नवनीत मिश्र की कहानियों में मानवीय संवेदना

15-02-2023

नवनीत मिश्र की कहानियों में मानवीय संवेदना

डॉ. रहीम मियाँ (अंक: 223, फरवरी द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

अपने उद्भव से लेकर विकास क्रम में कहानी विधा जिस मुक़ाम पर पहुँची है, यह विधा आज अपने अंदर कई संदर्भों को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ रही है। हिन्दी कहानी नई कहानी, साठोत्तरी कहानी, सचेतन कहानी, अकहानी, समानांतर कहानी जैसे कई आन्दोलनों से परिवर्तीत एवं समृद्ध होती आई है। नवनीत मिश्र हिन्दी कहानी के विकास में एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर है। समयानुसार समाज में नैसर्गिक परिवर्तन होने के साथ ही मानवीय संबंधों एवं संवेदनाओं में भी परिवर्तन होने लगता है। परिवर्तन की ऐसी ही दास्ताँन लेकर नवनीत मिश्र जी हमारे सामने उपस्थित होते हैं। उनकी कहानियों की विशेषता हैं कि ये कहानियाँ एक धरातल पर और एकरूपता में नहीं लिखी गई हैं। अलग-अलग मानवीय संवेदनाओं एवं जीवन के कई छोटे–छोटे यथार्थ को बड़ी बारीक़ी से पिरोया गया है। इनकी कहानियों को अगर किसी एक विमर्श या किसी एक दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की जाय तो निराशा ही हाथ लगेगी। इनकी कहानियाँ मानव जीवन के छोटे–छोटे मनोभावों से लेकर जीवन के दार्शनिक गहन-चिंतन तक को अपनी परिधि में समेट लेती हैं। मानवीय संवेदनाओं एवं संबंधों का एक जाल इनकी कहानियों में दिखाई पड़ता है। 

मिश्र जी की कहानियों में मानवीय रिश्तों की एक मिठास देखने को मिलती है। यह मिठास चाहे माँ-बाप और बेटे के बीच रिश्ते की हो, देवर-भाभी के बीच की हो, सास-बहू के बीच की हो या भाभी-ननद के बीच। उनकी कहानी ‘अपने विरुद्ध’ में भाभी और ननद के बीच के प्रगाढ़ प्रेम एवं एकदूसरे के लिए सदा खड़े रहने की भावना का उजागर देखने को मिलता है। कहानी भाभी और ननद के बीच के रिश्तों की उस गरमाहट को पहचान देती है जो आज प्रायः में लुप्त होती जा रही है। कहानी में इन दो स्त्रियों के बीच ईर्ष्या न होकर प्रेम की भावन प्रबल है। कहानी में ननद ख़ुद कहती है:

“‘नारि न मोहे नारि कै रूपा’ की उक्ति को झुठलाती हुई मैं भाभी के सौन्दर्य पर रीझी रहती। मैं कभी–कभी उनको अपने सामने खड़ी कर लेती और कहती, लोग तो कपड़ों से सुन्दर दिखाई देते हैं लेकिन आप तो जिन कपड़ों को पहन लेती है वह कपड़े सुन्दर हो जाते हैं।” (पृ. 109) 

आज के इस वैज्ञानिक युग में भी समाज में स्त्री-पुरुष के बीच पुरुष के न रहने पर एक स्त्री के अधिकारों को प्रायः समाप्त कर दिया जाता है। पति के न रहने पर एक स्त्री की ज़िन्दगी बदहाल तो होती ही है, साथ ही सिंगार जैसी परम्परा के नाम पर उसे यह याद दिलाया जाता है कि अब वह कुछ नहीं है। उसकी अस्मिता, उसकी पहचान, उसके अधिकार मानो पति के साथ ही दफ़न कर दिया गया है। अब यह सिंगार ही उसका अन्तिम सिंगार है। अब वह सज-धज नहीं सकती। वह विधवा क्या हुई उसके सारे अधिकार पति के साथ ही स्वाहा कर दिया जाता है। रिवाज़ के नाम पर जब भाभी सौभाग्या को अंतिम सिंगार के लिए बुलाया जाता है तब सबसे पहले उसकी ननद ही इस प्रथा का विरोध करती है। वह भाभी को ऐसे किसी रिवाज़ के मुँह नहीं फेंकना चाहती जहाँ स्त्री की अस्मिता से खिलवाड़ हो। वह कहती है:

“आंगन में परम्पराओं के ज़हरीले, नुकीली दाँतों वाली चार बाघिनें खड़ी थीं जिनके सामने फेंक दिए जाने के लिए हिरनी जैसी भाभी को मैंने मम्मी के साथ कमरे से बाहर निकलते देखा।” (पृ. 112) 

सौभाग्य की ननद अपने घरवालों का, समाज का, परम्पराओं का विरोध करती है। उसका विरोध केवल अपनी भाभी के लिए न था, बल्कि हर औरत के अधिकारों के लिए था। वह सबके सामने कहती है:

“सब लोग कान खोलकर सुन लो। मेरी भाभी का मन करेगा तो वह बिन्दी भी लगाएँगी, चूड़ियाँ भी पहनेंगी। उसका जैसा मन कहेगा वह उसी तरह रहेंगी, इसमें किसी को अपनी टाँग अड़ाने की ज़रूरत नहीं हैं।” (पृ. 113) 

सौभाग्या का सबके सामने अपनी भाभी के लिए रिवाज़ों का विरोध करना, समाज की पितृसत्तातमक व्यवस्था का विरोध करना है, जिसकी आड़ में हज़ारों वर्षों से स्त्री को शोषित किया जाता रहा है। 

‘उस मकान पर छत नहीं थी’ कहानी में लेखक ने मानवीय सम्बन्धों में सच्चे प्रेम की ज़रूरत एवं उसकी तपिश की पहचान की गई है। प्रेम का ख़ालीपन और अपूर्णता को कहानी की नायिका के माध्यम से व्यक्त किया गया है। लेखक ने बड़ी ही बारीक़ी से एक अतृप्त प्रेम की गहराइयों को छुआ है। अपने प्रेम को न पाने के कारण नायिका का जीवन अर्थहीन तो हो चुका था पर वह यह भूल नहीं पाती है कि वह छली गई थी। उसके प्रेम, समर्पण और अपनेपन को कुचल डाला गया था। उसके सपनों को मार डाला गया था। वह कहती है:

“हर औरत के भीतर पुरुष को बाँध लेने का आत्मविश्वास होता है और यही आत्मविश्वास उसकी पूँजी और उसके औरत होने की पहचान होता है। उस दिन मुझे लगा कि मैं कंगाल हो गई हूँ, अपनी पहचान खो चुकी हूँ, अपने जिस प्रेम को मैं अजेय समझकर इतराया करती थी उसे बहुत आसानी से परास्त कर दिया गया है . . . मैं उसके शादी कर लेने के दुःख से कम, अपनी पराजय से ज़्यादा आहत थी।” (पृ. 199) 

उसके द्वारा बनाया गया अधूरा मकान उसके अधूरे प्रेम की निशानी है। उसके हिस्से की भीत और दीवारें तो बनी हुई है किन्तु, उस मकान पर उसके प्रेमी के हिस्से की छत बनी नहीं है। आज जब उसे किसी का सहारा मिल रहा है तो उसे अपने व्यक्तित्व के पूर्णता को बोध हो रहा है। स्त्री के इसी प्रेम के स्वरूप पर विचार करते हुए बोउवार ने कहा है–“पुरुष का प्रेम पुरुष के जीवन का एक हिस्सा भर होता है, लेकिन स्त्री का तो यह सम्पूर्ण अस्तित्व ही है।” (बोउवार 331) 

नवनीत मिश्र मानवीय सम्बन्धों के उस गहराई तक जाते हैं जहाँ वे दामपत्य जीवन में पति-पत्नी के बीच के रिश्तों में एक स्त्री की मनोदशा को पढ़ना नहीं भूलते हैं। ‘देह भर नहीं’ कहानी इसी दामपत्य जीवन में जीती एक स्त्री मन की कहानी है। कहानी में लेखक ने स्त्री अस्मिता एवं स्त्री पहचान के साथ ही साथ यह भी दिखाने की कोशिश की है कि स्त्री केवल देह नहीं है। पति-पत्नी का अर्थ स्त्री के लिए केवल यह नहीं है कि वह हर समय पुरुष के लिए देह लेकर तैयार रहे। दामपत्य जीवन में स्त्री-पुरुष एक गाड़ी के दो पहिये हैं। इसका आधार महज़ स्त्री देह न होकर स्त्री मन, उसकी इच्छाएँ, उसकी अस्मिता और सम्मान भी है। राजेन्द्र यादव का कहना है कि– “पुरुष ने स्त्री के ख़ून में यह भावना, संस्कार की तरह कूट-कूट कर भर दी है कि वह सिर्फ़ और सिर्फ़ शरीर है। वह शरीर के सिवा उसकी किसी और पहचान से इनकार करता है।” (यादव 15) स्त्री यह चाहती है कि पुरुष यह बात समझे कि एक स्त्री अपने देह से परे भी स्त्री है। देह से परे एक स्त्री संसार भी है। पुरुष उस स्त्री संसार को भी देखे। कहानी में स्त्री कहती हैं–“इनसे अपनी यायाति आकांक्षा से छुटकारा पाने की विनती करते हुए कहना चाहती कि मैं नारीत्व के जितने ऊँचे शिखर पर चढ़ना चाहती हूँ, तुम मुझे मांस के पोखर में खींच ले जाना चाहते हो।” (पृ. 155) लेकिन पुरुष है कि स्त्री मन की चिंता किए बग़ैर बस उसे भूख को शांत करने वाली मशीन समझता है। स्त्री कहती है–“कैसा करुण, भीख माँगता-सा स्वर। करुण, लेकिन उसमें मेरे मन के लिए कोई दर्द नहीं। भीख, मेरे उस शरीर की जो इनकी भूख शांत करने की मशीन से ज़्यादा कुछ नहीं।” (पृ. 165) स्त्री जो अपनी इच्छाओं की तिलांजलि देकर एक परिवार रूपी वृक्ष को बनाती है। परिवार के लिए उसका अपना अस्तित्व कहीं खो जाता है। रिश्तों में माँ और पत्नी तो वह बन जाती है किन्तु उसका अपना स्वत्व खो जाता है। कहानी में स्त्री खो गए स्वत्व की पहचान करते हुए कहती है:

“मगर इस सारे कुछ में मैं कहाँ हूँ? हाँ मैं हूँ, हर जगह हूँ। उपलब्धियों की इन बड़बोली अट्टालिकाओं की नींव में झाँकिए और मुझे निर्जीव पत्थर की शक्ल में देखिए, या अगर वहाँ नज़र न आऊँ तो घर-परिवार के इस महावृक्ष की जड़ों में खाद की तरह सड़ती हुई देखिए . . .” (पृ. 166) 

उपभोक्तावाद की संस्कृति ने उपभोग के साथ ही साथ दिखावे की संस्कृति का भी प्रचार एवं प्रसार किया है। आज हमारी संस्कृति में दिखावापन हावी हो गया है। आज हमारे घरों में ज़रूरत से ज़्यादा समान का होना दिखावे की संस्कृति का ही प्रमाण है। हम उपभोग करें या ना करें लेकिन हमारे घरों में हर वह सामान होना चाहिए जो आज दूसरों के पास उपलब्ध है। हम किसी से पीछे नहीं रहना चाहते। हम दूसरों को दिखा सके कि हमारे पास दूसरों से क़ीमती और ब्रांडेड वस्तु है। दिखावे की इस संस्कृति पर विचार करते हुए ‘अमीत कुमार सिंह’ अपनी पुस्तक ‘भूमंडलीकरण और भारतः परिदृश्य और विकल्प’ में कहते हैं–“भूमंडलीकृत भारत का समाज एक ऐसे उपभोक्तावादी समाज के रूप में विकसित हो रहा है जहाँ बाज़ारवाद भारतीयों की नई जीवन शैली बनकर उभरा है। भारत का मध्य वर्ग एक नई दुनियाँ में प्रवेश कर चुका है, जहाँ उपभोग का सम्बन्ध केवल उसकी आवश्यकता एवं संतुष्टि से नहीं रह गया है। यह व्यक्ति के पहचान से भी सम्बन्धित हो गया है।” (सिंह 95) 

इस संस्कृति का प्रभाव हमारे बच्चों पर भी पड़ता है। लेखक ने ‘हामिद-2006’ नामक कहानी में बच्चों पर पड़ने वाले इसी संस्कृति के प्रभाव को दिखाया है। हामिद हिन्दी कथा साहित्य में एक चर्चित पात्र है। प्रेमचंद के ‘ईदगाह’ कहानी का नायक हामिद नामक बच्चा है जो भरे बाज़ार में, खिलौनों की चकाचौंध में अपनी दादी के लिए चिमटा ख़रीद पाता है। बाज़ार के आकर्षण में भी वह वस्तु की उपयोगिता को अधिक महत्त्व देता है। प्रेमचंद का हामिद तर्क करना जानता है और अपने तर्क से वह अपने दोस्तों के अन्य खिलौनों को मात दे देता है। लेकिन, लेखक के इस कहानी का हामिद 21वीं सदी का हामिद है। वह दिखावे की संस्कृति में पला हामिद है। यह हामिद खिलौनों के बाज़ार से ऐसा खिलौना ख़रीदना चाहता है जो किसी के पास न हो और जिसे पूरे मुहल्ले वाले देख सके। उसे खिलौना अपने खेल के हिसाब से न ख़रीदकर दिखावे के लिए ख़रीदना है। पहला खिलौना पसंद होने के बावजूद वह दूसरा वाला खिलौना ख़रीदता है। वह तर्क देता है:

“नहीं मासी, आप नहीं जानतीं। उस खिलौने को मुझे आँगन में नल के पास रखना पड़ता वहाँ तो उसे मेरे कुछ फ्रेंड्स ही देख पाते। इस वाले खिलौने को तो मैं बाहर लॉन में रखूँगा, जहाँ कॉलोनी के सारे लोग देखेंगे।” (पृ. 79) यह हामिद यह तय नहीं कर पाता है कि उसे कौन सा खिलौना लेना है और वह उसी खिलौने को लेता है जिसे वह पूरे मुहल्ले को दिखा सके। 

वैश्वीकरण के इस युग में सब कुछ बहुत तेज़ी से बदलता है। यह बदलाव महज़ मूर्त रूप में न होकर अमूर्त रूप में भी घटित होता है। आज सबसे अधिक कुछ बदला है तो वह है मानवीय संवेदना। आज की इस तामझाम वाले समय में कुछ भी स्थिर नहीं है। इसमें मानवीय संवेदनाएँ ठूँठ होती जा रही है। ऐसी ठूँठ होती संवेदनाओं की अभिव्यक्ति मिश्र जी की कहानी ‘झूठी–सच्ची हथेलियाँ’ में देखी जा सकती है। कहानी में ख़त्म होती इंसानियत एवं मनुष्य की संवेदनहीनता को एक जानवर के माध्यम से व्यंजित किया गया है। कहानीकार ने कहानी में एक जानवर को वक़्ता बनाकर पेश किया है। जिसप्रकार ‘दो बैलों की कथा’ कहानी में प्रेमचन्द ने अपने बैलों को वाणी दी थी और बैलों के माध्यम से मानवीय मूल्यों की वकालत की थी, उसी प्रकार इस कहानी में लेखक ने एक खच्चर को वाणी देकर मानवीय मूल्यों की बात बताई है। मानवीय संवेदनाओं के ठूँठ होते जाने की त्रासदी को लेखक ने अपनी आँखों से देखा है। कहानी में बिलाल नामक पात्र है जो तीर्थ यात्रियों को अपने पशु खच्चर के पीठ पर लादकर यात्रा करवाता है। वह अपनी एवं अपने पशु की जान जोखिम में डालकर दो वक़्त की रोटी के लिए यह काम करता है। बिलाल ही नहीं उसके जैसे हज़ारों लोग इस पेशे में शामिल है। यूँ कहे तो इन लोगों के कारण ही हम जैसे लोग इतने कठिन रास्तों से होकर तीर्थ की यात्रा कर पाते हैं। लेकिन हमारे मन में इन लोगों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होती है। ख़ुशी वश उन्हें थोड़ा ज़्यादा पैसे देने से हम कतराते हैं और उनके द्वारा कुछ अधिक पैसे माँगने पर ऐसा लगता है कि वे हमारी सम्पत्ति ही हमसे माँग रहे हैं। जबकि तीर्थ यात्रा की कठिनाई से भरे रास्ते में ये हमेशा अपनी सवारी की चिंता करते रहते हैं। अपनी जान की बाज़ी लगाकर भी अपने सवारी को बचाते हैं। बिलाल जैसे लोगों के मन में इतने जाड़े में अपनी ड्यूटी कर रहे जवानों के प्रति हमदर्दी है। वह कहता भी है–“आपका तो सिर्फ़ चेहरा झुलसता जनाब, वो पहाड़ियों पर आप देखते? हर दो मीटर पर मिलटरी का एक जवान अपनी पूरी ज़िन्दगी झुलसाता खड़ा रहता है। अकेला। मशीनगन के घोड़े पर अंगुली रखे।” (पृ. 14) वहीं ऐसे आर्मी जवान बिलाल जैसे लोगों की एक ग़लती देखते ही उसे गालियाँ बकने और बूटों से मारने से परहेज़ नहीं करते हैं। कहानी में मिलटरी वाला जब सवारी को झूलते हुए देखता है तब वह बिलाल को गालियाँ देने लगता है–“तुम घोड़े वाले अपनी हरामज़दगी से बाज़ नहीं आओगे? (पृ. 16) कहानी में बिलाल का जो खच्चर है उसके मन में बिलाल को लेकर बेचैनी है। वह हरदम उसकी चिंता करता है। कहानीकार ने मनुष्य को संवेदनहीन होते और एक पशु को सहृदय दिखाया है। लेखक ने खच्चर को वाणी देकर ख़त्म होते मानवीय मूल्यों को बचाने की वकालत की है। उस खच्चर को यह पता है कि कुछ गड़बड़ हो जाने पर वह तो खाई में गिरेगा ही बेचारा बिलाल को लोगों की गालियाँ और लात-जूते खाने पड़ेंगे। वह कहता भी है–“कोई यह थोड़े ही जानता कि मैं गिरा क्यों? सब यही समझते कि घोड़ेवाले की लापरवाही रही होगी। जैसा कि होता है, हर बात में घोड़े वाला ही पकड़ा जाता है।” (पृ. 21) उसे अपने से ज़्यादा इंसान की चिंता है, बिलाल की चिंता है। उसके घरवालों की चिंता है। सवारी की चिंता है। सवारी के घरवालों की चिंता है। वह कहता है:

“मेरे जैसे खच्चर तो पचासों मिल जाएँगे, लेकिन घरवालों को दूसरा बिलाल कहाँ से मिलता? हाँ मरते-मरते मुझे भी सवार का ज़रूर दुःख रहता कि यह पता नहीं कहाँ से आया था, कौन है और इसके न रहने पर इसके घर-परिवार पर कैसी आफ़त टूट पड़ेगी। सवार कितना प्यारा इंसान है उसे अभी संसार में रहना चाहिए। अच्छे इंसान इस दुनिया में बहुत कम रह गए हैं।” (पृ. 21) 

वह बड़ा आत्म स्वाभिमानी है। तभी तो यात्रा समाप्त होने पर उसे बिलाल का थोड़े से पैसे के लिए रिरियाना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता है। सवारी के द्वारा पाँच रुपए का सिक्का फेंक कर देना भी उसे नागवार लगता है। 

लेखक समाज का सबसे अधिक जागरूक एवं संवेदनशील व्यक्ति होता है। समसामयिक घटनाएँ लेखक के अंदर बेचैनी पैदा करती है और अपनी इस बेचैनी को लेखक अपनी क़लम से दूर करता है। कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को भगाया जाना भारतीय इतिहास का एक काला पन्ना है। लेखक ने अपनी कहानी में न केवल उन निर्वासित व्यक्तियों की पीड़ा को दिखाया है बल्कि, इंसानों को इंसानियत का पाठ भी पढ़ाया है। लेखक ने उस अमानवीय घटना की पीड़ा को राजनीतिक या धार्मिक रूप ने देते हुए मानवीय संबंधों के तहत रेखांकित किया है। मनोहर काचरु जैसे हज़ारों लोग रातों रात निर्वासित कर दिए गए। ये लोग आज भी अपने वतन, अपने स्थान की याँदों को न तो भूला पाए हैं न उस दर्द से उबर पाए हैं। ये भले हिन्दुस्तान के कई शहरों में बस गए हो, लेकिन आज भी उस डर के साये को छोड़ नहीं पाए हैं। कहानी में लेखक दिखाते हैं, “बेघर, शहरबदर, अपनी ज़मीन से बेदख़ल और ख़ाना-बदोश हो गये मनोहर काचरु के जीवन में एक कभी न ख़त्म होने वाला सूनापन भर गया था।” (पृ. 174) आज काचरु के पास सब कुछ होते हुए भी वे अकेले हैं। नए लोग तो उन्हें मिले, लेकिन सबमें उन्हें एक अजनबीपन दिखता था, सिवाय छोटी बच्ची गौरा को छोड़कर। वे भीड़ में भी एकाकीपन के शिकार है। कहानी में लेखक दिखाते हैं–“दोस्तियाँ, मेल-मुलाक़ातें और मटरगश्तियाँ बहुत पीछे छूट गयीं। अब वह हैं और है एक सन्नाटा जो उनके कमरों से उनके अंदर बजता है।” (पृ. 168) 

मनोहर काचरु केन्द्र सरकार में गजेटेड अफ़सर होने के बावजूद, हर वक़्त एक डर के साये में जीता है। अपने शहर को वह भूल नहीं पाता, इसलिए अपने शहर की गंद को पाने के लिए वे रोज़ फल मंडी चले जाते जहाँ सेब की पेटियों को उतरते देख उन्हें संतुष्टि मिलती कि ये फल उनके देश से आ रहे हैं। लेखक लिखते हैं:

“मण्डी में ट्रकों से सेब की पेटियाँ उतरतीं तो मनोहर काचरु को ध्यान हो आता कि फल उनके देश से आ रहे हैं। सेबों की खट्मिट्ठी सुगंध उनको श्रीनगर के बाग़ों में ले उड़ती जहाँ दूर तक पेड़ों पर लगे सेब चित्रलिखित-सा दृश्य उपस्थित करते।” (177) 

काचरु का मन करता कि सेब की सारी पेटियों को खोलकर सेब ज़मीन पर बिछा दें और उसपर लेटकर अपने देश की धरती पर लेटने का सुख प्राप्त करें। काचरु को रोता देख गौरा उनसे पूछती है कि क्या उन्हें कोई चोट लगी है। गौरा जैसी बच्ची यह नहीं जानती कि अपने ही देश में अपने स्थान से निर्वासित होकर जीना कितना गहरी चोट है? यह कभी न भरने वाली ऐसी चोट है जिसकी दवा आज तक नहीं बन पाई है। 

इस प्रकार नवनीत मिश्र जी की कहानियों का विश्लेषण करने के उपरान्त हम देखते हैं कि आज के इस उपभोक्तावादी एवं भूमंडलीय परिदृश्य में जहाँ हम सभी एक भीड़ का हिस्सा भर हैं, इस भीड़ में मध्यवर्गीय समाज की कुंठा, एकाकीपन, निराशा के साथ–साथ जीवन की जीजिविषा भी इनकी कहानियों में दिखाई पड़ती हैं। मानव जीवन के पग–पग पर घटने वाली साधारण से साधारण घटना कहानी का प्लाट बनकर उपस्थित हुआ है। लेखक ने कहानी लिखने के लिए कहानी को नहीं गढ़ा है, बल्कि इनकी कहानियाँ वर्तमान समय की बौखलाहट एवं बेचैनी से उत्पन्न अनुभूतियों की ही अभिव्यक्ति है। अभिव्यक्ति का स्वरूप सीधा एवं सरल है। कई कहानियाँ ‘मैं’ शैली में लिखी गई हैं जहाँ लेखक स्वयं कहानी का पात्र बनता नज़र आता है। वे स्वयं पात्र का परिचय नहीं देते हैं बल्कि, कहानी परत दर परत जैसे-जैसे खुलती जाती है, पाठक कहानी के पात्र से परिचित होता जाता है। कहानियों की भाषा में लेखक अनावश्यक ताम–झाम से बचे हैं। संस्कृत शब्दों के साथ–साथ अरबी, फ़ारसी एवं उर्दू के शब्दों का उचित प्रयोग लेखक के भाषाई ज्ञान की विद्वता से हमें परिचित करवाता है। 

डॉ. रहीम मियाँ
एसिसटेंट प्रोफ़ेसर
हिन्दी विभाग
बानरहाट कार्तिक उराँव हिन्दी गवर्नमेंट कॉलेज
बानरहाट, जलपाईगुड़ी-735203, प. बंगाल
फोन। 9832636020

संदर्भ–ग्रंथ

  1. सिंह, कुमार अमित, भूमंडलीकरण और भारतः परिदृश्य और विकल्प, सामयिक प्रकाशन, 2009

  2. बोउवार, सोमेन द, स्त्री उपेक्षिता, अनुवाद प्रगति सक्सेना, हिन्दी पॉकेट बुक्स, 1998

  3. यादव, राजेन्द्र, आदमी की निगाह में औरत, राजकमल प्रकाशन, 2007

  4. मिश्र, नवनीत, उस मकान पर छत नहीं थी (कहानी संग्रह), प्रकाशन संस्थान, 2020 

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