प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभायी थी वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने

01-04-2022

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभायी थी वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने

ब्रह्मानंद राजपूत (अंक: 202, अप्रैल प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

(164वें बलिदान दिवस 20 मार्च 2022 पर विशेष आलेख) 

आज भी भारत की पवित्र भूमि ऐसे वीर-वीरांगनाओं की कहानियों से भरी पड़ी है जिन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर देश के आज़ाद होने तक भिन्न-भिन्न रूप में अपना अहम योगदान दिया। लेकिन भारतीय इतिहासकारों ने हमेशा से उन्हें नज़रअंदाज़ किया है। देश में सरकारों या प्रमुख सामाजिक संगठनों द्वारा स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े हुए लोगों के जो कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं वो सिर्फ़ और सिर्फ़ कुछ प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के होते हैं। लेकिन बहुत से ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं जिनके अहम योगदान को न तो सरकारें याद करती हैं न ही समाज याद करता है। लेकिन उनका योगदान भी देश के अग्रणी श्रेणी में गिने जाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से कम नहीं है। जितना योगदान स्वतंत्रता संग्राम में देश के अग्रणी श्रेणी में गिने जाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का था, उतना ही उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का योगदान है जिनको हमेशा से इतिहासकारों ने अपनी क़लम से वंचित और अछूत रखा है। भारत की पूर्वाग्रही लेखनी ने देश के बहुत से त्यागी, बलिदानियों, शहीदों और देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले वीर-वीरांगनाओं को भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की पुस्तकों में उचित सम्मानपूर्ण स्थान नहीं दिया है। परन्तु आज भी इन वीर-वीरांगनाओं की शौर्यपूर्ण गाथाएँ भारत की पवित्र भूमि पर गूँजती हैं और उनका शौर्यपूर्ण जीवन प्रत्येक भारतीय के जीवन को मार्गदर्शित करता है। 

ऐसी ही 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की एक वीरांगना हैं रानी अवंतीबाई लोधी जिनके योगदान को हमेशा से इतिहासकारों ने कोई अहम स्थान न देकर नाइंसाफ़ी की है। आज देश में बहुत से लोग हैं जो इनके बारे में जानते भी नहीं है। लेकिन इनका योगदान भी 1857 के स्वाधीनता संग्राम की अग्रणी नेता वीरांगना झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई जी से कम नहीं हैं। लेकिन इतिहासकारों की पिछड़ा और दलित विरोधी मानसिकता ने हमेशा से इनके बलिदान और 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को नज़रअंदाज़ किया है। परन्तु वीरांगना अवंतीबाई लोधी आज भी लोककाव्यों की नायिका के रूप में हमें राष्ट्र के निर्माण, शौर्य, बलिदान व देशभक्ति की प्रेरणा प्रदान कर रही हैं। लेकिन हमारे देश की सरकारों ने चाहे केंद्र की जितनी सरकारें रही हैं या राज्यों की जितनी सरकारें रही हैं उनके द्वारा हमेशा से वीरांगना अवंतीबाई लोधी की उपेक्षा होती रही है। वीरांगना अवंतीबाई जितने सम्मान की हक़दार थीं वास्तव में उनको उतना सम्मान नहीं मिला। वीरांगना अवंतीबाई लोधी का अँग्रेज़ी शासन के विरुद्ध संघर्ष एवं बलिदान से सम्बन्धित ऐतिहासिक जानकारी समकालीन सरकारी पत्राचार, काग़ज़ातों व ज़िला गजेटियरों में बिखरी पड़ी हैं। इन ऐतिहासिक समकालीन सरकारी पत्राचार, काग़ज़ातों व ज़िला गजेटियरों का संकलन और ऐतिहासिक विवेचन समय की माँग है। देश की केंद्र सरकार और मध्य प्रदेश सरकार को इस ऐतिहासिक जानकारी और सामग्री का संकलन करना चाहिए और उसकी व्याख्या आज के इतिहासकारों से करानी चाहिए। 

वीरांगना महारानी अवंतीबाई लोधी का जन्म पिछड़े वर्ग के लोधी राजपूत समुदाय में 16 अगस्त 1831 को ग्राम मनकेहणी, ज़िला सिवनी के ज़मींदार राव जुझार सिंह के यहाँ हुआ था। वीरांगना अवंतीबाई लोधी की शिक्षा-दीक्षा मनकेहणी ग्राम में ही हुई। अपने बचपन में ही इस कन्या ने तलवारबाज़ी और घुड़सवारी करना सीख लिया था। लोग इस बाल कन्या की तलवारबाज़ी और घुड़सवारी को देखकर आश्चर्यचकित होते थे। वीरांगना अवंतीबाई बाल्यकाल से ही बड़ी वीर और साहसी थी। जैसे-जैसे वीरांगना अवंतीबाई बड़ी होती गयीं वैसे-वैसे उनकी वीरता के क़िस्से आसपास के क्षेत्र में फैलने लगे। 

पिता जुझार सिंह ने अपनी कन्या अवंतीबाई लोधी का सजातीय लोधी राजपूतों की रामगढ़ रियासत, ज़िला मण्डला के राजकुमार से करने का निश्चय किया। जुझार सिंह की इस साहसी बेटी का रिश्ता रामगढ़ के राजा लक्ष्मण सिंह ने अपने पुत्र राजकुमार राजकुमार विक्रमादित्य सिंह के लिए स्वीकार कर लिया। इसके बाद जुझार सिंह की यह साहसी कन्या रामगढ़ रियासत की कुलवधू बनी। सन् 1850 में रामगढ़ रियासत के राजा और वीरांगना अवंतीबाई लोधी के ससुर लक्ष्मण सिंह की मृत्यु हो गई और राजकुमार विक्रमादित्य सिंह का रामगढ़ रियासत के राजा के रूप में राजतिलक किया गया। लेकिन कुछ सालों बाद राजा विक्रमादित्य सिंह अस्वस्थ्य रहने लगे। उनके दोनों पुत्र अमान सिंह और शेर सिंह अभी छोटे थे, अतः राज्य का सारा भार रानी अवंतीबाई लोधी के कन्धों पर आ गया। वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने वीरांगना झाँसी की रानी की तरह ही अपने पति विक्रमादित्य के अस्वस्थ होने पर ऐसी दशा में राज्य कार्य सँभाल कर अपनी सुयोग्यता का परिचय दिया और अँग्रेज़ों की चूलें हिला कर रख दीं। 

इस समय लॉर्ड डलहौजी भारत में ब्रिटिश राज का गवर्नर जनरल था, लॉर्ड डलहौजी का प्रशासन चलाने का तरीक़ा साम्राज्यवाद से प्रेरित था। उसके काल में राज्य विस्तार का काम अपने चरम पर था। भारत में लॉर्ड डलहौजी की साम्राज्यवादी नीतियों और उसकी राज्य हड़प नीति की वजह से देश की रियासतों में हल्ला मचा हुआ था। लॉर्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति के अन्तर्गत जिस रियासत का कोई स्वाभाविक बालिग उत्तराधिकारी नहीं होता था ब्रिटिश सरकार उसे अपने अधीन कर रियासत को ब्रिटिश साम्राज्य में उसका विलय कर लेती थी। इसके अलावा इस हड़प नीति के अंतर्गत डलहौजी ने यह निर्णय लिया कि जिन भारतीय शासकों ने कंपनी के साथ मित्रता की है अथवा जिन शासकों के राज्य ब्रिटिश सरकार के अधीन है और उन शासकों के यदि कोई पुत्र नहीं है तो वह बिना अँग्रेज़ी हुकूमत कि आज्ञा के किसी को गोद नहीं ले सकता। अपनी राज्य हड़प नीति के तहत डलहौजी कानपुर, झाँसी, नागपुर, सतारा, जैतपुर, सम्बलपुर, उदयपुर, करौली इत्यादि रियासतों को हड़प चुका था। रामगढ़ की इस राजनैतिक स्थिति का पता जब अँग्रेज़ी सरकार को लगा तो उन्होंने रामगढ़ रियासत को ‘कोर्ट ऑफ़ वार्डस’ के अधीन कर लिया और शासन प्रबन्ध के लिए एक तहसीलदार को नियुक्त कर दिया। रामगढ़ के राज परिवार को पेन्शन दे दी गई। इस घटना से रानी वीरांगना अवंतीबाई लोधी काफ़ी दुखी हुई, परन्तु वह अपमान का घूँट पीकर रह गई। रानी उचित अवसर की तलाश करने लगी। मई 1857 में अस्वस्थता के कारण राजा विक्रमादित्य सिंह का स्वर्गवास हो गया। सन्‌ 1857 में जब देश में स्वतंत्रता संग्राम छिड़ा तो क्रान्तिकारियों का सन्देश रामगढ़ भी पहुँचा। रानी तो अँग्रेज़ों से पहले से ही जली-भुनी बैठी थीं क्योंकि उनका राज्य भी झाँसी और अन्य राज्यों की तरह कोर्ट कर लिया गया था और अँग्रेज़ रेजिमेंट उनके समस्त कार्यों पर निगाह रखे हुई थी। रानी ने अपनी ओर से क्रान्ति का सन्देश देने के लिए अपने आसपास के सभी राजाओं और प्रमुख ज़मींदारों को चिट्ठी के साथ काँच की चूड़ियाँ भिजवाईं उस चिट्ठी में लिखा था, “देश की रक्षा करने के लिए या तो कमर कसो या चूड़ी पहनकर घर में बैठो तुम्हें धर्म ईमान की सौगंध जो इस काग़ज़ का सही पता बैरी को दो।” 

सभी देश भक्त राजाओं और ज़मींदारों ने रानी के साहस और शौर्य की बड़ी सराहना की और उनकी योजनानुसार अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया। जगह-जगह गुप्त सभाएँ कर देश में सर्वत्र क्रान्ति की ज्वाला फैला दी। इस बीच कुछ विश्वासघाती लोगों की वजह से रानी के प्रमुख सहयोगी नेताओं को अँग्रेज़ों द्वारा मत्यु-दंड दे दिया गया। रानी इससे काफ़ी दुखी हुईं। रानी ने अँग्रेज़ी शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और रानी ने अपने राज्य से कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स के अधिकारियों को भगा दिया और राज्य एवं क्रान्ति की बागडोर अपने हाथों में ले ली। ऐसे में वीरांगना महारानी अवंतीबाई लोधी मध्य भारत की क्रान्ति की प्रमुख नेता के रूप में उभरी। रानी के विद्रोह की ख़बर जबलपुर के कमिश्नर को दी गई तो वह आगबबूला हो उठा। उसने रानी को आदेश दिया कि वह मण्डला के डिप्टी कलेक्टर से भेट कर ले। अँग्रेज़ पदाधिकारियों से मिलने की बजाय रानी ने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। उसने रामगढ़ के क़िले की मरम्मत करा कर उसे और मज़बूत एवं सुदृढ़ बनवाया। मध्य भारत के विद्रोही नेता रानी के नेतृत्व में एकजुट होने लगे। अँग्रेज़ रानी और मध्य भारत के इस विद्रोह से चिंतित हो उठे। वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने अपने साथियों के सहयोग से हमला बोल कर घुघरी, रामनगर, बिछिया इत्यादि क्षेत्रों से अँग्रेज़ी राज का सफ़ाया कर दिया। इसके पश्चात् रानी ने मण्डला पर आक्रमण करने का निर्णय लिया। इस युद्ध में वारांगना अवंतीबाई लोधी की मज़बूत क्रान्तिकारी सेना और अँग्रेज़ी सेना में ज़ोरदार मुठभेड़ें हुई। इस युद्ध में रानी और मण्डला के डिप्टी कमिशनर वाडिंगटन के बीच सीधा युद्ध हुआ जिसमें वाडिंगटन का घोड़ा बुरी तरह घायल हो गया उसका घोड़ा गिरने ही वाला था तब तक वाडिंगटन घोड़े से कूद गया और वीरांगना अपने घोड़े को तेज़ भगाते हुए उस पर टूट पड़ी। बीच में तलवार लेकर एक सिपाही उसे बचाने के लिए आ कूदा। उसने रानी के वार को रोक लिया अन्यथा वाडिंगटन वहीं समाप्त हो गया होता। मण्डला का डिप्टी कमिशनर वाडिंगटन भयभीत होकर भाग चुका था और मैदान रानी अवंतीबाई लोधी के नाम रहा। इसके बाद मण्डला भी वीरांगना रानी अवंतीबाई लोधी के अधिकार में आ गया और रानी ने कई महीनों तक मंडला पर शासन किया। 

मण्डला का डिप्टी कमिशनर वाडिंगटन लम्बे समय से रानी से अपने अपमान का बदला लेने को आतुर था और वह हर हाल में अपनी पराजय का बदला चुकाना चाहता था। इसके बाद वाडिंगटन ने अपनी सेना को पुनर्गठित कर रामगढ़ के क़िले पर हमला बोल दिया। जिसमें रीवा नरेश की सेना भी अँग्रेज़ों का साथ दे रही थी। रानी अवंतीबाई की सेना अँग्रेज़ों की सेना के मुक़ाबले कमज़ोर थी, लेकिन फिर भी वीर सैनिकों ने साहसी वीरांगना अवंतीबाई लोधी के नेतृत्व में अँग्रेज़ी सेना का जमकर मुक़ाबला किया। लेकिन ब्रिटिश सेना संख्या बल एवं युद्ध सामग्री की तुलना में रानी की सेना से कई गुना बलशाली थी अतः स्थिति को भाँपते हुए रानी ने क़िले के बाहर निकल कर देवहारगढ़ की पहाड़ियों की तरफ़ प्रस्थान किया। रानी के रामगढ़ छोड़ देने के बाद अँग्रेज़ी सेना ने रामगढ़ के क़िले बुरी तरह ध्वस्त कर दिया और ख़ूब लूटपाट की। इसके बाद अँग्रेज़ी सेना रानी का पता लगाती हुई देवहार गढ़ की पहाड़ियों के निकट पहुँची, यहाँ पर रानी ने अपने सैनिकों के साथ पहले से ही मोर्चा जमा रखा था। अँग्रेज़ों ने रानी के पास आत्मसमर्पण का सन्देश भिजवाया, लेकिन रानी ने सन्देश को अस्वीकार करते हुए सन्देश भिजवाया कि लड़ते-लड़ते बेशक मरना पड़े लेकिन अँग्रेज़ों के भार से दबूँगी नहीं। इसके बाद वडिंगटन ने चारों तरफ़ से रानी की सेना पर धावा बोला। कई दिनों तक रानी की सेना और अँग्रेज़ी सेना में युद्ध चलता रहा जिसमें रीवा नरेश की सेना अँग्रेज़ों का पहले से ही साथ दे रही थी। रानी की सेना बेशक थोड़ी सी थी लेकिन युद्ध में अँग्रेज़ी सेना की चूलें हिला के रख दी थी। इस युद्ध में रानी की सेना के कई सैनिक हताहत हुए और रानी को ख़ुद बाएँ हाथ में गोली लगी, और बन्दूक छूटकर गिर गयी। अपने आप को चारों ओर से घिरता देख वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने रानी दुर्गावती का अनुकरण करते हुए अपने अंगरक्षक से तलवार छीनकर स्वयं तलवार भोंक कर देश के लिए बलिदान दे दिया। उन्होंने अपने सीने में तलवार भोंकते वक़्त कहा कि “हमारी दुर्गावती ने जीते जी वैरी के हाथ से अंग न छुए जाने का प्रण लिया था। इसे न भूलना।” उनकी यह बात भी भविष्य के लिए अनुकरणीय बन गयी। वीरांगना अवंतीबाई का अनुकरण करते हुए उनकी दासी ने भी तलवार भोंक कर 20 मार्च 1858 को वीरांगना अवंतीबाई लोधी के साथ अपना बलिदान दे दिया और भारत के इतिहास में इस वीरांगना अवंतीबाई ने सुनहरे अक्षरों में अपना नाम लिख दिया। 

जब रानी वीरांगना अवंतीबाई अपनी मृत्युशैया पर थीं तो इस वीरांगना ने अँग्रेज़ अफ़सर को अपना बयान देते हुए कहा कि “ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को मैंने ही विद्रोह के लिए उकसाया, भड़काया था उनकी प्रजा बिलकुल निर्दोष है।” ऐसा कर वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने हज़ारों लोगों को फाँसी और अँग्रेज़ों के अमानवीय व्यवहार से बचा लिया। मरते-मरते ऐसा कर वीरांगना अवंतीबाई लोधी ने अपनी वीरता की एक और मिसाल पेश की। निःसंदेह वीरांगना अवंतीबाई का व्यक्तिगत जीवन जितना पवित्र, संघर्षशील तथा निष्कलंक था, उनकी मृत्यु (बलिदान) भी उतनी ही वीरोचित थी। धन्य है वह वीरांगना जिसने एक अद्वितीय उदहारण प्रस्तुत कर 1857 के भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में 20 मार्च 1858 को अपने प्राणों की आहुति दे दी। ऐसी वीरांगना का देश की सभी नारियों और पुरुषों को अनुकरण करना चाहिए और उनसे सीख लेकर नारियों को विपरीत परिस्थितियों में जज़्बे के साथ खड़ा रहना चाहिए और ज़रूरत पड़े तो अपनी आत्मरक्षा अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए वीरांगना का रूप भी धारण करना चाहिए। 20 मार्च 2022 को ऐसी आर्य वीरांगना के 164वें बलिदान दिवस पर उनको शत्-शत् नमन् और श्रद्धांजलि। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें