निगाह-ए-वस्ल ढूँढ़ती निशान-ए-हम-नफ़स यहाँ
सुशांत चट्टोपाध्याय ‘सफ़ीर’
निगाह-ए-वस्ल ढूँढ़ती निशान-ए-हम-नफ़स यहाँ।
नज़र में वो कहीं नहीं है ज़िन्दगी क़फ़स यहाँ॥
सुकूँ-ए-शब है मुख़्तसर सहर के आईने में अब।
तलाश गर ख़ुशी मिले लुटा हुआ दरस यहाँ॥
सदाक़तों के दायरों में चल रहें क़दम मिरे।
ये क़ैद ही भली लगे न कोई बुल-हवस यहाँ॥
आवाज़ के निशान को दबा रहा था इस तरह।
कि जैसे साज़ खो गया बजा था जब जरस यहाँ॥
अज़ाब है ये ज़िन्दगी क़दम बड़े सबब नहीं।
मगर 'सफ़ीर' बढ़ रहा है कोई दस्तरस यहाँ॥