क़यामत

प्रीति शर्मा 'असीम' (अंक: 195, दिसंबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

उस रोज़ क़यामत दबे पाँव मेरे घर तक आई थी। 
इंसान का मानता हूँ . . .  
कोई वजूद नहीं। 
उस रब ने साथ मिलकर मेरी हस्ती मिटाई थी। 
 
उस रोज़ क़यामत दबे पाँव मेरे घर तक आई थी। 
शगुन-अपशगुन की, 
कोई बात ना आई थी। 
समझ ही ना पाया, 
किसने नज़र लगाई। 
किसने नज़र चुराई थी। 
 
उस रोज़ क़यामत दबे पाँव मेरे घर तक आई थी। 
ना दुआओं ने असर दिखाया। 
ना ज्योतिषी कोई गिन पाया। 
ना हवन-पूजन काम आया। 
ना मन्नत का कोई धागा क़िस्मत बदल पाया। 
 
उस रोज़ क़यामत दबे पाँव मेरे घर तक आई थी। 
सजदे में जिसके हम थे। 
लगता था . . .  नहीं कोई ग़म थे। 
उसने भी हाथ छोड़ा। 
विश्वास ऐसा तोड़ा। 
ज़िंदगी ने, मार कर फिर से ज़िन्दा छोड़ा। 
 
उस रोज़ क़यामत दबे पाँव मेरे घर तक आई थी। 
मैं समझा नहीं . . .  क्योंकि
अनगिनत विश्वासों . . .  ने आँखों पर 
एक गहरी परत चढ़ाई थी। 
रब है . . . कहाँ!
कहाँ . . . उसकी सुनवाई थी। 

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