निसार हो मेरी जाँ
नन्दकुमार मिश्र आदित्य
बता दे इतना तुझे कितना चाहता हूँ मैं,
मिरी है मंज़िल-ए-मक़सूद रासता हूँ मैं,
जहाँ में हुस्न-ए-मुजस्सम कहाँ कोई तुझ सा,
फ़िदा हूँ तुझ पे दिल-ओ-जाँ से आशना हूँ मैं।
मिरी है शान-ए-ग़ज़ल, ज़िन्दगी का मानी तू,
तिरे ख़ुलूस के धागे से बँध चुका हूँ मैं।
तुझ से अदब-ओ-सुखन औ' तमाम इल्म-ओ-हुनर,
तुझे अदब से, अक़ीदत से पूजता हूँ मैं।
तुझीसे दैर-ओ-हरम, तुझसे दीन-ओ-ईमाँ भी
सिवा तिरे कोई मज़हब न मानता हूँ मैं।
वक़ार तेरा, तिरी आबरू सलामत हो,
मुरीद तेरा, तिरे सजदे में झुका हूँ मैं।
निसार हो मिरी जाँ मादरे वतन तुझ पे
‘कुमार’ ये ही दुआ रब से माँगता हूँ मैं।
मक़सूद (मक़्सूद)= निर्दिष्ट
मुजस्स्म= सर्वांग; आशना (आश्ना)= आसक्त
अदब= साहित्य, शिष्टाचार; सुखन= लेखन; अक़ीदत= श्रद्धा
दैर= देव मंदिर; हरम= पवित्र वस्तु; दीन-ओ-ईमाँ= आस्था
वक़ार= प्रतिष्ठा; मुरीद= भक्त/चेला