ओड़िशा के गाँधी उत्कलमणि गोपबंधु 

01-06-2021

ओड़िशा के गाँधी उत्कलमणि गोपबंधु 

निहारिका मिश्र (अंक: 182, जून प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

पृष्ठभूमि

भारत के पूर्व-उपकुल में आधुनिक ओड़िशा विद्यमान है। भारतीय इतिहास के आरंभिक काल से कलिंग-भूमि एक बहुविदित सांस्कृतिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित है। भारत के अन्य राज्यों की तुलना में ओड़िशा अँग्रेज़-शासन के अधीनस्थ बहुत बाद में हुआ। यही कारण है कि शिक्षा का आधुनिक रूप भी ओड़िशा तक बहुत बाद में पहुँचा। सरकारी प्रयासों से सन् 1835 के नवम्बर माह में ‘पुरी' ज़िले में पहली बार अँग्रेज़ी विद्यालय स्थापित हुआ,जोकि हिंदु धर्मपीठ (जगन्नाथ धाम) होने के कारण जल्द ही बंद भी हो गया था। बंगाल एवं ओड़िशा भाषाई अलगाव रखते हुए भी एक ही औपनिवेशिक राज्य थे। अतः बंगाल नवजागरण का सीधा प्रभाव अन्य राज्यों की तुलना में पहले ओड़िशा पर ही पड़ा। बंगाल ब्रह्मसमाज की एक शाखा ‘उत्कालिय ब्रह्मसमाज’ के नाम से ‘बालेश्वर' में स्थापित हुई। जिसके माध्यम से पाश्चात्य शिक्षित उत्कलिय अपनी देश,जाति, धर्म, संस्कृति के उत्तरोत्तर उन्नति का विकास कार्य करने लगे। आगे चल कर ओड़िया भाषा अँग्रेज़ों व बंगाल के कुचक्रान्त की शिकार बनी। उनके द्वारा ओड़िया को बंगला से विकसित प्रमाणित कर मुलोत्पाटन करने की पुरज़ोर कोशिश हुई। इस कुत्सित चक्रान्त की परिणति यह हुई कि सरकार द्वारा 'ओड़िया भाषा द्वारा शिक्षादान' प्रत्याहार का आदेश पारित कर दिया गया।  इसके विरोध में ओड़िशा के शिक्षित वर्गों ने भी क्षुब्ध होकर आंदोलन छेड़ दिया। इस आंदोलन के पुरोधा बने उत्कल के वरपुत्र फ़क़ीर मोहन सेनापति। अंततः सरकार को भी सन्‌ 1870 में अपना आदेश प्रत्याहार करने के लिए बाध्य होना पड़ा। 

गोपबंधु दास का सम्यक परिचय

इन्हीं घटनाओं के बीच 10 अक्टूबर सन्‌ 1877 को पुरी ज़िला साक्षीगोपाल से पाँच मील दूर सुआंडो ग्राम में  गोपबंधु दास का जन्म हुआ। उनके पिता का नाम दैतरी दास एवं माता का नाम स्वर्णमयी दास था। वे वृति से वकील थे। महात्मा गाँधी जी के असहयोग आंदोलन में जेल जाने वाले पहले ओड़िया युवक गोपाबंधु जी ही थे। कारामुक्त होने के उपरांत ओड़िशा के प्रति निष्ठा व त्याग के लिए 'उत्कल प्रादेशिक सम्मिलनी' के सभापति बंगाल के प्रफुल्लचंद्र रॉय ने गोपाबंधु को 'उत्कलमणि' उपाधि से सम्मानित किया। उनके बाल्यसाथी उन्हें 'दासे' कह कर संबोधित किया करते थे। आधुनिक शिक्षित ओड़िशा के निर्माण के इतिहास पृष्ठ में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। सत्यवादी वनविद्यालय के प्रतिष्ठापक व शिक्षाकर्ता के लिए ओड़िशावासियों ने उनको 'पंडित' गोपबंधु दास नाम से सम्मानित किया है। राजनीति से अधिक वे देशसेवा के लिए समर्पित थे। सन्‌ 1925 में ओड़िशा के बाढ़ प्रभावित अंचलों में तीन साल कठिन परिश्रम के कारण वे टाइफॉयड बीमारी के शिकार हुए एवं उससे लड़ते हुए 17 जून 1928 को प्राणत्याग दिए। गोपबंधु साहित्य अनुरागी थे, काव्य-प्रबंध-आलोचना-पत्रकारिता आदि विधाओं में वे साहित्य लेखन करते थे- 'धर्मपद', 'बंदिर आत्मकथा', 'कारा कविता', 'अवकाश चिंता' आदि उनके उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।

'ओड़िशा शिक्षा सम्मिलनी' में गोपबंधु दास का उद्बोधन

16 जून 1912 में (पुरी ज़िला) साक्षीगोपाल में अनुष्ठित 'ओड़िशा शिक्षा सम्मिलनी' में वे सभापति के रूप में निमंत्रित थे। वहाँ पर दिया गया उनका व्याख्यान 'शिक्षा सम्मिलनी' नाम से ही प्रकाशित है। उनके विचार को इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है – शिक्षा जातीय चरित्र निर्माण की भित्ति भूमि है जिसके बिना जातीय जीवन पवित्र, शक्तिशाली व क्रियाशील नहीं बन सकता है। जातीय चरित्र का महत्व और जातीय शक्ति का विकास तभी संभव है जब लोगों को जाति-धर्म-संप्रदाय निरपेक्ष में शिक्षित-संगठित और एकत्रित किया जाएगा। यह महत कार्य केवल शिक्षा के साधन से ही सम्पादित किया जा सकता है।  शिक्षा  जातीयता है। यह वह साध्य है जो नागरिक के प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च शिक्षा, लोक शिक्षा, साधारण शिक्षा, नीति शिक्षा, स्त्री शिक्षा, वैषयिक शिक्षा सभी स्तरों पर उन्नत कर सामर्थ्यवान बनाता है। दासे की मौलिक, उदार, दूरगामी शिक्षा संबंधी मान्यताएँ उनके भाषणों में स्पष्ट परिकल्पित हैं। वे अँग्रेज़ी शिक्षा के साथ प्राचीन पारंपरिक नैतिक शिक्षा के समायोजन के पक्षधर थे।

शिक्षा ग्रहण में मातृभाषा को महत्व

शिक्षा के भाषा संबंधी विचारों में दासे ने मातृभाषा की पैरवी की। परवर्ती कालों में "शिक्षार बाहन"(शिक्षा का वाहक) निबंध के द्वारा जर्मन, फ्रांस, अमेरिका और जापान की उदाहरणों की पुष्टि करते हुए शिक्षा के सकल स्तरों में मातृभाषा के उपयोग का दृढ़ समर्थन करते हैं। उनके मतानुसार विदेशी भाषा जातीय शैक्षिक अबलम्ब कभी बन ही नहीं सकती है। विदेशी भाषा जातीय प्राण में भावों को संचारित कर समग्र देश की चित्तवृत्ति को आंदोलित कर पाने में असमर्थ है। चूँकि जातीय शिक्षा का प्रधान उपादान ही मातृभाषा है। यह स्थूल प्रादेशिकता को प्रतिनिधित्व नहीं करती बल्कि ईश्वरकृपा और  वैश्विक मानवधर्म से इसका सरोकार है। मनुष्य की मनोदृष्टि का विकास और उसकी अवबोध क्षमता का परितोषण केवल प्रादेशिक भाषा के जरिए ही सरल व स्वछंद हो सकती है।

इन अवसरों पर दासे ने सभी भारतीय भाषा के लिए संस्कृत की मौलिक देवनागरी लिपि के प्रचलन की सिफारिश की है।

ओड़िशा में शैक्षिक परिस्थितिओं का विश्लेषण

 गोपबंधु द्वारा समायोजित शिक्षा संबंधी वैचारिकी एक ही समय में आदर्शोन्मुखी भी है और आधुनिक भी। शिक्षा की उपयोगिता, व्यापकता तथा वैचित्र्य संबंधी उपादानों की महत्ता उनकी आलोचनाओं में स्पष्टीकृत हैं। शिक्षा का उद्देश्य, प्रणाली व परिणति का प्रांजल विश्लेषण से उनकी आलोचनाएँ अत्यंत मूल्यवान बन पड़ी हैं। 'प्राथमिक शिक्षा', 'लोक शिक्षा', 'स्त्री शिक्षा', 'जातीय शिक्षा', 'संस्कृत शिक्षा', 'विश्वविद्यालय शिक्षा' आदि शीर्षकों से उनके प्रसंगों का आलोचनात्मक विवेचन भी सत्यवादी पत्रिका में प्रकाशित हैं। इसके साथ ही 'शिक्षा क्षेत्र में विविध समस्या', 'शिक्षा के साथ प्रशासन का सम्बन्ध', 'शिक्षा के भाषाई माध्यम', 'शिक्षा में सेवाकर्म' आदि प्रसंगों का मौलिक विश्लेषण भी उन्होंने किया है। दरिद्रता, जातीय अकिंचनता,अनुत्साहित स्वदेश-प्रीति आदि गोपाबंधु द्वारा  शिक्षा की दुर्बलताओं के रूप में विवेचित है।

 शिक्षानीति का मूल आदर्श-गुरुकुल शिक्षा

 (सत्यवादी वंविद्यालय)

 तत्कालीन शिक्षा पद्धति से बढ़ता असंतोष के निराकरण के लिए बौद्धिक जागृति एवं नूतन जातीय चेतना की आवश्यकता अनुभूत होने लग गई थी। जातीय शिक्षा के प्रति आग्रह एवं बलिष्ठ जाति के स्वरूप निर्माण हेतु संगठन का संकल्प अतीत की प्रेरणा के साथ वर्तमान के सदुपयोग में निहित होना स्वाभाविक था। बंगाल के गुरुदास बनर्जी, रवीन्द्र नाथ ठाकुर, सतीश चंद्र मुखर्जी आदि विद्वानों का  दूसरे तरफ़ विदेशियों में एनिवेशान्त, भग्नि निवेदिता का नाम उल्लेखनीय है। कलकत्ता विश्वविद्यालय में पुरस्कार वितरण के अवसर पर लॉर्ड हॉर्डिंज ने गुरुकुल शिक्षा माध्यम की प्रशंसा करते हुए कहा था कि शिक्षा के क्षेत्र में सरलता, संयमता, ब्रह्मचर्य, निष्ठा आदि तत्व चरित्र निर्माण की कसौटी हैं।

दासे की गुरुकुल शिक्षा की परिकल्पना कुछ प्रमुख घटनाओं से प्रेरित हैं।

  • 1910 में आर्य समाजी प्रचारक काहानचंद्र वर्मा द्वारा गुरुकुल शिक्षा की उपयोगिता के ऊपर प्रभावी भाषण।

  • लाहौर में प्रतिष्ठित एङ्गलो वैदिक कॉलेज, जलंधर का कन्या महाविद्यालय, मुंसिराम द्वारा स्थापित गुरुकुल अनुष्ठान, हरिद्वार के कांडी में स्थित गुरुकुल आश्रम आदि दृष्टान्त दासे की शैक्षिक आश्रम की उपयोगिता के प्रति ध्यानाकर्षण करने में सफल रहे थे।

  • महाराष्ट्र का दक्षिण भारतीय शिक्षाश्रम, बंगाल की जातीय शिक्षा समिति तथा अन्य प्रदेशों में प्राथमिक शिक्षा समिति आदि के क्रियाकलाप व उद्यम से भी वे उद्बुद्ध थे।

  • गोपालकृष्ण गोखले की शिक्षा के प्रति निष्ठा, बरोदा का शिक्षा क्षेत्र में उन्नति से भी दासे अत्यंत प्रभावित थे।

तपस्या, सरल जीवन से संचित समृद्ध शिक्षा के प्रति आग्रह पर गोपबंधु का  पूर्ण विश्वास था। उनका मानना था कि शिक्षा का प्रकृत लक्ष्य ज्ञान आहरण के साथ-साथ मनुष्यता अर्जन भी है। इन्हीं आदर्शों को समेट कर दासे ने सत्यवादी वनविद्यालय की प्रतिष्ठा की थी। सुदूर ग्राम के शांत-स्निग्ध परिवेश में उचित निष्ठा व सत्यता को उपालंभ बना कर, धर्मज्ञान मंडलियों के सानिध्य में ज्ञानांन्वेषण एवं तत्वानुसन्धान के माध्यम से व्यक्तित्व का विकास और चरित्र का समुन्नत निर्माण हेतु अनुष्ठान परिकल्पित थी।

अँग्रेज़ी माध्यम में लिखी गई 'सत्यवादी स्कूल रिपोर्ट' शिक्षाव्यापार की प्रसारित व्याख्या है,जो दासे द्वारा विश्वशिक्षा प्रसंग में पढ़ी गई थी। प्रयोजनशीलता के आधार पर विभिन्न स्थलों पर स्कूल कॉलेजों की स्थापना कर जनसाधारण को शिक्षित करना एवं सरकारी उद्यम के साथ परिपूरक बन कार्य करना  'विश्व सेवा संघ' के प्रधान उद्देश्य था। उनका मूल लक्ष्य यह भी थी कि ओड़िशा के विभिन्न अंचलों में संगठित शिक्षा-प्रसार आंदोलनों को शृंखलाबद्ध कर जातीय शिक्षा आंदोलन की व्यापकता प्रदान करें।

सत्यवादी वनविद्यालय की स्थापना भारतीय संस्कृति-सभ्यता, जीवनादर्श, नैतिकता के साथ पाश्चात्य शिक्षा व सभ्यता की उपकारक विभागों का समन्वय व समायोजन कर भारतीय शिक्षा और जातीयता का विकास हेतु प्रतिबद्ध थी। छात्र जीवन में सत्य-अभ्यास के लिए नैतिक शिक्षा, सेवा मूलक कार्य की योजना भी एक साथ परिचालित थी। गोपाबंधु के शिक्षा से अभिप्राय जीवनानुमुखी होने से था।

इतिहास अनुशीलन की दृष्टि

इतिहास का पुनर्पाठ तथा पूर्व परंपराओं की आलोचना मानव को अपने वर्तमान की निरव-निश्चिन्ह जीवन धारणा को अज्ञात से सरस व सुदृढ़ बनाने में मदद करती है। इतिहासदृष्टि उसे अपनी शांत जीवन में अनंत आत्मा के संगम सुख से परिचय कराती है। परंपरा के गौरव से वह स्वयं गौरवान्वित महसूस करता है। जिससे वह स्वयं के व्यक्तिव पर आस्था रखने में कामयाब होता है। इतिहास मानव को आत्मशक्ति पर भरोसा तथा भविष्य परंपराओं के निर्माण हेतु शक्ति व प्रेरणा देती है। अतीत-गौरव-शिक्षा से बंचित होना दुर्भाग्यपूर्ण है। कर्मानुष्ठान प्रति दृढ़ विश्वास, जागतिक महामानविय परंपरा में विलीन होने की कामना जगाने में इतिहास प्रधान शिक्षक की भूमिका निभाती है।

19वीं सदी में इतिहासकार– कनिंगहाम, सर विलियम जॉन्स, मैक्स मूलर, विल्सन फर्गुसन, राजेंद्र लाल मित्र जैसे महान इतिहासकारों की शोध विषयक रचनाएँ प्राचीन भारत के गौरव एवं इतिहास को पुन प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनसे विशेष प्रभावित गोपबंधु जी भी राष्ट्र को राजनीति एवं संस्कृति के क्षेत्र में आत्मचैतन्य करने के लिए अभिलाषी थे, जो उन्हें इतिहास शिक्षा के साथ ही संभवप्राय लगा।

जातीय स्तर पर उन्नति का मार्ग-शिक्षा

जनता के शिक्षित होने से उसके जातीय जीवन शॄंखलित होती है। उसमे सहयोगी मनोवृति का जन्म होता है और देश अपराध-अशांति से दूर  सुरक्षित रहती है। शिक्षानुष्ठानों में महापुरुषों की प्रतिकृति एवं प्रधान जातीय घटनाओं की छायाचित्र छात्रों का उत्साह वर्धन करता है। छात्र पीढ़ी भविष्यत् समाज एवं नूतन साम्राज्य निर्माण की ज्वाला हैं। उनका शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक उन्नति अति आवश्यक है, जो केवल शिक्षा के माध्यम से ही संभव है।  उनकी दृढ़ धारणा थी कि तन्मय तत्वानुसन्धान, सुदृढ़ मानसिक शक्ति, सरस हृदय व निष्ठा से विहीन विश्वविद्यालयी शिक्षा सर्वथा निरर्थक है। भारत के प्रमुख विश्वविद्यालयों के विद्वान सर गुरुदास, आशुतोष, रासविहारी, भंडारकर, तिलक, गोखले से वे प्रभावित थे। विदेश से लौटे भुबनानंद दास, जापान से शिक्षित कैलाश चंद्र भरतकर के शिक्षा संबंधी विचारों को वे देश के पक्ष में हितकारी मानते हैं।

प्राथमिक शिक्षा का महत्व के सम्बन्ध में गोपबंधु ने कई बार सरकार का ध्यानाकर्षण किया था। गोखले द्वारा प्रस्तावित अवैतनिक निशुल्क प्राथमिक शिक्षा प्रस्ताव का वो सराहना किये हैं। वे प्राथमिक शिक्षा को किसी भी देश के जनताओं का अधिकार मानते हैं।

संस्कृत शिक्षा एवं साहित्य का अनुशीलन

संस्कृत शिक्षा के प्रति उनका गहरा प्रेम व अनुराग सत्यवादी पत्रिका में आलोचित उनकी निबधों में सहज अवलोकन किया जा सकता  है। वे कहते हैं कि संस्कृत साहित्य भारतीय आर्यों का गौरवगाथा है। स्थूल मानव प्राण में देवत्व की प्रतिष्ठा संस्कृत साहित्य शिक्षा द्वारा  संभव है। 'पुरि संस्कृत कॉलेज' नामक आलोचना में गोपबंधु लिखते हैं– "संस्कृत शिक्षा के बिना भारतीय युवक का शिक्षा असंपूर्ण है। तत्काल देश जातीय स्वर से झंकृत हो रहा है। वास्तव में शिक्षा जब तक जातीय भावना के रंग से सराबोर नहीं हो जाती तबतक शिक्षा की उन्नति नहीं हो सकती। जो संस्कृत शिक्षा को निरर्थक मानते हैं मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि सरकारी नौकरी के बिना अँग्रेज़ी शिक्षा का महत्व क्या है?"

शिक्षा में जातीयता

गोपाबंधु द्वारा प्रचलित शिक्षा का सम्बन्ध केवल जातीय भावों से उद्वेलित है। भारत में प्रचलित तात्कालिक शिक्षा का संपर्क जातीयता से छिन्न था। शिक्षा  को जातीयताभिमुखी करना दासे की शिक्षा नीति का मूल उत्स था। वे लिखते हैं "भारतीय शिक्षा को भारत की परंपरानुकूल होना आवश्यक है। परंतु आज भारत में शिक्षा भारत विमुख होकर इंग्लैंड की शिक्षा है। आज का भारत-निर्माण उसकी स्वयं की सनातन धर्म एवं सभ्यता से विच्छिन्न होकर विदेशी आदर्शों में ओतप्रोत हैं। जिसके कारण आदर्श अज्ञानता की दासत्व स्वीकार कर हम भारतवासी  गौरव का अनुभव करते हैं।"

निष्कर्ष

गोपबंधु दास उत्कलिय जातीय जीवन के गौरव हैं। उनकी आकांक्षा थी– शैक्षिक साधनों के माध्यम से जाति व देश को जागृत करें और उनकी आध्यात्मिक चेतना को आत्मचिंतन से विकसित करें। उन्होंने परतंत्रता के शोकाकुल अन्धकार में शिक्षा, समाज, भाषा, साहित्य आदि सभी संदर्भों को तेजोदीप्त करने का काम किया। उनकी शक्ति संचारणी रचनाएँ, स्पष्ट कथन शैली; उज्जवल भविष्य के निर्माण में सहायक रहे हैं। गोपबंधु बीसवीं शताब्दी के संपूर्ण भारत के महानायक हैं। 

सहायक सामग्री

  1. ‘ओड़िआ साहित्यर इतिहास’-डॉ. सुरेंद्र कुमार महारणा- ओड़िशा बुक स्टोर,कटक-2015
  2. ‘साहित्यर सूचीपत्र’-बिभूति पट्टनायक- सुधा प्रकाशन,कटक-2017
  3. ‘साहित्य ओ समीक्षा’- पठाणी पट्टनायक- विद्यापुरी,कटक- 2010
  4. ‘आधुनिक ओड़िआ गद्य साहित्य’- डॉ श्रीनिवास मिश्र- विद्यापुरी,कटक- 2010
  5. ‘जुगपुरुष गोपाबंधु दास’- डॉ सूर्यनारायण दास- ओड़िशा बुक स्टोर,कटक- 2000
  6. ‘पंडित गोपाबंधु दास’- डॉ अर्चना नायक- ओड़िशा साहित्य अकादेमी,भुवनेश्वर- 1995
  7. “GOPABANDHU THE LEGISLATOR”- Gopabandhu Birth Century Celebration Committee- Gopabandhu Bhawan- 1995
  8. ‘Satyavadi School and Nationalism’- Jayanta Kumar Das- Odisha review Journal- July 2012
  9. https://www.researchgate.net/publication/290118208_An_experiment_in_nationalist_education_Satyavadi_School_in_Orissa_1909-26
  10. http://orissamatters.wordpress.com/tag/pt-gopabandhu-das/

निहारिका मिश्र
हिंदी प्रवक्ता
वेदव्यास महाविद्यालय ,राऊरकेला
सुंदरगढ़,ओड़िशा
फ़ोन – 9439925602,
 8249132521
Email – niharika.ksn1992@gmail.com 


 
 

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