प्रीत
डॉ. रमन ‘रिद्धि’
‘प्रीत’ जो लगी है तुझसे
इसे अब लगी रहने दो ना,
‘जोगिनी’ तुम्हारी हूँ मैं
मुझे अब बनी रहने दो ना।
कि अनहद, अल्हड़ सी थी मैं
तुमने सँवार दिया,
मैं जान ना सकी
तुमने . . . हाँ तुमने ही (द्वित मेरे)
इस ‘बैरी’ संसार से तार दिया।
‘चातक’ बन बाट मैं देखूँ
उस एक बूँद का रसपान करने दो ना।
‘प्रीत’ जो लगी है तुझसे
इसे अब लगी रहने दो ना,
‘जोगिनी’ तुम्हारी हूँ मैं
मुझे अब बनी रहने दो ना,
कि जब भी पग बढ़ाती हूँ
जाने क्यों . . . तुझ तक पहुँच जाती हूँ
कहना चाहूँ जब भी कुछ
मैं कहाँ अधर खोल पाती हूँ
पढ़ लो तुम इन चक्षुओं को
कि . . . सब कुछ तो इनमें लिख लाती हूँ।
‘राग’ है जीवन में तुम से ही आता
मुझे ‘वैरागी’ बन जाने दो ना।
‘प्रीत’ जो लगी है तुझसे
इसे अब लगी रहने दो ना,
‘जोगिनी’ तुम्हारी हूँ मैं
मुझे अब बनी रहने दो ना।
कि ‘अंजन’ इन दृगों में ठहरता ही नहीं
अश्रुओं के साथ बह जाता है,
हाय! इस हृदय की व्यथा,
सुखों की आस में दुखों को भी सह जाता है।
‘तारिका’ तुम्हारी ही हूँ मैं भी
मुझे इस ‘आकाशगंगा’ में टिमटिमाने दो ना।
‘प्रीत’ जो लगी है तुझसे
इसे अब लगी रहने दो ना,
‘जोगिनी’ तुम्हारी हूँ मैं
मुझे अब बनी रहने दो ना।
1 टिप्पणियाँ
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अच्छी रचना है, संगीतबद्ध करने लायक!