नवगीत साहित्य का यथार्थ 

15-08-2016

नवगीत साहित्य का यथार्थ 

अनिल कुमार पाण्डेय


 (डॉ. जयशंकर शुक्ल: से अनिल कुमार पाण्डेय की वार्ता) 
 

अनिल पाण्डेय:

आपने अपने काव्य लेखन की शुरूआत कविता से प्रारंभ की है; यह आपकी साहित्यिक यात्राओं से स्पष्ट होता है। क्या यह पूर्णतया सत्य है?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:

अनिल जी रचनाकार की शुरूआत देखने की प्रक्रिया में दो आयाम आते हैं पहला प्रकाशन दूसरा लेखन। आपने मेरी रचनाधर्मिता के क्रम को जानने के लिए प्रकाशन का सहारा लिया है और पाठक, शोधार्थी, आलोचक, ये सभी इसी तरह से अपना मंतव्य स्थापित करते हैं। अनिल जी आपने इस वार्तालाप के माध्यम से मुझे वह सत्य सामने लाने का अवसर दिया है जो शायद ही सामने आ पाता। भाई मेरे द्वारा लिखी गयी पहली पुस्तक गद्य विधा के उपन्यास रूप में रही है जिसका नाम “अधूरा सच” रहा तथा यह सन् 1986 की गर्मियों की छुट्टियों में लिखी गयी। इसका प्रकाशन अब यानी 2016 में लगभग तीस साल बाद संभव हो पा रहा है। कवि बनने की चाहत, प्रकाशन की लिप्सा तथा गोष्ठियों में प्रस्तुतीकरण की अभिलाषा ने कविताओं को रचने तथा प्रकाशित करवाने की ओर प्रेरित किया जिसके फलस्वरूप 2005 में प्रथम काव्य संग्रह “किरण” के प्रकाशन के बाद काव्य विधा में प्रकाशित लगभग सात पुस्तकें मेरी प्रोफाइल में जुड़ चुकी हैं।

अनिल पाण्डेय:

नवगीत की तरफ़ आपका रुख़ कैसे हुआ? कहीं ये भाव तो नहीं था कि इस नवीन विधा में अन्य विधाओं की अपेक्षा स्पेस अधिक है, प्रसिद्धि अधिक है?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:

मित्र आपके प्रश्न मेरे अन्दर तक जाकर अतीत को एक बार पुनः साकार कर रहे हैं। मैं मूलतः गीतकार हूँ और नवगीत गीत के परिष्करण का साक्षी है। प्रारंभिक तुकबंदियों में बड़े-बड़े बहर की लम्बी कविताएँ मैं लिखा करता था। वार्णिक और मात्रिक का भेद जानने के बाद उनकी गणना करने की प्रक्रिया को जाना व समझा। अब बहर अपेक्षाकृत छोटे और संतुलित होने लगे। मुखड़ा, अंतरा और टेक को अच्छी तरह जान व समझ लिया। इनमें अन्त्यानुप्रास हेतु शब्द अक्षर एवं ध्वनि की परिभाषा और भूमिका को आत्मसात करते हुए शिल्प की विविधिता व विलक्षणता से अच्छी तरह परिचित हुआ। अब मात्राओं की संख्या पूरे गीत में एक जैसी रखी, मुखड़े व अंतरे में अलग-अलग भी रखी। मित्र ये रही रूप (craft) की बात जिसे शैल्पिक विधान भी कहा जाता है। शिल्प में मंझ जाने के बाद कथ्य (text) की बात आती है जहाँ विविधिता रचनाकार की रचना प्रक्रिया को अलग आयाम प्रदान करती है। नई कविता की भाँति उसके उद्भव काल से ही (नई कहानी, नया नाटक नया निबंध एवं नवगीत (नए गीत) का भी उद्भव माना जाता है। ये बहस की बात है कि वे कौन से कारण रहे जिनके परिप्रेक्ष्य में विगत 70 सालों से नवगीत को हिन्दी काव्यधारा में हाशिए पर डाल दिया गया। अनिल जी, इस समय नवगीत अपने चौथे चरण में विकास की यात्रा कर रहा है। एक गीतकार द्वारा नवगीत को पकड़ना, साधना एवं रचना करना कठिन अवश्य है असंभव नहीं। निराला जी के कथन “नव गति नव लय ताल छंद नव” को युगबोध समकालीनता एवं रचनाधर्मिता के आधार पर गीतकार द्वारा साध लिया जाना उसे नवगीतकार बनाता है। आश्वस्ति एवं प्रसन्नता का विषय है कि मैं ऐसा कर पाया हूँ। गीत नवगीत में एक रचनाकार अपने मंतव्य को मर्यादित ढंग से व्यक्त कर सकता है। मैनें नया शिल्प, नई शैली, नये रूपक, नया कथ्य, नये बिम्ब,नये प्रतीक, प्रस्तुत-अप्रस्तुत विधान की नयी परिणति के साथ नवगीत लिखे, जिनके लिए मेरी रुचि, रुझान, अभिवृत्ति ज़िम्मेदार है न कि स्पेस या प्रसिद्धि को ध्यान में रखकर ऐसा करने का प्रयास किया है।

अनिल पाण्डेय:

कविता से नवगीत में आगमन एक साहित्यिक यात्रा का दिग्दर्शन कराता है। यह युग छंदमुक्त कविता का था यह जानते हुए भी आप छांदस कविता की तरफ़ क्यों उन्मुख हुए?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:

अनिल जी! मेरा लेखन मूलतः रागात्मक रहा है। मैं मूलतः छंद की अवधारणा का पोषक हूँ, आपका प्रश्न युग परिवर्तन को रेखांकित करने वाला है। मित्र उत्तरछायावाद के सामानांतर प्रगतिशील काव्यधारा, प्रयोगवादी काव्यधारा, नई कविता आन्दोलन या समकालीन काव्यधारा के प्रवर्तक कवि उत्कृष्ट गीतकार थे। उनके द्वारा न केवल हिन्दी साहित्य के काव्य रूप में एक नवीन आन्दोलन का सूत्रपात किया गया, जिसके माध्यम से उन्होंने हिन्दी साहित्य को विश्व साहित्य से जोड़ना चाहा, बल्कि वेगीत से नवगीत तक की विधा के प्रारंभिक दौर के सशक्त हस्ताक्षर थे। अगर उनका कहीं विरोध था तो वह रूढ़ियों, परम्पराओं एवं मंच से था। जितना उन्होंने छांदस रचनाकारों व उनकी रचनाधर्मिता की अवहेलना की, प्रत्युत्तर में छंद धर्मी रचनाकारों ने उन्हें कोसने में कोई कसर नहीं रखी। हमें उस समय अपने वैयक्तिक हित, अस्मिता एवं विभिन्नता को परे रखकर समग्र रूप से हिन्दी साहित्य की काव्यधारा का अमिट योग था पर अफ़सोस हम ऐसा न कर सके। अनिल जी! यदि हम ऐसा कर पाते तो नवगीत की जो ऊँचाई आज हम पाँचवें चरण में देख पा रहे हैं वह ऊँचाई पहले या दूसरे चरण, पचास या साठ के दशक में प्राप्त कर पाते।

अनिल पाण्डेय:    

नवगीत व नयी कविता में क्या भेद हो सकता है, क्या यही भेद पारंपरिक गीत व नवगीत में भी है? विषय व कथ्य के आधार पर स्पष्ट करें?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:

नवगीत व नयी कविता में भेद के लिए हम कथ्य एवं रूप (text and craft) को आधार मानते हैं। सबसे पहले रूप की बात। नवगीत छंदों में नये प्रयोग का हिमायती है जबकि नयी कविता छान्दसिक अवधारणा से बिलकुल मुक्त है। यह बात अलग है कि नयी कविता भी निरन्तरता, लयात्मकता, अवरोध एवं विषय केन्द्रित एकरूपता को अपने रचना प्रक्रिया के केंद्र में लेकर चलती है। अनिल जी पारंपरिक गीत रूपाकार एवं विषय-वस्तु के लिए पूर्व स्थापित मानदण्डों की हिमायती है जबकि नवगीत नयी अवधारणाओं की स्थापनाओं के लिए कटिबद्ध है। गीत में मुखड़ा, अंतरा और टेक पारंपरिक होते हैं जबकि नवगीत का मुखड़ा अधूरा होता है, अन्तर विविधवर्णी होता है तथा आगे इन स्थितियों का निर्वाह किया जाता है।

अनिल पाण्डेय:    

नवगीत व नयी कविता दोनों ही विधाएँ अपनी पारंपरिक मान्यताओं से मुक्त होने के लिए संघर्ष करती नज़र आ रही हैं; भाव पक्ष से लेकर कला पक्ष तक के इस संघर्ष पर आपके क्या विचार हैं?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:     

नई कविता एवं नवगीत हिन्दी काव्यधारा के नवीनतम परिदृश्य में विल्कुल नये हैं। इनके प्रारंभ के साथ इनके लेखन एवं इनकी आलोचना के लिए विधान रचे गए, जहाँ लेखन के लिए विषम भाषा-शैली, शब्दावली, नए मुहावरे और बिम्बों प्रतीकों का नए परिवेश में दिग्दर्शन किया गया, वहीँ इनकी आलोचना के लिए नए उपकरणों (tools) का भी निर्माण किया गया, जिनके आधार पर साहित्य समृद्धि की ओर अग्रसर हो सके। इसी तरह नवगीत में भी इसके कथ्य एवं रूप के विभिन्न विधानों की संरचना की गयी। आलोचना के उपकरण (tools) यहाँ भी विकसित किए गए लेकिन खेद का विषय रहा कि नवगीत ने अपने लिए आलोचकों की रिक्तता देखी। नई कविता के आलोचक अपनी बढ़ाई सीमा में ही कार्य-व्यापार करते रहे। नवगीत के विकास, शोध एवं विस्तार में अपेक्षाकृत संभावना नहीं देख पाने का सबसे बड़ा कारण इस विधा में आलोचकों अभाव रहा है जिसके कारण चर्चा-परिचर्चा प्रभावित हुई। सत्तर के दशक में विश्वनाथ द्वारा लिखे गए नवगीत पर सकारात्मक आलोचक-निबंध में बड़े पैमाने पर चर्चा-परिचर्चा की शुरूआत की। नवगीत में आलोचक न होने का एक बड़ा कारण और भी है कि नवगीतकार नवगीत विधा से भी ऊँचे हो गए। विधा की श्रेष्ठता की जगह पर रचनाकार श्रेष्ठता ने व्यक्ति-पूजा को आगे बढ़ाया, परिणामतः यह हुआ कि किसी रचना पर कोई टिप्पणी उस व्यक्ति पर टिप्पणी मान ली जाती थी और वो नवगीतकार गिरोह बंद होकर आलोचक के पीछे पड़ जाते थे। हारकर वह आलोचक अपने लिए नए ठाँव की तलाश कर लेता था। अनिल जी! इसका सबसे बड़ा शिकार मैं स्वयं हुआ हूँ।

हर विधा में समझ के साथ परिवर्तन आना आवश्यक है भाव पक्ष एवं कला पक्ष दोनों एक दूसरे से अंतर-सम्बंधित हैं। ऐसे ही रचना और रचनाकार दोनों सम्बंधित होते हुए भी पृथक अस्तित्त्व रखते हैं। यह अस्तित्त्व की लड़ाई है मित्र! आदिकाल से परिवर्तन समय की माँग है जिसने अपने को जितने समय के अनुरूप बना लिया देश काल व वातावरण द्वारा स्वीकार किया गया अन्यथा पीछे छूट गया।

अनिल पाण्डेय:        

आज के गीत कवि भावुकता व स्वप्रियता के शिकार हैं; कमोबेश यही बात नवगीतकारों में भी देखी जा रही है। फिर रचना के स्तर पर इन्हें कैसे अलग करेंगे?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:     

रचनाकार एवं रचना विधा दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। रचना विधा अपने सृजन कर्ता को पहचान, सम्मान, प्रतिष्ठा प्रदान करती है। इस तरह से ऐश्वर्य धारक से बड़ी ऐश्वर्य प्रदाता हुई, जबकि वास्तविकता इसके उलट है। रचनाकार साधनावस्था से चलकर सिद्धावस्था तक पहुँचते-पहुँचते स्वयं-भू बन जाता है। भले ही विधा ने उसे जन्म दिया हो, पाला हो, पोषा हो, नई उपाधियाँ प्रदान की हों एक समय के बाद वह रचनाकार रचना विधा का जनक बन जाता है। ऐसे स्वनामधन्य स्वयंभू गीत ऋषि रचनाकारों का नाम मैं जानता हूँ जिन्होंने अपने जीवन में चाहे जितने समझौते किए हों परन्तु आज वे देवराज इंद्र के सिंहासन पर विराजमान हैं जिनके ख़िलाफ़ या जिनकी रचना पर किसी भी तरह की टिप्पणी टिप्पणीकार के लिए आत्महत्या जैसा है।

रचना के स्तर पर ये स्वयं-भू गीतकार, नवगीतकार स्वयं को दोहरा रहे हैं। ये स्वयं को शिखर पर होने की घोषणा करते हैं और प्रायोजित आलोचना लिखवाकर, छपवाकर अपने मुहिम को पुष्टि प्रदान करते हैं। इन्हें अलग करना किसी पराशक्ति के हाथ में हो सकता है, हमारे लिए यह कठिन है।

अनिल पाण्डेय:        

वैश्विक समस्याओं को लेकर नवगीतकार कितने सजग हैं; क्या यह प्रवृत्ति समय के साथ आगे बढ़ रही है अथवा हतोत्साहित हो रही है?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:     

वैश्विक समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करना आज के रचनाकार को अति आवश्यक है क्योंकि आज विश्वग्राम की अवधारणा साकार रूप ले रही है जो इससे एकाकार नहीं कर पा रहे हैं शायद कल को उन्हें याद रखना मुश्किल हो जाए। व्यक्ति की पहचान उसका काम है न कि रुतबा। रचनाकर को उसके कथ्य में विविधता श्रेष्ठ बनाती है। आज का समाज समस्यामूलक समाज है। कवि का कार्य अनादिकाल से न सिर्फ समस्याएँ उठाना रहा है बल्कि कई विश्व कवियों ने अपने-अपने ढंग से समस्याओं का समाधान भी दिया है। हम नवगीतकार इस विषय में बहुत पीछे हैं। हम सम्राट अशोक के वैभव का गायन तो करना चाहते हैं पर पारमाणविक विभीषिका हमारे लेखन-केंद्र में नहीं आती। हम चाँद पर जाना तो चाहते हैं पर धरती की ख़ुशबू हमारे लेखन के केंद्र में नहीं आ पा रही है।

अनिल जी प्रवृत्ति का आगे बढ़ना या हतोत्साहित होना परिवेश निर्माण पर निर्भर है जिसके लिए कोई भी प्रयास नहीं किया जा रहा है।

अनिल पाण्डेय:        

नवगीत विधा में नारी रचनाकारों की कमी पर आप क्या कहेंगे? क्या यह विधा अपने कथ्य व रूप में उन्हें आकर्षित करने की क्षमता नहीं रखती?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:     

पारंपरिक शिल्प, शैली एवं कथ्य में गीत जितना मोहक व आकर्षक है, प्रयोगवादी शिल्प, शैली एवं कथ्य में नवगीत उतना ही प्रायोगिक। स्त्री रचनाकार, पुरुष रचनाकार वास्तव में हमारा भ्रम है। सच्चाई यह है कि रचनाकर रचनाकार होता है वह स्त्री अथवा पुरुष नहीं होता। यदि ऐसा होता तो हमारे हिन्दी साहित्य में रचनाकर नायक अथवा नायिका के स्वर में एक साथ बात करते हैं। पुरुषवादी मानसिकता, उत्तर आक्रामकता स्त्री रचनाकारों में भी देखी जा सकती है और इसीतरह स्त्री जन्य कोमलता, मृदुलता, सहजता पुरुषों कथ्य एवं भावों में महसूस की जा सकती है। नवगीत में रचनाकार स्त्री हों, वो कम हैं, शून्य नहीं।

अनिल पाण्डेय:      

 ग्राम्य चेतना व ग्राम्य दर्शन आज के कवियों का प्रिय विषय है; जबकि लिखने वाले कवि शहरी हैं; क्या वे गाँवों के चित्रण में वस्तुनिष्ठा रख पाते हैं?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:     

भारत गाँवों का देश है जो तेज़ी से क़स्बों, शहरों एवं महानगरों के देश में बदलता जा रहा है। यहाँ गाँव के युवा रोज़गार की तलाश में शहरों की ओर रुख़ करते हैं यही युवा कालांतर में इंजीनियर, डॉक्टर, प्रशासक, प्रोफ़ेसर, वैज्ञानिक आदि के साथ-साथ लेखक और कवि भी बनते हैं। अब चूँकि उनका बचपन, किशोरावस्था गाँव में बीता है इसलिए वह यादें उसके साथ आजन्म रहती हैं। एक घटना बताऊँ आपको-2013 ई० में चैम्बर ऑफ़ कामर्स मेरठ शहर में एक पुस्तक लोकार्पण में मुझे विशिष्ट अतिथि के रूप में सम्मिलित होने का अवसर मिला। पुस्तक का शीर्षक था “गाँव वाला घर” तथा रचनाकार थे शिवानन्द सिंह “सहयोगी“। लगभग दो सौ विद्वान रचनाकारों के मध्य अपना आलोचनात्मक आलेख पाठ करते हुए मैंने “सहयोगी” जी से कुछ प्रश्न पूछे—आप गाँव से बाहर आजीविका के सन्दर्भ में शहरों में कब से प्रवास कर रहे हो, गाँव वर्ष में आपका कितनी बार जाना होता है? गाँव की पुरानी धरोहरों को आप किस रूप में पाते हो? क्या आज भी गाँव में कुंएँ, पनघट, तालाब, मन्दिर आदि उसी पुरानी स्थिति में हैं? खेतों, बागों की क्या स्थिति है? जवाब में उन्होंने प्रत्याशित अनभिज्ञता ज़ाहिर की एवं अकस्मात् बोल उठे—मैंने तो इस तरह से सोचा ही नहीं था।

अब बारी मेरी थी; संवाद रोचक था और पराकाष्ठा पर था।महोदय आपने जिस गाँव के विषय में लिखा है वह आपमें जी रहा है आपने कभी उसमें जिया था। आज गाँव का वह पुरातन स्वरूप या तो घुट-घुटकर जी रहा है अथवा दम तोड़ चुका है। चौपालों पर अब भजन, कीर्तन, प्रहसन, प्रवचन नहीं होते बल्कि हर बच्चा अपने मोबाइल के साथ अपनी ही दुनिया में जी रहा है। व्यक्ति का अपना सम्मान बहुत बढ़ चुका है और वह किसी को भी कुछ नहीं समझता, रिश्ते बौने हो रहे हैं, सहयोग की भावना ख़त्म हो रही है अपनत्व स्वार्थ की वेदी पर बलि चढ़ रहा है।

ऐसे में ग्राम चेतना या ग्राम उन्मुख रचनाओं या रचनाकारों की प्रतिबद्धता संदेह के घेरे में है।

अनिल पाण्डेय:        

आपने अपने नवगीत संग्रह ताम भाने लगा में विकृत होती महानगरीय संस्कृति पर क़लम चलाई है। यह कैसे संभव हो पाता है?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:     

एक रचनाकार के लिए अपने परिवेश से जुड़ाव जितना ज़रूरी है उतना ही ज़रूरी घटनाक्रम व उसके परिणाम पर दृष्टिपात करना है। मैं पिछले बीस सालों से दिल्ली जैसे महानगरों में रह रहा हूँ इसके पहले साढ़े छब्बीस साल जन्म स्थान जनपद इलाहाबाद के गाँव सैदाबाद में बिताए हैं। अब मेरे सामने अपने लिखने के केंद्र में वर्तमान और अतीत की कश्मकश अक्सर चलती रहती है। हिंदी साहित्य की अन्य विधाओं, कविता, कहानी, लघुकथा, संस्मरण आदि में मेरे गाँव की मेरी यादें साकार रूप से चित्रित व अंकित हैं। नवगीत विधा में नवाचार के आग्रह को देखते हुए मैंने महानगरीय संस्कृति पर अपनी बेबाक क़लम चलाई है। पेशे से शिक्षक होने के नाते मेरी दृष्टि त्रुटियों पर अधिक जाती है अतः स्वाभाविक से विकृतियों को अपने काव्य का मूल स्वर बनाया है।

अनिल पाण्डेय:        

यथार्थ सम्प्रेषण व काल्पनिकता में समन्वय कैसे रख पाते हैं? कौन सी विधा में आप यथार्थ को अधिक अच्छी तरह अभिव्यक्त कर पाते हैं?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:     

साहित्य रचना यथार्थ व काल्पनिकता का संगम है। कोरा यथार्थ नीरस व उबाऊ होता है तथा काल्पनिकता आकाश-कुसुम होती है। जीवन में दोनों का संतुलन व समन्वय आवश्यक है, हम रचनाकार हैं सृजन हमारी पहचान है जिसमें किसी के निजी व गोपन पलों को उद्घाटित करने का अधिकार हमें नहीं है। पर विषय-चयन, परिवेश, नाम, घटना व्यक्ति का नाटकीय रूपांतर देकर हम उस बात को सहजता से व्यक्त कर सकते हैं। अनिल जी! यथार्थ परंपरा मूलक होता है परिवर्तन इसका दूसरा नाम है। एक लेखक को इस बिंदु पर पूरी तरह सतर्क रहने की ज़रूरत है। उसे अपने व अन्य के जीवन से जुड़ी घटनाओं को उद्घाटित करने से बचना चाहिए जहाँ यह बात सत्य है वहीं यह भी ध्रुव सत्य है कि समष्टि की समस्याओं को सामने लाने के लिए घटनाक्रम का चित्रण वर्जित नहीं है।

मूलतः मैं नवगीतकार हूँ। प्रत्येक कवि अपने लिए विधा का चयन स्वयं करता है इसी प्रकार प्रत्येक विधा कथ्य केन्द्रित होती है। मैं अपने द्वारा रची जा रही समस्त विधाओं के सारे रूपों में स्वयं को सहज पाता हूँ।

अनिल पाण्डेय:        

समकालीन कविताओं व साहित्य की अन्य विधाओं में समकालीन विमर्शों पर खूब चर्चा-परिचर्चा हो रही है; क्या नवगीत विधा में भी यह चर्चा मूर्तमान है?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:     

समकालीनता साहित्यिक चेतना का प्राण है। अतीत का महिमामंडन और भविष्य का कल्पित स्वरूप साहित्य को साहित्य नहीं रहने देता। समकालीनता समय सापेक्ष है, यह किसी एक युग का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि यह वर्तमान का चित्र उपस्थित करता है वहीं रचनाकार कालजयी एवं युग प्रवर्तक है जो अपने युग को जीता है। समकालीनता हमें न केवल अद्यतन रखती है बल्कि अतीत से परिचय कराकर भविष्य का खाका भी खींचती है, हमें विचार, व्यवहार, तुलना, कार्य, परिवेश व भाषा के स्तर पर समकालीन बने रहना होता तभी हम अपने रचनाकार धर्म को अच्छी तरह निभा पाएँगे।

अनिल पाण्डेय:    

नवगीत, गीत की एक विधा है या भिन्न रूप से स्वतंत्र विधा; क्या स्वयंभू नवगीतकार अपने को विशेष दर्शाने के लिए नवगीत का आश्रय नहीं ले रहे हैं?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:     

आपके इस प्रश्न का उत्तर हमने पूर्व में विस्तार से दिया है। हिंदी साहित्य की सारी विधाएँ एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। नवगीत में नव विशेषण के साथ गीत का जुड़ाव इसे गीत के अगली पंक्ति की रचनाओं में सम्मिलित कराता है। नवगीत बहुविधि होते हैं, नवीनता के परिचायक होते हैं। शिल्प, कथ्य एवं प्रवाह में नवता के आग्रही होते हैं। इतना सब होने पर भी यहाँ बोझिल भाषा, जटिल बिम्ब चमत्कार की प्रत्याशा वाले बिम्ब वर्जित हैं। खेद का विषय है कि कुछ तथाकथित नवगीत प्रवर्तक स्वयंभू कवि तत्सम शब्दावली के साथ बोझिल बिम्बों एवं चमत्कारिक प्रतीकों के माध्यम से स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की जुगत में लगे रहते हैं।

अनिल पाण्डेय:      

हिंदी साहित्य की लगभग सभी विधाओं में आपने कुछ न कुछ लिखा व कहा है; नवगीत विधा में सक्रियता व शीर्ष नवगीतकार के रूप में आप कैसे स्वयं को स्थिर रख पाते हैं?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:   

हिंदी साहित्य की विधाएँ हमारे लिए अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक माध्यम के रूप में हैं। गद्य एवं पद्य दोनों प्रमुख विधाओं के अनेक रूपों में अभिव्यक्ति देने का अवसर मुझे नियति ने प्रदान किया है मैं उसके लिए उसका आभारी हूँ उन पाठकों का, आलोचकों का जिन्होंने आवश्यकतानुरूप मुझे मेरी कमियाँ व विशेषताएँ दोनों बताते हुए प्रेरित किया है। पाण्डेय जी आपने मुझे इस अपने उन सत्यों के उद्घाटन का मंच प्रदान किया है जिन्हें मैं कहीं और अभिव्यक्त नहीं कर सकता था। इसके लिए मैं आपका अति आभारी हूँ। अभ्यास करते करते विभिन्न विधाओं में अपनी बात कहने का हुनर विकसित किया जा सकता है और मैं अभी उस प्रक्रिया में चल रहा हूँ।

नवगीतकार के रूप में मैनें लगभग दो दशकों का समयांतराल जिया है।अपने पूर्ववर्तियों को पढ़ा भी है और उन पर लिखा भी है। समकालीनों के साथ भी मेरी ऐसी ही भूमिका रही है। इस कार्य ने मेरी अन्दर सीखने की एक ललक पैदा कर दी तथा साथ ही साथ इस कृत्य ने मुझमे एक आलोचनात्मक दृष्टि का सूत्रपात भी किया है।

मैं नवगीत विधा की पाठशाला का एक विद्यार्थी हूँ और अब भी सीख रहा हूँ इससे अलग कुछ भी कहना मुझे संकोच में डाल रहा है।

अनिल पाण्डेय:        

“तम भाने लगा” संग्रह की चर्चा-परिचर्चा ने आपको एक उत्तम मुकाम दिया है; अपनी आगामी योजनाएँ एवं कृतियों के बारे में कुछ बताएँ?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:     

“तम भाने लगा” मेरे नवगीत का नवीनतम संग्रह है। हालाँकि इस संग्रह का प्रकाशन एक वर्ष पूर्व अर्थात् 2015 में हुआ। “तम भाने लगा” एक ऐसा संग्रह है, जिस पर अनेक मंचों पर चर्चा-परिचर्चा हुई है और अब भी हो रही है।आकाशवाणी दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ स्टेशन पर शब्द-संसार में इसकी समीक्षा की जा चुकी है। दूरदर्शन के राष्ट्रीय नेटवर्क पर भी डॉ. अमरनाथ ‘अमर’ के निर्देशन में पत्रिका कार्यक्रम के अंतर्गत “तम भाने लगा” की समीक्षा प्रसारित हो चुकी है। डेढ़ दर्जन से ज़्यादा आलोचनात्मक आलेख इस पुस्तक पर अब तक लिखे जा चुके हैं जिन्हें सम्पादित कर “तम भाने लगा” के मौजूदा कलेवर से दुगने कलेवर का ग्रन्थ छापा जा सकता है। संपादक के रूप में यदि आप हों तो मुझे ख़ुशी होगी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी इसकी समीक्षाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं।

आगे की योजनाएँ नियति के अधीन हैं। मैं माध्यम हूँ, कर्ता नहीं।

अनिल पाण्डेय:    

नये रचनाकारों को आप क्या सन्देश देना चाहेंगे? आज का रचनाकार रातों-रात महान व श्रेष्ठ हो जाना चाहता है; क्या यह संभव है?

डॉ. जयशंकर शुक्ल:     
अनिल जी! मैं स्तब्ध हूँ, आपने मुझे पुराना कैसे मान लिया? भाई साहब वो कौन से मानक हैं जिनके आधार पर आप नये-पुराने की पहचान करते हैं? मैं साहित्य रूपी उपवन का सबसे अदना पौधा हूँ। अब आप मुझे कैसे इतना वरिष्ठ बना रहे हैं मेरी समझ से परे है। चलिए इस पर एक बार फिर से विचार करियेगा।

आज का रचनाकार मेहनत पर नहीं व्यक्ति-पूजा पर विश्वास करता है।शॉर्टकट की तलाश में वह नए शीर्ष गढ़ने की ओर प्रयत्नशील होता है। यह अफ़सोस जनक है। संसार में परिश्रम ही एकमात्र सफलता की कुंजी है। इस बात को जितनी जल्दी मान लिया जाय उतना ही भला साहित्य का भी होगा और साहित्यकार का भी होगा। मैं अपने साथियों से इतना ही कहना चाहूँगा कि वह सदैव सीखने को तत्पर रहें और जितना हो सके पढ़ें।

शेष अनिल जी एक बार पुनः आपका आभार, आपने मुझे अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए समय व मंच दिया।

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