पर्ण विलगन
डॉ. अश्वनी कुमार वर्मा“मैं” पत्ती टूटी हुई!
ज़मीन पर गिरी हुई,
विरह का दुःख झेलती,
और मिट्टी में समाने का,
इंतज़ार बेसब्र करती हुई,
“मैं” पत्ती टूटी हुई!
कभी पितृतुल्य वृक्ष,
कभी मातृतुल्य धरती,
की ओर देखती हुई,
कभी विलगन का दुःख,
कभी धरती से मिलन का सुख,
हृदय भर महसूस करती हुई,
“मैं” पत्ती टूटी हुई!
वो मेरा शाखा से निकलना,
शिशु का जैसे पैदा होना,
हरे रंग में लिपटी हुई,
कुछ शूल सी, कुछ पंख सी,
मासूम सी, कुछ ज़िद्दी सी,
“मैं” पत्ती टूटी हुई!
वो मेरा प्यारा सा बचपन,
मैं थी एक कोंपल सी,
बारिश की बूँदों में,
कुछ खिलखिलाती सी,
और कुछ इठलाती सी,
खेलती और लहलहाती,
“मैं” पत्ती टूटी हुई!
बया को आसरा देती हुई,
उस भँवरे से घंटों,
बातें करती हुई,
उसके गुनगुनाने का,
आनंद लेती हुई,
उन लम्हों को याद करती हुई,
आज फिर से रो पड़ी,
“मैं” पत्ती टूटी हुई!
उम्र गुज़रते हुए देखती हुई,
मैं रंग बदलती हुई,
हरे से नारंगी,
नारंगी से पीली,
और फिर पीली पड़ती हुई,
“मैं” पत्ती टूटी हुई!
अतीत की ओर झाँकती हुई,
पिछले बसन्त को सोचती हुई,
याद कर-कर टूटती हुई,
इस धरती पर पड़ी हुई,
और इसी में समा जाने का,
इंतज़ार बेसब्र करती हुई,
“मैं” पत्ती टूटी हुई!
पर, मैं फिर जन्म लूँगी,
मैं फिर लहलहाऊँगी,
मैं, ना हारने वाली,
मै, ना रुकने वाली,
“मैं” पत्ती टूटी हुई!