वह कुछ ठेकेदारी का काम कर लेता है जिससे उसको थोड़ा बहुत पैसा मिल जाता है। सासू माँ की पेंशन आती है और उसी पेंशन से उस घर के बाक़ी ख़र्च चलते हैं। रागिनी उन लोगों की इस हक़ीक़त को जान कर स्तब्ध रह गयी, लेकिन अब किया भी क्या जा सकता था। 

रागिनी ने अपने ससुराल की कोई भी बात अपने मायके वालों को नहीं बताई थी। उसे लगता था कि जो भी संघर्ष है उसे स्वयं ही तो झेलना है फिर उस कष्ट में अपने माता-पिता व भाई को सहभागी क्यों बनाये। अन्य सम्बंधियों को कोई भी बात बताना केवल अपनी ही हँसी उड़ाना है। वे छोटी-सी बात को भी सभी जगह प्रसारित करने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते हैं। वे उसके दुख को कभी नहीं बाँट सकते फिर किसी को भी कुछ क्यों बताना? 

रागिनी ने दो चार जगह कोशिश की तो एक विद्यालय में उसे प्राइमरी में पढ़ाने का काम मिल गया। विद्यालय प्रबंधन समिति ने इंटरव्यू लेते समय उससे कहा, “रागिनी जी आप कुछ समय तक प्राइमरी के बच्चों को पढ़ाइए, बाद में आपके काम के अनुसार हम आपको जूनियर हाईस्कूल में पढ़ाने के लिए नियुक्त कर सकते हैं। और हाँ अगर आपका कार्य संतोषजनक रहा तो और भी बड़ी कक्षाएँ दी जा सकती हैं।”

“जी सर मैं पूरी निष्ठा से अपना कार्य करूँगी, आपको शिकायत का मौक़ा नहीं दूँगी,” रागिनी ने कहा। 

“ठीक है फिर आप कल से ज्वाइन कीजिए और ज्वाइनिंग लेटर आज ही आपको मिल जाएगा।”

“धन्यवाद सर,” रागिनी ने कहा। 

कुछ देर रिसेप्शन पर रुकने के बाद उसे ज्वाइनिंग लेटर भी मिल गया। उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना ही नहीं रहा। वह उसे लेकर सीधे अपनी सास के पास पहुँची और उनके हाथ में ज्वाइनिंग लेटर रख कर उनके पैर छुए। 

“बहुत बढ़िया, अरे मयंक देख रागिनी की कितने अच्छे स्कूल में नौकरी लगी है। तनख़्वाह भी तो काफ़ी अच्छी ही होगी। ज़रा मिठाई भी लाकर दे दे मैं मन्दिर में चढ़ा दूँ।” 

“अरे वाह यह तो कमाल हो गया! इस स्कूल में तो बिना सोर्स के किसी की नौकरी लगना ही मुश्किल है। बहुत बढ़िया रागिनी,” मयंक ने ज्वाइनिंग लेटर पढ़ते हुए कहा।

“जा पहले मिठाई लेकर आ,”सरिता देवी ने कहा। 

“ठीक है मम्मी जी, अभी लाया,” मयंक ने कहा। 

सास और पति की ख़ुशी देखकर रागिनी को लगा कि अब उसका जीवन सहजता से चलने लगेगा। घर में ख़ुशहाली का वातावरण होगा। क्या करना है पति नहीं तो पत्नी तो नौकरी करती है। लेकिन यह सब उसका भ्रम मात्र था। वह अब मकड़ जाल में फँसने वाली थी; जहाँ झटपटा तो सकती थी मगर बचने का कोई रास्ता नहीं पा सकती थी। 

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रागिनी को अब घर और‌ बाहर दोनों का ही काम करना पड़ रहा था। सुबह पाँच बजे उठना घर के लिए खाना तैयार करना, अपनी तैयारी करना सुबह सात बजे तक विद्यालय पहुँचना। फिर दो बजे तक पढ़ाने के बाद छुट्टी होती और वह क़रीब ढाई बजे अपने घर पहुँचती। इस समय थकान के कारण उसे आराम की सख़्त ज़रूरत महसूस होती थी लेकिन आराम कहाँ? दोपहर का भोजन भी उसे ही तैयार करना होता था। 

दोपहर के भोजन में केवल सब्ज़ी रोटी से ही काम नहीं चलना था उसमें सासू माँ की इच्छानुसार सारी चीज़ें भी शामिल होनी आवश्यक थी। 

दोपहर के भोजन के बाद थोड़ा सा आराम करने चलती तो सासू माँ और पति की चाय की फ़रमाइश उसके सामने आ जाती। शाम की सब्ज़ी लाने का काम भी उसके ही ज़िम्मे था। फिर उसके ट्युशन के बच्चे आ जाते और उनके जाने के बाद वह रात के खाने की तैयारी में लग जाती। इन सबके बीच में भी घर के कई काम होते थे जिसे करने की ज़िम्मेदारी भी उसी की थी। सासू माँ और पति देव टीवी देखने में लगे रहते और बीच-बीच में चाय की फ़रमाइश भी करते रहते। 

धीरे-धीरे महीना पूरा हो गया और उसकी तनख़्वाह उसके बैंक अकाउंट में आ गई। उसने ख़ुशी-ख़ुशी यह ख़ुशख़बरी सासू माँ और पति देव को सुनाई। 

“हाँ बेटा, तुम अपनी तनख़्वाह निकाल कर मुझे दे दो। मेरे बच्चे भी यही करते हैं वे अपनी तनख़्वाह मुझे ही देते हैं।” ‌

“ठीक है मम्मी जी,” रागिनी ने कहा लेकिन वह बड़े असमंजस की स्थिति में थी कि एक बेटा बहू तो इनके पास रहते ही नहीं और दूसरा बेटा कोई नौकरी नहीं करता तो कौन अपनी तनख़्वाह निकाल कर उनको देता है? लेकिन यही बात पूछने की हिम्मत उसमें नहीं थी। दोपहर को लौटते समय उसने अपने लिए पाँच हज़ार रुपए छोड़ कर बाक़ी पूरे पैसे अपनी सासू माँ के हाथ में दे दिए। 

अब यही उसके हर महीने का काम बन गया था। कभी-कभी उसे लगता कि जैसे वह किसी कोल्हू का बैल हो जिसके आँख और मुँह पर पट्टी बँधी हुई हो और उसे चलते रहना है बस चलते रहना। उसके अपने लिए रखे कुछ पैसों में से भी उसके पति की माँग जारी हो जाती। वह अपने ही पैसों में से न तो मनमर्ज़ी खा-पी सकती थी, न ही अपने लिए कुछ ख़रीद सकती थी। कहीं पर घूमना फिरना तो उसके लिए एक स्वप्न मात्र ही था। 

इंसान के सहनशक्ति की भी एक सीमा होती है। आप जब तक दबते रहेंगे लोग आपको और भी दबाते ही जाएँगे। कमज़ोर बनना कायरता की निशानी भी है। रागिनी कायरता को ही अपना कर्त्तव्य मानने लगी थी ताकि उसके घर में सुख शान्ति बनी रहे। 

समय अपनी ही रफ़्तार से चलता रहता है, उसे रोक पाना तो असम्भव ही है। रागिनी की शादी को भी एक साल बीत गया। घर में एक नन्हे मेहमान के आने की भी ख़ुशख़बरी थी। रागिनी के पति और सास ख़ुश तो बहुत थे मगर रागिनी के नित्य के कार्यक्रम में कोई भी बदलाव नहीं आ रहा था। उसे घर के सारे काम और नौकरी उसी तरह करनी थी। ऐसे समय में विशेष देखभाल की ज़रूरत होती है मगर रागिनी के लिए ऐसा कुछ भी नहीं था। 

रागिनी के मायके वालों ने जब यह ख़ुशख़बरी सुनी तो उसके मम्मी-पापा और भाई उससे मिलने आये। 

“बेटा तेरी तबियत तो ठीक है?” रागिनी से उसकी माँ ने पूछा। 

“जी मम्मी जी, मैं बिल्कुल ठीक हूँ,” रागिनी ने कहा। 

“किसी अच्छे डॉक्टर को ही दिखाना,” रागिनी की माँ ने कहा। 

रागिनी की धँसी हुई आँखें और कमज़ोर शरीर बहुत सारी बातें उजागर कर रहे थे मगर रागिनी की माँ ने सोचा कि इस समय तो ज़्यादातर महिलाओं की हालत ऐसी ही हो जाती है। एक तो इस समय कुछ खाया-पिया नहीं जाता और दूसरा वह जो कुछ भी खाती-पीती है उससे ही तो उसके पेट में पलने वाले शिशु को पोषण मिलता है। इस कारण भी इस अवस्था में महिलाएँ कमज़ोर पड़ जाती हैं। 

“बेटा कोई भारी काम मत करना, कपड़ों से भरी बाल्टी बिल्कुल भी मत उठाना। ‌ज़्यादा देर खड़े भी मत रहना,” रागिनी की माँ ने उसे समझाया। 

“जी मम्मी जी,” रागिनी बस इतना ही बोल पाई थी। वह कैसे बताती कि इस घर में बस वही एक काम करने वाली है; बाक़ी दोनों का काम केवल खाना, टीवी देखना, घूमना और जी भरकर सोना है। उसकी देखभाल करने वाला उस घर में है ही कौन? 

“तेरी नौकरी है, नहीं तो कुछ महीने मेरे पास रह लेती बेटा।” 

“अरे बहन जी आप परेशान मत होइए, यहाँ काम वाली लगी हुई है। ले-देकर दो फुल्के उतारने होते हैं बस। एक हम लोगों का ज़माना भी था घर का भी सारा काम निपटाते थे और दस-दस लोगों के लिए खाना भी तैयार करते थे। उस समय तो लोगों की ख़ुराक भी अच्छी-ख़ासी होती थी। जितने में आज के समय में पाँच लोग खा लें उतना तो उस समय एक ही व्यक्ति की ख़ुराक होती थी,” सरिता देवी ने रागिनी की माँ कंचन को अच्छा ख़ासा लेक्चर सुना दिया। 

“हाँ बहिन जी, कह तो आप सही रही हैं पर अपना-अपना शरीर और शक्ति भी मायने रखती है,” कंचन जी ने कहा। 

शाम को वापस जाते समय माँ ने रागिनी के हाथ में दस हज़ार रुपए रखते हुए कहा, “बेटा यह मेरी तरफ़ से रख लो, काम आयेंगे। भले ही तुम कमा रही हो लेकिन मेरा भी कुछ फ़र्ज़ बनता है।” 

रागिनी ने उन पैसों को न चाहते हुए भी रख लिया। उसे वह किसी भी आकस्मिक काम के लिए रखना चाह रही थी। 

रागिनी के मम्मी पापा के जाने के बाद उसकी सास ने बड़बड़ाते हुए बेटे से कहा, “क्या लेकर आये थे, थोड़े से फल और ड्राई फ्रूट्स। ऐसे ही बेटी के घर जाया जाता है। सिखा भी क्या रही थी काम मत करना, अरे तो फिर एक नौकरानी ही रख जातीं।” 

“जाने दो मम्मी, आप क्यों अपना मूड ख़राब करती हो। आप तो फल और ड्राई फ्रूट्स का आनन्द लो बस,” मयंक ने कहा और दोनों ने मिलकर एक ज़ोरदार ठहाका लगाया। 

रागिनी के मन में आज पहली बार क्रोध की चिंगारी भड़की थी लेकिन उसने उसे अपने मन में ही दबा लिया। 

“अरे रागिनी तुम्हारे मम्मी-पापा ने तुमको कुछ पैसे वैसे भी दिये हैं क्या?” मयंक ने पूछा। 

“क्यों मैं कमाती नहीं क्या?” रागिनी माँ द्वारा दिए गए पैसों का ज़िक्र भी नहीं करना चाहती थी। वह जानती थी कि अगर उसने बता दिया कि उसकी माँ ने उसे पैसे दिए हैं तो यह तुरंत माँग लेगा। 

“अच्छा तो कमाने का इतना घमंड छा रहा है तुम पर,” मयंक रागिनी के मुँह से कमाना शब्द भी नहीं सुनना चाहता था। उसकी सोच के अनुसार वह कमाये तो ज़रूर मगर कमाती है यह शब्द बिल्कुल भी उसकी ज़बान पर नहीं आये। 

“अगर घमंड ही छाता तो मैं अपने सारे पैसे आप लोगों के हाथ में नहीं रखती,” रागिनी ने कहा। 

“जवाब तो ख़ूब दे रही हो, यहाँ आकर यही सिखाया है तुम्हारे माँ बाप ने?” मयंक का ग़ुस्सा बढ़ता ही जा रहा था। 

“माँ-बाप तक मत पहुँचो!” रागिनी ने कहा। 

“वरना, वरना क्या कर लोगी?” कहते हुए मयंक ने एक ज़ोरदार चाँटा रागिनी को जड़ दिया। 

रागिनी भी शारीरिक शक्ति में उससे कम नहीं थी। वहीं पर उसका हाथ पकड़ कर झटक देती तो वह फिर हाथ उठाना भूल जाता। इस शर्म के कारण भी वह उसपर हाथ नहीं उठाता कि अगर किसी ने देख लिया तो उसकी क्या इज़्ज़त रह जायेगी। मगर रागिनी चुपचाप वहाँ से हट गयी। उसके पास तो रूठ कर बैठ जाने का भी समय नहीं था। उसने अपना मुँह धोया और ट्युशन पढ़ने के लिए आने वाले बच्चों का इंतज़ार करने लगी। 

यहीं से आये दिन उसका हाथ रागिनी पर उठने लगा था। एक तो घर में बैठकर अपनी माँ और पत्नी की कमाई खा रहा था और दूसरे अपने पुरुष होने के अहंकार में भी चूर था। उसके अनुसार पत्नी अपने पति को पलटकर जवाब नहीं दे सकती है। उसकी बड़ी भाभी का घर भी इसी तरह के सोच के कारण ही टूटा था फिर भी मयंक की आँखें नहीं खुली। उसकी बुद्धि पर पर्दा पड़ा हुआ था। 

कुछ समय बाद रागिनी का घर एक नन्हे बच्चे की किलकारी से गूँज उठा। दादी बनकर तो सरिता देवी निहाल हो गई थी और मयंक एक बेटे का पिता बनकर दोनों माँ बेटे बच्चे पर ख़ूब प्यार उड़ेल रहे थे। रागिनी को लगा कि शायद अब उसके घर की स्थिति बदल जाएगी। जब तक रागिनी मैटरनिटी लीव पर घर में थी तब तक सब कुछ ठीक रहा। 

रागिनी के माता-पिता भी बच्चे को देखने आये उन्होंने नाती के गले में एक सोने की चेन पहना कर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर की। रागिनी के जेठ-जेठानी भी बच्चे को देखने आये, उन्होंने भी बच्चे को कपड़े व पैसे दिए। इसी तरह अन्य रिश्तेदार भी बच्चे को देखने आ रहे थे। उन लोगों के जाने के बाद बच्चे को मिलने वाला पैसा दादी माँ ने अपनी टेंट में ही रख लिए, उनके अनुसार घर की मालिकिन होने के नाते उन पैसों पर उनका ही अधिकार है। रागिनी केवल देखती भर रह जाती थी। ‌नार्मल डिलीवरी होने के कारण उसे आराम की भी ज़रूरत नहीं थी। उसे डिलिवरी के दूसरे दिन से ही घर के काम में लग जाना पड़ा था। 

मैटरनिटी लीव ख़त्म होने के बाद अब सवाल यह था कि बच्चा दोपहर ढाई बजे तक कैसे रहेगा। सासू माँ इतने अधिक समय तक बच्चे को सँभालने के लिए तैयार नहीं थी। अब उन्होंने अपनी तबियत ख़राब होने का बहाना बना लिया। रागिनी के ही ज़िम्मे यह भी काम आ गया कि बच्चे को कहीं किसी क्रैच में रखे। उसने पास के ही एक क्रैच में अपने बच्चे कुणाल को दोपहर तक रखने को व्यवस्था कर दी। ‌अब दोपहर में विद्यालय से आते ही पहले वह अपने बेटे कुणाल को वहाँ से लाती, उसको कुछ खिलाती फिर सासू माँ के हवाले करके घर के काम में लग जाती थी। 

“जब से बेटा हुआ है इसका ध्यान पता नहीं कहाँ रहता है, कभी सब्ज़ी जला देती है तो कभी दाल। और तो और रोटियाँ भी ढंग से सेंक कर नहीं देती है,” सरिता देवी ने अपनी बहू की शिकायत करते हुए अपने बेटे मयंक से कहा। 

“कोई बात नहीं, कुछ दिन और देखते हैं फिर इसको ज़रा क़ायदे से समझाना ही पड़ेगा,” मयंक ने कहा पहले मयंक माँ की शिकायत सुनकर वह नज़रअंदाज़ कर दे रहा था, बेटे को क्रैच में रखा जाना उसे पसंद नहीं आ रहा था। माँ और वह ख़ुद दो लोगों के घर में होते हुए भी उसका बच्चा दोपहर तक क्रैच में रह रहा था। ‌

“मयंक अगर तुम्हें मेरा यहाँ रहना नहीं पसन्द है तो अब मैं अलग रहूँगी। मैं जानती हूँ कि मैं तुम्हारे बच्चे को नहीं सँभाल पा रही हूँ तो तुम दोनों को यह बरदाश्त नहीं हो रहा है?” 

“कैसी बात करती हो माँ, रागिनी आख़िर कर तो रही है जितना उससे हो रहा है।” ‌

“हाँ मैं तो यह पहले से ही समझती थी कि तुम दोनों की मिली भगत है। एक जली हुई सब्ज़ियाँ खिलाती है तो दूसरा उसकी तरफ़दारी करता है।” 

मयंक ग़ुस्से में पैर पटकते हुए अपने कमरे में चला गया। रात को सारे काम से निपटने के बाद जब रागिनी खाना लेकर सास के पास पहुँची तो उन्होंने खाना खाने से ही मना कर दिया। 

इसके बाद वह मयंक के पास वही थाली लेकर पहुँची, “देखिए मम्मी जी खाना नहीं खा रही हैं, आप चलिए।”

“नाराज़ वह तुमसे हैं, मैं कहाँ चलूँ? रागिनी ज़रा ढंग से काम कर लिया करो, नहीं तो रोज़ का किचकिच सही नहीं है,”मयंक ने ग़ुस्से में रागिनी से कहा। 

“अब मैंने क्या किया है? मुझे तो नहीं पता कि मैंने कुछ भी ग़लत किया है।” 

“कभी सब्ज़ी जला देती हो, कभी रोटियाँ ढंग से नहीं बनाती और‌ कह भी रही हो कि तुमको कुछ भी जानकारी नहीं है,” मयंक ने कहा। 

धीरे-धीरे यह कहासुनी तेज़ लड़ाई में बदल गई। रात का बना खाना वैसे ही पड़ा रहा। उस दिन सास बहू और बेटे में से किसी ने भी खाना नहीं खाया। 

सुबह उठकर रागिनी ने सबसे पहले सबके लिए खाना तैयार किया, बेटे को क्रैच में छोड़ा और फिर अपना टिफ़िन लेकर स्कूल चली गई। 

रागिनी विद्यालय से वापस आई तब तक उसकी सासू माँ अलग कमरा लेकर रहने अपना सारा सामान वहाँ शिफ़्ट कर चुकी थी। वह अपनी सासू माँ के पास दौड़ी हुई गयी, “मम्मी मुझसे कोई ग़लती हुई तो आप मुझको मारती, डाँटती आप यहाँ क्यों चली आयीं?” 

“मुझे तुम लोगों के साथ नहीं रहना है, बस। मैं अपनी पेंशन से अपना गुज़ारा कर सकती हूँ,” सरिता देवी गुर्राते हुए बोली। 

“लेकिन मम्मी जी आप ख़ुद से खाना कैसे बना पाओगी। झाड़ू पोंछा और बरतन तो काम वाली बाई कर देगी लेकिन खाना? आप घर चली चलो,” रागिनी ने कहा। 

“हाँ मम्मी जी, रागिनी सही कह रही है,” मयंक ने कहा। 

“मुझे पता है तुम दोनों को मेरी पेंशन चाहिए। मैं अब एक पैसा भी नहीं देने वाली और न ही तुम दोनों के साथ ही रहना है,” सरिता देवी ने ज़िद पकड़ ली थी। 

अब रागिनी का काम और भी बढ़ गया था। वह सुबह-शाम अपनी सासू माँ के लिए खाना बना कर देने जाती थी। मयंक कभी इतना भी नहीं करता था कि अपनी माँ के लिए खाना वहाँ पहुँचा दे। ‌जब रागिनी खाना देकर आ जाती तब बाद में ज़रूर घूमने पहुँच जाता था। 

धीरे-धीरे समय बीतता गया। पाँच साल का समय बीत गया, कुणाल अब पहली कक्षा में पढ़ने लगा था। मयंक अपनी माँ के कहने पर अब भी रागिनी पर बेतरह हाथ चला देता था। रागिनी के चेहरे के सूजन और चोट को देख कर जब साथ की अध्यापिकाएँ प्रश्न पूछतीं तब वह कोई न कोई बहाना बना देती थी। 

“तुम स्वयं आत्मनिर्भर हो फिर इतना अत्याचार क्यों सह रही हो?” रागिनी की एक सहेली ने कहा। 

“अकेली कहाँ जाऊँ, मेरे मायके वाले भी ऐसे धनाढ्य नहीं हैं जो मेरा और मेरे बच्चे का ख़र्च उठा लेंगे। मुझे वहाँ पर नौकरी मिल जाएगी इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। अब तुम ही बताओ मैं क्या करूँ?” 

“नौकरी तो है ही तुम्हारे पास, अपने बच्चे को लेकर अलग रह लो। अगर तुम्हारे आँख, कान, दाँत सब बर्बाद ही हो जाएँगे फिर अलग हटकर भी परेशानी ही झेलोगी। इससे अच्छा पहले ही उन लोगों से अलग हो जाओ‌ रागिनी,” रागिनी की सहेली ने समझाया। 

“अकेले रहने की मुझमें हिम्मत ही नहीं है, आख़िर मैं करूँ भी तो क्या करूँ?” 

जबसे मयंक की माँ अलग रहने लगी थी तबसे मयंक अपनी सारी कुंठित मानसिकता रागिनी पर झोंक देता था। कभी कपड़े सही से प्रेस नहीं है तो कभी खाना सही नहीं बना है तो कभी मायके वालों को फोन क्यों किया आदि बहाने ले लेकर उसे बुरी तरह से पीटता था और उसका एटीएम भी अपने ही पास रख लिया था। 

कुणाल के ऊपर इन सभी बातों का बहुत गहरा असर पड़ रहा था। उसकी दादी और पिता उस बच्चे का ब्रेनवाश करने में लगे हुए थे कि उसकी माँ बहुत ही गन्दी है, वह उन लोगों को ठीक से खाना नहीं देती, उनके कपड़े ख़राब कर देती है, जिससे उन्हें ग़ुस्सा आता है और मजबूरी में हाथ उठाना पड़ता है। छह सात साल का बच्चा भी अब दादी और पिता की ओर से अपनी माँ से लड़ने लगा था। सरिता देवी को अब दिली सुकून मिल रहा था वह अब फिर से बेटे के पास रहने लगी थी। 

आख़िरकार रागिनी ने अपनी माँ को अपनी सारी कहानी बता ही दी। गाँव-समाज के लोग क्या कहेंगे यह सोच-सोच कर वह कब तक चुप रहती। रागिनी का भाई अपने मामा जी के साथ तुरंत ही रागिनी के घर पहुँचा। उसने साथ ही साथ पुलिस को भी फ़ोन कर दिया था कि कोई भी परेशानी होगी तो पुलिस उनकी मदद करेगी। रागिनी ने अपने स्कूल में भी त्याग पत्र दे दिया था। अपने कुछ ज़रूरी सामान अपनी अटैची में डाल कर वह अपने भाई के साथ अपने मायके चली गई। कुछ दिनों की कोशिश के बाद उसे वहीं पर एक अच्छे पब्लिक स्कूल में नौकरी भी मिल गई। अब वह चैन से अपना जीवन गुज़ार रही है, अपने बच्चे की याद तो उसे बहुत आती है किन्तु उसकी कमी वह अपने भाई के बच्चों को प्यार दुलार करके पूरा कर लेती है। 

मयंक और उसकी माँ अपने अभिमान में चूर ही रहे, न ही उन लोगों ने कभी अपनी ग़लती मानकर रागिनी को वापस लाने का प्रयास किया और न ही रागिनी का दिल ही कभी वापस आने के लिए तैयार हुआ। 

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