प्यार और सत्कार

16-10-2014

प्यार और सत्कार

अनन्त आलोक

 

पिता पु़त्र दोनों एक ही दुकान में काम करते हैं। काम कोई बैठने वाला काम नहीं हाथ से करने वाला काम है, भारी। सुबह से काम करते दोनों थक कर चूर हो चुके हैं। शाम होने को आई फिर भी थकान की परवाह किए बिना लगे हुए है। ग्राहक खड़ा है। काम भी बड़े प्यार और ईमानदारी से करते हैं तभी तो ग्राहक दौड़े चले आते हैं। शाम का समय होने लगा तो निकट ही घर से मालिकिन पूछने आई कि आज डिनर में क्या बनाएँ पिता ने पुत्र की और इशारा करते हुए पूछा, “हाँ बेटा आज क्या खाओगे?” 

“कुछ भी ले आइए पापा, खा लेंगे,” काम करते हुए पुत्र ने जवाब दिया। 

“अच्छा लाओ ये काम मैं कर देता हूँ, तुम स्वयं ही ले आओ जो भी खाना चाहते हो,” पिता ने बैठते हुए कहा। 

“नहीं पापा आप पहले ही बहुत थक चुके हैं आप विश्राम कीजिए, काम निपटाने के बाद मैं सब्ज़ी भी स्वयं ही ले आऊँगा,” पुत्र ने जवाब दिया। 

“अच्छा ठीक है तुम भी बहुत थक चुके हो सब्ज़ी मैं ही ले आता हूँ तुम ठीक से काम निपटाओ,” पिता ने सब्ज़ी के लिए बैग उठाते हुए कहा। पास खड़ा ग्राहक इस घोर कलयुग में पिता पुत्र के बीच इतना प्यार और सत्कार देख द्रवित हो गया। 

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