न्याय को चुनौती देती: द केरला स्टोरी

01-06-2023

न्याय को चुनौती देती: द केरला स्टोरी

उर्मिला पचीसिया (अंक: 230, जून प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

हाल ही में रिलीज़ हुई एक फ़िल्म बेहद चर्चा में है इन दिनों। जिज्ञासु उत्सुकता के साथ हम भी फ़िल्म देखकर आए। नए कलाकारों, नए विषय पर बनी यह फ़िल्म एक ऐसे सत्य पर से पर्दा हटाती है, जिसके बारे में हम सबने सुन-पढ़ रखा था, पर आँखों के सामने पर्दे पर उस सच का सामना करना बहुत कष्टदायक रहा। हम जिस यथार्थ को देखकर ही व्यथित हो गए, वास्तव में उसको जीने का अनुभव करने वाली हमारी बेटियों पर क्या बीती होगी . . .! जीते जी अपनी आत्मा को मारकर जीना कितना मुश्किल रहा होगा . . . पर जब तक साँसें हो तन में, तब तक मर-मर के ही सही, जीना तो पड़ता ही है। फ़िल्म निर्माता ने बड़ी बेबाकी से केरला के नौजवानों, विशेषकर लड़कियोम पर होने वाले अधर्मी प्रयोग का कच्चा चिट्ठा हमारे सामने खोलकर रख दिया है, केवल हमें हतप्रभ करने के लिए नहीं। आवश्यकता है इस घिनौने कृत्य पर तत्काल सरकारी हस्तक्षेप के साथ-साथ व्यक्तिगत और सामूहिक चिंतन की। इस समस्या के मूल में स्थित असली कारण के संधान और निवारण की। 

फ़िल्म इस बात पर प्रकाश डालती है कि बच्चों में अपने धर्म और संस्कारों की नींव मज़बूत नहीं होने पर, उन्हें बरगलाना कितना आसान हो जाता है। आधुनिकता के दीवाने धर्म के अस्तित्व को जितना भी नकारें पर धर्म का इंसान के व्यक्तित्व, उसके विचारों पर प्रभाव के सत्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। आधुनिकीकरण का दंभ भरने वाले ब्रिटेन जैसे देश में धर्म का आधिपत्य उनके ‘हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स’ में पादरियों की संख्या और विशेष स्थान से लगाया जा सकता है। राजा के राज्यभिषेक में पोप और धार्मिक ‘रिचुअल्स’ की महत्ता इस बात को सिद्ध करती है कि आज भी धर्म का ब्रिटेन की राजनीति में अहम स्थान है। 

विचारणीय है कि अन्य धर्मों में बचपन से ही बच्चों को धर्म से जोड़ने के प्रयास किए जाते हैं। धार्मिक पूजा स्थल पर नियमित जाना, धार्मिक पुस्तक का रोज़ वाचन करना, यह सब धर्मों में बचपन से सिखाया और करवाया जाता रहा है। परिणामस्वरूप बचपन से ही वह जीवन का हिस्सा बन, व्यक्ति के विचारों में इस क़द्र घुल-मिल जाता है कि और धीरे-धीरे उसके अस्तित्व, उसके व्यक्तित्व की पहचान बन जाता है। इसके विपरीत सनातन धर्मानुकरणी सद्भाव और सहनशीलता के भाव में डूबकर इतने सहिष्णु हो गए हैं कि कोई भी सहजता से उनको बहका कर धर्म परिवर्तन के लिए उकसा जाता है। यह दोष सनातनी बच्चों की परवरिश में रही ढिलाई के कारण उत्पन्न हुआ है। हमने कभी अपने बच्चों को मंदिर जाने अथवा गीता पढ़ने पर ज़ोर नहीं दिया। कभी शिक्षा तो कभी व्यापार की व्यस्तता की ओट में उन्हें धार्मिक गतिविधियों से दूर रखा। परिणामस्वरूप हमारे बच्चे सनातन धर्म की गहराई से अनभिज्ञ रहे। तभी तो शिव जी ने अपनी पत्नी के शव को लेकर ब्रह्मांड का भ्रमण किया, यह बात सुनकर उन्हें निर्बल समझने को तैयार हो जाते हैं। राम-कृष्ण सभी को कमज़ोर दर्शाकर यह बात हमारे बच्चों को समझाई जाती है कि जो ईश्वर अपनी पत्नी की रावण से रक्षा नहीं कर सके, जो पत्नी के विलाप में दर-दर भटकते रहे, वो तुम्हारी मदद कैसे करेंगे। हमारे सनातन धर्म की गरिमा से अनजान बच्चों के पास उनकी बातों का कोई उत्तर नहीं होता और वे उनकी बातों के जाल में फँस जाते हैं। 

यह कहानी सिर्फ़ मनोरंजन बनकर नहीं रह जाए, इस बात का प्रयास हम सबको मिलकर करना होगा। आधुनिकता की सही परिभाषा समझा बच्चों को अपने धर्म से जोड़ना पड़ेगा। अगर हम अब भी नहीं जागे तो हाथ मलते रह जाएँगे . . . कारवां हमारी आँखों के सामने से गुज़र जाएगा और हम मूक दर्शक बनकर देखते रह जाएँगे।

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