पाँचवीं दीवार
डॉ. हंसा दीपराजनीति की सभा में आज समता सुमन जी का पहला दिन था। कुंकुम-गुलाल उड़ाते हुए भारी-भरकम फूलों का हार पहनाकर उन्हें अपनी कुरसी पर विराजित किया गया था। बड़ा-सा सजा-सजाया मंच था और मंच के सामने थे असंख्य लोग। इसके अलावा क्या हो रहा था कुछ समझ में नहीं आ रहा था। भीड़ नियंत्रण में नहीं थी। पार्टी अध्यक्ष उनका परिचय दे रहे थे। हालाँकि परिचय की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि सब जानते थे समता जी को लेकिन औपचारिकता पूरी करनी थी। उनके गुणगान तो बखानने ही थे साथ ही अपने वाक-कौशल का परिचय देना था।
परिचय देते-देते, माइक समताजी को पकड़ाते-पकड़ाते अपने मन में हो रही उथल-पुथल को ख़ुशी का रूप देते वे माइक छोड़ नहीं पा रहे थे। उनके परिचय के दो शब्द आकार-प्रकार में बहुत बड़े थे, चलते जा रहे थे अपनी गति से। कुछ लोग सुन रहे थे, बहुत सारे नहीं सुन रहे थे मगर वे बोल रहे थे। अपना कहा कम से कम अपने कानों को तो संतुष्टि दे ही देता है। लग रहा था मानो माइक नहीं उसमें कोई चुंबक लगा हो जो लाख प्रयास करने के बाद भी दूसरे के हाथों में जाने से कतरा रहा हो।
जगह-जगह नुमाइंदे खड़े किए गए थे लोगों को ख़ामोश करने के लिये। लोग बातों में मशग़ूल थे, अपनी-अपनी बातों में। यहाँ क्यों आए थे इसका कोई ख़ास मक़सद नहीं था बस आना था सो आ गए थे, शायद बात करने के लिये ही आए थे। मंच पर वे कह रहे थे जो उन्हें कहना था, लोग सुन रहे थे जो उन्हें सुनना था। मंच पर कुर्सियों में जमे-बैठे लोग भी एक दूसरे से उलझ रहे थे, आगे की रणनीति बना रहे थे। सबके माथे की शिकन एक अलग अंदाज़ में उभर कर बग़ैर कहे भी बहुत कुछ कह रही थी। सिक्योरिटी वाले सुन रहे थे या चौकन्ने होकर दूर-दूर तक नज़र डाल रहे थे, उनके सपाट चेहरों से कुछ पता नहीं लग पा रहा था। कोई अपनी बाँह खुजलाने के लिये भी हाथ खड़े करता तो उन्हें लगता कि नेता जी को शूट करने के लिये हाथ उठे हों, तुरंत आगे आकर वे बचाव के लिये सतर्क हो जाते।
बाक़ी सब भीड़ का हिस्सा थे। भीड़ का ही अधिक महत्व था, किसी नेता के भाषण का नहीं। भीड़ ही उस नेता की लोकप्रियता का पैमाना थी। जनता थी, पुलिस थी, कार्यकर्ता थे, सब कुछ तो था पर सब कुछ अव्यवस्थित था। सब्ज़ी मंडी में भी बेहतर अनुशासन होता है इतना भाजी-पाला बिकने के बावजूद सड़े-गले सब्ज़ियों के टुकड़े एक और कोने में पड़े रहते हैं। यहाँ तो जो बिक रहा था वह आदमी था, कहीं वोटों के लिये तो कहीं चमचों के लिये। वह अपनी ताज़गी को ज़ाहिर तो कर रहा था पर शायद ऊपर-ऊपर से, अंदर से ख़ुद ही इससे अलग होकर कोने में पड़े रहना चाहता था।
समता जी पहली बार आयी थीं इस तरह की सभा में भाषण देने, पहली बार चुनावी जंग में थीं। उनके लिये सब कुछ नया-नया था। यह अव्यवस्था, यह बेतरतीब भीड़, यह शोर और यह उपेक्षा लेकिन करतीं क्या अपनी ओर से बचने के प्रयास तो किए थे पर रिटायरमेंट की तलवार से डर भी रही थीं। इसलिए अच्छी-ख़ासी मान-मनुहार के बाद उन्होंने इस पार्टी का सदस्य बनना स्वीकार कर लिया था। इलाक़े में रौबदार प्राचार्य के नाम से जानी जाती थीं। उनके स्कूल से निकले कई बच्चे आज भी उनका लोहा मानते थे। उनके इस कड़े अनुशासित और सख़्त शैक्षणिक वातावरण में अपनी नींव को मज़बूत करके उनमें से कई ने अपने आगे के रास्तों को आसान किया था। ऊँचे ओहदों पर काम करते हुए भी समता मैम का चेहरा भूल नहीं पाए थे। उनके शानदार व्यक्तित्व, प्रतिभा और रुतबे को देखकर उनसे संपर्क किया गया था पार्टी की डूबती नौका को किनारे लगाने के लिये।
“देखिए, देश को ज़रूरत है आप जैसे प्रतिभावान लोगों की। आप स्कूल में हैं, ठीक हैं, कल रिटायर हो जाएँगी आगे का क्या। कुएँ के मेंढक को बाहर तो निकलने दीजिए।”
“समता जी, आपका खरा व्यक्तित्व तो बहता पानी है सबको अपने में मिलाता। आप हमारी पार्टी से हाथ मिला लीजिए, बहते पानी का लाभ उठाने दीजिए देश की जनता को, देश की ज़मीन को।”
“आपके आने से हमारे विरोधी मुँह की खाएँगे, जनता का विश्वास हम पर बढ़ेगा।”
“हमारे कई देशवासियों को रास्ता मिलेगा देश की सेवा का, देश के विकास को गति मिलेगी।”
“फ़िलहाल चंद बच्चों के दिलों में रहती हैं आप। हम मौक़ा दे रहे हैं देश के लोगों के दिलों में रहने का।”
समता जी भी जानती-समझती थीं इस बात को, वक़्त की गति किसे रोक पायी है भला। यह सच था कि वे सोच-सोच कर परेशान हो जाती थीं कि आख़िर क्या होगा जब वे काम पर नहीं जा पाएँगी। अपनी चिंता तो थी ही साथ ही स्कूल की चिन्ता भी थी कि उतनी मेहनत और कोई कर पाएगा या नहीं स्कूल के लिये। उस रात उन्होंने बहुत सोचा था। इतनी व्यस्तता के बाद कल से वे घर पर रहेंगी। कैसे समय कटेगा, स्कूल की चिंता होगी, छात्रों की चिंता होगी, लेकिन हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के अलावा कुछ नहीं कर पाएँगी। इन्हीं उलझनों के बीच राजनीति का प्रस्ताव आया तो एक और रास्ता सूझा स्वयं की क़ाबिलियत को सिद्ध करने का। स्वयं को व्यस्त रखने के लिये राजनीति में जाना कहीं से कहीं तक बुरा नहीं दिखा। अपनी निर्मलता को सिद्ध करने के लिये गंदे पानी में डुबकी लगाना हो तो ख़ुद को तो गंदा नहीं होने देंगी वे यह बात तो पक्की थी। इतनी कमज़ोर तो नहीं हैं वे कि इस चुनौती को स्वीकार न करे। उन्हें आगे आना ही चाहिए। अपनी चुनौतियों से लड़ने की क्षमता को देश सेवा के लिये लगाना ही चाहिए।
ज़रूरत भी थी इस इलाक़े को एक सशक्त नेतृत्व की क्योंकि लगातार यह पार्टी अपनी संसदीय सीट को बचाने में लगी हुई थी। हर बार विरोधी ख़ेमे के उम्मीदवार कुछ ऐसी प्रसिद्धि लेकर मैदान में उतरते थे कि लोग बस नाम सुनकर ही उन्हें वोट दे देते थे। यही वज़ह थी कि इस बार इन्होंने भी इलाक़े के चहेते चेहरे को ला कर अपनी जीत का पलड़ा भारी करने का विचार पक्का कर लिया था। कुछ इस तरह से कि समताजी के ‘हाँ’ कहने भर की देर थी और पार्टी की जीत तय थी। इस प्रॉमिसरी नोट को भुनाने में लगे थे पार्टी के सब लोग। बड़े-बड़े होर्डिंग बन रहे थे। बड़े-बड़े लाउडस्पीकर लग रहे थे।
फ़ैसला उन्होंने ले लिया। कल से वे एक अलग मोर्चे पर काम शुरू करेंगी। हालाँकि निजी स्कूलों से अभी भी प्राचार्य पद के प्रस्ताव थे लेकिन वे भी एक मौक़ा देना चाहती थीं अपने इस नए क्षितिज को, इस पार या उस पार। अब अपने पंखों को एक अलग दिशा में और अधिक फैलाने का प्रयास बुरा नहीं था। वैसे भी रिटायरमेंट काग़ज़ पर छपा था दिमाग़ में नहीं। दिमाग़ कहाँ तैयार था इन फुरसती लम्हों के लिये। दिमाग़ को तो काम चाहिए, किसी शैतान का घर नहीं। रिटायर होने के दूसरे ही दिन वे पार्टी के मंच पर थीं।
आख़िर मंच पर दिये जा रहे परिचय का सिलसिला ख़त्म हुआ तो उन्हें माइक पकड़ाया गया। वे बोल रही थीं। अपना दायाँ हाथ खड़ा कर रही थीं ठीक वैसे ही जैसे बच्चों को चुप रहने का एक संकेत देती थीं और एक मौन छा जाता था लेकिन यहाँ न कोई देख रहा था, न कोई सुन रहा था। शोरगुल में दबते उनके शब्द मुश्किल से उनके ख़ुद के कानों में ही पड़ रह थे। जैसे-जैसे उनका भाषण आगे बढ़ रहा था वैसे-वैसे उनका जोश ठंडा हो रहा था।
यह स्कूल का प्रांगण नहीं था तो क्या हुआ लोग सुनने के लिये तो आए हैं। आज वे क्या कह रही हैं यही नहीं सुन सकते तो आगे क्या होगा। उनका बस चलता तो एक-एक को ऐसी आँखें दिखातीं कि फिर कभी हिम्मत नहीं कर पाते उन्हें न सुनने की। वे आगबबूला हो रही थीं। लेकिन किस पर, ख़ुद पर या उन लोगों पर जिनकी कोई ग़लती नहीं थी। उन्हें तो सुनने के लिये बुलाया ही नहीं गया था।
सभा ख़त्म हुई। धूल उड़ाते, परचे उछालते लोग इस तरह घर जा रहे थे जैसे किसी क़ैद से उन्हें मुक्ति मिली हो। टीवी और समाचार के एंकर समताजी के पीछे थे, साक्षात्कार लेना चाहते थे। लाइव रिर्पोर्टिंग हो रही थी – “आप देख रहे हैं कि जनता का पूरा सपोर्ट है नयी उम्मीदवार समता जी के साथ।”
“इस चुनाव में नये चेहरों को लाने की होड़ में पार्टी की बड़ी जीत हुई है।”
“मैम आप अपने स्कूली जीवन से राजनीति के जीवन में क़दम रखने को एक नया मोड़ दे रही हैं। इसके लिये आपकी ख़ास योजनाएँ क्या हैं, कृपया जनता को बताइए।”
वे मौन थीं। उनकी इस चुप्पी को साथ वाले अनुभवी लोगों ने समझा और कहा – “समता जी इस समय थकी हुई हैं, हम आपके लिये कोई और समय लेकर आपको सूचित करेंगे।”
पत्रकारों की भीड़ अपने कई क़यास लगाते हुए भीड़ के फोटो लेने में व्यस्त हो गयी।
“समता जी आप ठीक तो हैं?” उनका तमतमाया चेहरा आसपास के नेताओं की नज़रों से छुप नहीं पाया।
“जी नहीं, मैं ठीक नहीं हूँ बिल्कुल ठीक नहीं हूँ। यह सब क्या था, कोई किसी को सुन नहीं रहा था। मुझे इतना उपेक्षित पहले कभी महसूस नहीं हुआ…”
“जी ऐसा आपको लगता है लेकिन जो भी आपने कहा है वह हर एक शब्द कल टीवी पर समाचारों में होगा तब पूरा देश सुनेगा, समाचार पत्रों में छपेगा तब पूरा देश पढ़ेगा।”
वे कुछ नहीं कह पायीं वे स्वयं समाचार पत्रों और टीवी के समाचारों को पढ़कर अपना दिन शुरू करती थीं। मन में गहरी उथल-पुथल थी, दुविधा थी।
मंच से उतरते हुए वे हाथों का सहारा दे रहे थे समता जी को। आगे के अपने रास्ते को समता मैम ने निहारा, एक और सत्ता थी दूसरी ओर सुकून। क्या वे इस नयी राह को पकड़ पाएँगी। आज की तरह चिल्ला-चिल्ला का भाषण कभी नहीं दिया था। अपनी सारी ताक़त लगा दी थी शब्दों के बाहर आने तक। उन्हें बिल्कुल आदत नहीं थी इतने शोर में भाषण देने की। वे तो ‘पिन ड्राप साइलेंस’ में बोलती थीं। बच्चों के हुजूम में पहुँचकर, बहुत शोरगुल के बीच में वे जैसे ही माइक पर आकर अपनी दाहिना हाथ खड़ा करतीं सब चुप हो जाते थे। मानो चुप रहने का मार्शल लॉ लग गया हो। एक उदाहरण था उनका स्कूल अपनी सुव्यवस्थित कार्य प्रणाली के लिये, अजूबा था अनुशासन का। बच्चों के स्नेह और सम्मान के बीच उनका स्वयं का जीवन भी अनुशासित था। देखने-सुनने वालों के मन में बसती थीं समता मैम। एक आदर्श थीं अपने इलाक़े में, अपने स्कूल के बच्चों के बीच और अपने सहकर्मियों के बीच। वे सबके होठों पर एक मुस्कान बन कर उभरती थीं।
ग़ुस्सा, तनाव और थकान समता जी के चेहरे से ऐसे झलक रहे थे कि कोई भी सामने मिला तो बस भस्म ही हो जाएगा। आज हमेशा से अधिक तैयारी की थी उन्होंने, इतनी ज़ोर से बोला था कि बस उन्हीं की आवाज़ सुनायी दे फिर भी सुनने वालों के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी थी।
लेकिन इस आक्रोश के चलते भी सामने खड़ा दोराहा पूछ रहा था कुछ, दो रास्ते थे एक जिस पर चलकर अभी आयी थीं, राजनीति का रास्ता जहाँ पर अपमान और तिरस्कार था, छिछालेदारी से धज्जियाँ भी बिखर सकती थीं। वहीं दूसरा रास्ता निजी स्कूलों की ओर जाता था, सम्मान का था, बच्चों के ज़ेहन में सदा के लिये बस जाने का था। एक फूल सेज पर सजना था जिसकी नियति थी मसल दिया जाना और दूसरे को डाल पर रहना था। वहीं झरकर मिट्टी में मिल नए पौधे के रूप में अंकुरित होना था।
उनके पैर मुड़े स्कूल की ओर, वहीं ख़ुश हैं वे, उन्हें बाहर आने की ज़रूरत नहीं। ठीक हैं वे अपने कुएँ की चारदीवारी में। लेकिन फिर भी एक सवाल उठा मन में कि क्या वे अपने कुएँ से बाहर की दुनिया से डर रही हैं, क्या उस सभा में ऐसे ख़ौफ़नाक चेहरे थे जो उन्हें भयभीत कर गए। इतनी डरपोक तो नहीं हैं वे, वहाँ तो सीधे-सादे लोग थे, देश की जनता थी जो गुमराह थी। उस अनुशासनहीन, असंयोजित, उच्छृंखल सभा में दो-चार को भी सबक़ सिखा पायीं तो उनका अपना जीवन सार्थक हो जाएगा। इस कीचड़ से एक प्रतिशत भी कालिमा हटा पायीं तो यह हल्का सा प्रयास भी कामगार होगा देश के लिये, देश के लोगों के लिये। यह एक कठिन चुनौती तो होगी लेकिन वे सक्षम हैं इसका सामने करने में।
और अपने बेतरतीब लटकते पल्लू को खोंस कर कमर कस ली समता जी ने।
अनसुने-अनकहे वे शब्द उस रास्ते पर ले जा रहे थे जो पार्टी के कार्यालय को जाता है जहाँ की चारदीवारों में क़ैद जनता का भविष्य था जिसे मज़बूत पाँचवीं दीवार की ज़रूरत थी।