फिर कैसे कह दूँ तुम हो पाई हो दूर
अरविन्द यादवजब भी देखता हूँ आकाश में टहलता हुआ चाँद
टहलने लगता है तुम्हारा चाँद सा चेहरा
यकायक हृदयाकाश में
जब भी देखता हूँ आँगन में खिलखिलाता हुआ गुलाब
प्रतिबिंबित होने लगते हैं तुम्हारे होंठ
कोमल पंखुड़ियों में
जब भी देखता हूँ आकाश में उड़ते हुए काले-काले बादल
उड़ने लगती हैं तुम्हारी बेतरतीब फैली ज़ुल्फ़ें
सहसा आँखों में
जब भी देखता हूँ खिली हुई मदमस्त लहराती सरसों
कौंध उठती है तुम्हारी बलखाती अल्हड़ देह
सिमटी दुपट्टे में
जब भी बसन्ती हवा का झोंका छूकर निकलता है मुझे
अनायास हो जाता हूँ सराबोर तुम्हारी
देह की भीनी गन्ध में
जब भी सुनता हूँ दूर पेड़ों से आती कोयल की मधुर आवाज़
गूँजने लगती है तुम्हारी वाणी की मिठास
अचानक कानों में
जब भी देखता हूँ आकाश में डूबता हुआ सूरज
डूब उठता है हृदय, धीरे-धीरे यादों के
उन्मुक्त अम्बर में
फिर कैसे कह दूँ कि तुम हो पाई हो दूर
हमसे, हमारी यादों से
कभी भी पल भर को ।