रेडियो वाली प्रीत

01-03-2022

रेडियो वाली प्रीत

लतिका बत्रा (अंक: 200, मार्च प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“हेल्लो . . . मैं हूँ आपकी होस्ट और दोस्त राज़ी मा . . . र . . . वा . . . ह। रेडियो आल्फा में आज एक बार फिर से हाज़िर हूँ, लेकर अपने जवाब आपके सवालों के। तो लगाएँ फ़ोन और कीजिये शेयर अपने मन की बात राज़ी मा . . . र . . . वा . . . ह के साथ।” 

“हेलो, जी . . . जी . . . मैं . . . “

“तो लीजिए जनाब, हम पहचान गये हैं, रोज़़ की तरह आज भी हमारे पहले कॉलर हैं मनमीत जी। जैसे अपने इस मनपसंद कार्यक्रम, 'मन की बात विद राज़ी मारवाह’ में आप सब सुनने वाले मेरी आवाज़ को पहचानते हैं वैसे ही हम सब अब अपने रैगुलर कॉलर मनमीत जी की आवाज़ भी पहचानने लगे हैं। क्यों ठीक कह रही हूँ न मैं दोस्तो? हाँ तो मनमीत जी कहें अपनी बात।” 

“राज़ी जी, मैं चाहता हूँ आप आज भी वही गाना लगाएँ।” 

 उधर से मनमीत ने कुछ हकलाते हुए अपनी फ़रमाइश रखी। 

 रेडियो पर राज़ी की खिलखिलाती हँसी गूँज गई। 

“नहीं मनमीत जी आपकी फ़रमाइश का गाना . . . 'पिया तोसे नैना लागे रे' तो आज हम नहीं सुनाएँगे। आज हम आपको अपनी पसंद का गाना सुनाएँगे खनकती आवाज़ में राज़ी ने कहा और गाना लगा दिया। 

“नैनों में बसे हो तुम . . . तुम्हें दिल में बसा लेंगे।” 

“तो दोस्तो ये थी मेरे मन की बात। अब लौटते हैं एक बार फिर से आपके मन की बात की ओर, तो लगाएँ फ़ोन . . . ” 

मनमीत के पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। राज़ी ने कहा था, 'नयनों में बसे हो तुम . . .’ ये राज़ी के अपने मन की बात है। मतलब इतने दिनों से गानों के माध्यम से मनमीत जो पैग़ाम राज़ी के पास भेज रहा था वो सब राज़ी समझ भी रही थी और स्वीकार भी कर रही थी। मनमीत के स्वप्नों को पंख लग गए। रेडियो को अपने सिरहाने रखे वो आँखें बंद करके राज़ी की मदभरी भरी झंकार घुली आवाज़ के जादुई तिलिस्म में खो गया। 

झारखंड के झुमरी तलैया नामक छोटे से क़स्बे में पला बढ़ा, वहीं कि मिट्टी में रँगा बसा नई उम्र का नौजवान था मनमीत। वह बचपन से ही हर घर में, गली मोहल्ले में, चौपाल पंचायत में हर जगह अपने क़स्बे झुमरी तलैया के बाशिंदों को रेडियो पर गीत माला प्रोग्राम के माध्यम से अपनी पसन्द के गाने सुनने की फ़रमाइशें करते देखते हुए बड़ा हुआ था। 

यहाँ के अधिकतर मर्द अभ्रक खदानों में काम करते थे और भोजन अवकाश में पोस्टकार्ड पर अपने फरमाईशी गीत लिख लिखकर विविध भारती को पोस्ट करते थे। उस ज़माने में इस क़स्बे के युवाओं में होड़ सी लगी रहती थी कि एक महीने में कौन सबसे ज़्यादा गानों के अनुरोध विविध भारती को भेजता है तथा किसका नाम सबसे ज़्यादा बार रेडियो पर पुकारा जाता है। जैसे ही प्रोग्राम शुरू होता था सब रेडियो के आसपास जुट जाते। 

“आकाशवाणी के पचरंगी कार्यक्रम विविध भारती में आप सुन रहे हैं मनचाहे गीत। अगले गाने की फ़रमाइश आई है भाटापारा से बचकामल, मोती लाल यादव, बिलासपुर से धर्मदास वाधवानी, बुलगहन से रामदुलारी प्रजापति और शशिकांत प्रजापति तथा झुमरी तलैया से रामेश्वर वर्णवाल और नंदलाल सिन्हा, चंद्रकांता देवी और चंपा देवी।” 

उद्घोषक के मुँह से झुमरी तलैया और ख़ुद के नाम से प्रसारित होते गाने को सुनते ही सब के सब यूँ नाचने लगते जैसे कि दूल्हे की घोड़ी के आगे नागिन डांस कर रहे हों। पाँच पैसे का पोस्टकार्ड बढ़कर दस पैसे और फिर पंद्रह पैसे का हो गया पर इन लोगों की फरमाईशी पोस्ट कार्ड भेजने की गति में कभी कोई अंतर ना आया। 

1975 में मनमीत के एक चाचा विशंभर लाल जब सेना में भर्ती होकर ड्यूटी पर तैनात हुए, तो भी उनका गानों के लिए फ़रमाइशी पोस्टकार्ड भेजने और अपना नाम रेडियो पर सुनने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। उस समय जयमाला नामक कार्यक्रम फौजी भाइयों को ही समर्पित था जो सोमवार से शुक्रवार तक आता था। हर रविवार को मनमीत का पूरा परिवार रेडियो को घेर कर बैठा रहता क्योंकि उस दिन 'जयमाला संदेश' 'नामक प्रोग्राम प्रसारित होता था जिसमें फौजी भाई अपने आत्मीय जनों को और आत्मीय जन देश की सेवा कर रहे इन फौजी भाइयों के नाम अपने संदेश विविध भारती के माध्यम से देते थे। 

 मनमीत की दादी चाचा को संदेश भेजती, “बबुआ कईसन हो। रोटी भात ठीक-ठाक मिलत है ना। तुम्हार बाबूजी तुमका बहुत याद करत। रमईया के बछिया भई है। पिछवाड़े का छप्पर चू रहा ई बरस। मुनिया के बापू को बुखार लगा रहा जूड़ी का।” 

और जब एनाउंसर इसी टोन में पत्र पढ़ती तो सब के सब भावविभोर होकर बरसती आँखों से वह लरजती आवाज़ सुनते रहते। 

बॉर्डर पर तैनात चाचा ने तो एक बार हद ही कर दी थी। ख़त में विविध भारती को जो संदेश लिखकर भेजा उसमें उन्होंने परले पार गली में रहने वाली शन्नों को पूरा का पूरा प्रेमपत्र ही लिख डाला था। रेडियो पर जब उनके नाम से यह संदेश प्रसारित हुआ उसके बाद शन्नों की लातों और घूँसों से जो मरम्मत की उसके माई-बापू ने तो पूरा मोहल्ला उसका गवाह था। वह तो दादी थी जिन्होंने शन्नों के घर जाकर उसी समय उसे चुंदड़ी चढ़ाकर अपनी बहू मान लिया और बात ठंडी पड़ी। चाचा को छुट्टियों पर बुलाकर पहली लग्न में ही उनके फेरे डलवा दिए थे दादी ने। रेडियो में बजने वाले गीतों के माध्यम से यह गली मोहल्ले के लौंडे लौंडियाँ कितनी सफ़ाई से अपने प्रेम पगे संदेशों का आदान प्रदान कर देते थे यह दबी ढकी बातें और कारगुज़ारियाँ दबी ढकी होने पर भी कैसे गली मोहल्लों में रसभरियों की भाँति चखी जाती थीं यह जगज़ाहिर था। 

रेडियो के प्रति प्रेम घुट्टी में घोलकर पिया था मनमीत ने। जब मैट्रिक पास कर आगे की पढ़ाई के लिए वह रांची आया तब तक एफएम रेडियो अस्तित्व में आ चुके था। एक दिन यूँ ही ट्यूनिंग करते-करते रेडियो अल्फा एफएम से आती एक मधुर आवाज़ मनमीत के कानों में पड़ गई। यह रूहानी आवाज़ उसके तन मन को झंकृत कर गई। आत्मा को तरंगित करती यह आवाज़ राज़ी मारवाह की ही थी। अब पढ़ाई के साथ-साथ रोज़ शाम सात बजे अल्फा एफएम पर राज़ी मारवाह की आवाज़ सुनना मनमीत के लिए जुनून बन चला था। ख़तों का ज़माना तो कब का उछल कर फ़ोनों पर क़ब्ज़ा कर बैठा था। मनमीत हर रोज़ नियम से राज़ी के कार्यक्रम में फ़ोन करता। कभी घुमा फिरा कर लच्छेदार भाषा में अपने मन की बात राज़ी तक पहुँचाने की कोशिश करता, तो कभी प्रेम पगे गीतों की फ़रमाइशों द्वारा उस तक अपना प्रेम संदेश पहुँचाने की कोशिश में कोशिश करता। राज़ी अपने इस अद्भुत प्रशंसक की बातों को समझ कर भी अनजान बनी रहती। उसके पास तो नियमित रूप से ही ऐसे कितने कॉल आते ही रहते थे। फ़रमाइशी गानों के इस कार्यक्रम की रूपरेखा ही कुछ इस प्रकार की थी कि श्रोता उसे कॉल करें और उससे अपने मन की बातें शेयर करें। अपनी मीठी आवाज़ का जादू हर हाल में बरक़रार रखना और श्रोताओं को संतुष्ट रखना ही उसकी एफएम की इस जॉब की पहली शर्त थी। राज़ी अपने प्रशंसकों के ऐसे चाहत भरे निवेदनों की आदि हो चुकी थी। 

राज़ी की ओर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया ना मिलने पर मनमीत अब अल्फा बिल्डिंग के चक्कर काटने लगा था साढ़े छह बजे से ही वह बिल्डिंग के गेट पर जाकर खड़ा हो जाता पर राज़ी तक वह पहुँच नहीं पा रहा था। कई दिनों तक कोशिश करने के बाद बिल्डिंग के वॉचमैन भानमल को पटाकर उसने राज़ी के बारे में सारी जानकारी हासिल कर ली। वह रामनगर में एक स्टूडियो अपार्टमेंट में अकेली रहती थी। वॉचमैन ने ही बताया था कि, उसके मम्मी पापा का तलाक़ हो चुका था और उसकी मौसी ने उसे पाला पोसा था। अब वह मॉस कम्युनिकेशन की पढ़ाई के साथ-साथ रेडियो पर आरजे की नौकरी करके अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश कर रही थी। 

“बहुते ही भली और सीधी-सादी लड़की है भ‍इया वह। जीवन में बड़े दुख देखे हैं उसने। आप यदि सच में पिरेम करो हो उन से तभी बात आगे बढ़ना। आज कल के छोरों की तरह टैमपास करने वास्ते दोस्ती ना करना,” भावुक होते हुए वॉचमैन ने मनमीत से कहा था। 

“चचा, आप को क्या लगता है, मैं सड़कछाप रोमियो टाईप का लौंडा हूँ? इंजीनरिंग कॉलेज में आख़िरी समैस्टर है मेरा। नौकरी मिलते ही राज़ी जी को अपने घर वालों से मिलवाऊँगा,” गम्भीर हो कर मनमीत ने कहा था। 

“पर बेटा, तुमने तो अभी तक उसे देखा भी नहीं है, ना वो तुम से मिली है, फिर तुम कैसे इतनी आगे की सोच सकते हो।” 

“चचा, वो आवाज़ मेरी आत्मा में समा चुकी है। और आत्मा से जुडे़ रिश्तों को बाहरी पहचानों की ज़रूरत ही नहीं होती। समझे कुछ?” मनमीत के चेहरे पर जो प्रेम का उजास और रूहानीयत का तेज था, उसे देख कर भानमल सोच में पड़ गया था। 

अब मनमीत रोज़ भानमल को एक गुलाब दे जाता राज़ी को देने के लिये। राज़ी ऑफ़िस की बालकनी से छुपकर मनमीत को रोज़ देखती। ऊँचा लंबा गोरा चिट्टा गबरु जवान था मनमीत। वॉचमैन भानमल को राज़ी अपने सगे चाचा से भी बढ़कर मानती थी। उन्होंने राज़ी को मनमीत के विषय में सब कुछ बता दिया था। राज़ी हैरान थी कि यह कैसा विचित्र प्रेमी है जो मात्र उसकी आवाज़ सुनकर उसे दिल दे बैठा है। जब वह सच में उसे रूबरू देखेगा क्या तब भी उसका यह प्रेम यूँ ही बरक़रार पाएगा? आकांक्षाओं और दुविधाओं में घिरी राज़ी अजीब सी कशमकश में फँसी थी। वक़्त उसके साथ क्या खिलवाड़ करने वाला है उसे समझ में नहीं आ रहा था। 

राज़ी डरती थी। उसकी बेतरतीब ज़िन्दगी ने उसके पाँव ज़मीन से इस क़द्र उखाड़ रखे थे कि अब किसी भी नये घात से उबर पाना उसके लिए जीवन भर की मशक़्क़त बन जाएगा यह बात वह भलीभाँति जानती थी। मनमीत के जिस अनोखे प्रेम की परछाइयाँ उसके आगे-पीछे डोलने लगी थीं, जिन उजालों की चमक उसकी आँखें चौधिया देना चाह रही थीं, बिजली के तारों सरीखी जो अनुभूतियाँ उसे भीतर बाहर उद्वेलित कर देने को तत्पर थी, हक़ीक़तों से टकराकर कल को वे सब किसी अँधेरे गर्त में गिर कर राज़ी से ही उसके अपने आँसुओं का हिसाब माँगती फिर रही होगी, इस कटु सच्चाई से भी वह भलीभाँति परिचित थी। वह अपने पैरों की और देखती और बेबसी के आँसू झर झर उस की आँखों से बहने लगते। 

“चाचा आप तो सब जानते हो मेरे बारे में। मनमीत तो बिना मुझे देखे ही अपने मन में प्यार पाल बैठा है। बताइए, मैं कैसे उसका सामना करूँ। मुझे देखते ही उसका जो रिऐक्श्न होगा मैंं वो बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी . . .” 

राज़ी मनमीत के सामने पड़ना नहीं चाहती थी। वह नहीं चाहती थी कि उसकी आवाज़ सुनकर मनमीत ने अपनी कल्पना में उसका जो रूमानी अक़्स बना रखा है वह उसे देखते ही चकनाचूर हो जाये। इसके लिए ज़रूरी था कि राज़ी कभी भी मनमीत के सामने ना पड़े। उसने भानमल चाचा से साफ़ कर दिया था कि वे मनमीत को ज़्यादा शह ना दें, और ना ही उससे कभी फूल लेकर राज़ी तक पहुँचाएँ। राज़ी का मन इस सारे घटना क्रम से इस क़द्र उद्वेलित रहने लगा था कि उसके शो की टीआरपी लगातार गिरने लगी थी। उसकी आवाज़ की खनक और तरन्नुम कहीं खो गया था। उसके बॉस उसे कई बार टोक चुके थे, कई बार डाँट चुके थे और कई बार प्यार से भी पूछ चुके थे कि ऐसी कौन सी समस्या है जो राज़ी को इतना परेशान कर रही है। हर समय खिली रहने वाली चुलबुली राज़ी की ख़ामोशी और अनमनापन ऑफ़िस में सबको खटक रहा था। उधर वॉचमैन भानमल के लाख मना करने के बावजूद मनमीत का रोज़ राज़ी की बिल्डिंग के बाहर आना और फूल देकर जाना बदस्तूर जारी था। 

एक दिन राज़ी को ऑफ़िस से घर ड्रॉप करने वाली ऑफ़िस कैब नहीं आई थी। राज़ी नीचे गेट तक आई और उसने भानमल चाचा से घर जाने के लिए ऑटो रुकवाने के लिए बोला। वह ख़ुद गेट के पास ही पेड़ के नीचे खड़ी हो गई। 

“राज़ी बेटा आ जाओ।”

ऑटो रोककर जैसे ही भानमल ने राज़ी को आवाज़ दी, ऐन उसी समय मनमीत की बाइक वहाँ आकर रुकी। वॉचमैन भानमल की बात उसने सुन ली थी। हुलस कर उसने राज़ी की और देखा। राज़ी उसके सामने खड़ी थी। पल भर को लगा जैसे समय वहीं ठहर गया है। हवा ने तितलियों के पंखों से सारे रंग चुरा कर उसके आसपास बिखेर दिए हैं। छलकता हुआ इत्र फ़ज़ाओं में घुल गया है। वह मुजस्समा साक्षात्‌ उस के सामने खड़ा था जिसकी आवाज़ के तिलिस्म ने मनमीत को प्रेम के उस सोपान पर ला खड़ा किया था जहाँ प्रेम, प्रेम नहीं आराधना बनकर फ़ज़ाओं में केसर सा बिखर जाता है। मनमीत राज़ी को सामने पाकर सन्न सा, जड़वत् सा, रोमांचित सा खड़ा का खड़ा रह गया था। 

मनमीत को वहाँ खड़ा देखकर राज़ी के गुलाबी चेहरे पर एक खिसिआहट सी उभर आई। आँखों में अनकिए अपराध बोध के डोरे तैर गये। लज्जा थी या अपमान—ऐसा कौन सा मनोभाव था जिसने उसके चेहरे का रंग उड़ा दिया था, मनमीत समझ ना सका। पल भर को ठिठकी राज़ी ने स्वयं को सँभाला, और ऑटो की ओर बढ़ चली। 

सनाका खा गया मनमीत। राज़ी के क़दमों में लड़खड़ाहट थी। यकायक अयाचित परिस्थिति में पड़ कर देह को ज़बरदस्ती घसीटते पोलियो ग्रस्त पाँवों में लड़खड़ाहट के साथ-साथ कंपन भी थी। उसके ढीले-ढाले प्लाजो के बीच उभरी कैलिपर की स्टील की रॉड्ज़ हथौड़े की तरह मनमीत के सीने से पार होकर उसे लहूलुहान कर गई। ऑटो के स्टार्ट होते ही मनमीत सचेत हुआ और तुरंत बाइक स्टार्ट करके उसके के पीछे हो लिया। उसने बाइक की रफ़्तार तेज़ की और पल भर में ही बाइक को ऐन ऑटो के सामने लाकर रोक दिया। ऑटो ड्राइवर ने तेज़ी से ब्रेक मारते हुए तेज़ झटके से ऑटो रोका। पीछे बैठी राज़ी उछलकर गिरते-गिरते बची। 

“यह क्या बदतमीज़ी है मनमीत।”

राज़ी चिल्ला कर बोली। 

“मैं क्या बोलूँ। तुम बताओ तुम क्यों छुपती फिर रही थी मुझसे। बताओ? क्या इसलिए कि मैंने तुम्हें देखा तक नहीं था और प्यार कर बैठा?” 

राज़ी की आँखें क्रोध और बेबसी की मिली-जुली भावनाओं में भीग रही थी। 

“कौन सा प्रेम मनमीत? दो दिन मेरी आवाज़ रेडियो पर क्या सुन ली, चल पड़े प्रेम का झंडा उठा कर। तुम जानते क्या हो मेरे बारे में? मैं क्या हूँ, कैसी दिखती हूँ, सोचा है कभी।” 

“अब तुम मुझे फ़िल्मी डायलॉग बोलने के लिए मजबूर कर रही हो, तो सुनो प्रेम भी क्या कभी सोच समझ कर किया जाता है बोलो,” मनमीत ने हौले से हँस कर कहा। 

“बस करो तुम। अब तो देख लिया ना मुझे। चलो, अब जाओ यहाँ से। ये प्यार के, प्रेम के दावे दो दिन में हवा हो जायेंगे जब दुनियाँ वाले तुम पर हँसेंगे मेरी वजह से।” 

“पगली तुमने अभी जाना ही नहीं मुझे, मेरा प्रेम देह का मोहताज कब था। मैंने तुम्हारी आत्मा को वरा था। मुझे तुमसे प्रेम कब हुआ यह तो मैं ख़ुद भी नहीं जानता, पर अब है तो है, तुम चाहे मानो या ना मानो,” मनमीत की आवाज़ थरथरा रही थी। उसने अपना दायाँ हाथ राज़ी की और बढ़ा दिया। राज़ी ने नज़र भर कर मनमीत को देखा। उसे मनमीत की आँखों में एक रूहानी उजास नज़र आया, जिस की छुअन ने राज़ी के मन मस्तिष्क में अलौकिक नूर भर दिया। सारी शंकायें, सारे डर, सारी अनिश्चितता पल भर में तिरोहित हो गई। उसने धीरे से अपना हाथ मनमीत के हाथ में रख दिया। 

 प्रेम का कोई स्वरूप ऐसा भी होता है यह तो किसी ने जाना ही ना था। 

अगले दिन रेडियो आल्फा पर राज़ी की का खनकता स्वर गूँज रहा था . . .

“हेल्लो . . . मैं हूँ आपकी होस्ट और दोस्त राज़ी मा . . . र . . . वा . . . ह।” 

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