नौकरी की आशा
महेन्द्र देवांगन माटीमोहन और सोहन दोनोंं पक्के दोस्त थे। दोनों की दोस्ती गाँव भर में मशहूर था। दोनोंं एक साथ पढ़ते थे। एक साथ घूमते थे।
मोहन का परिवार ग़रीब था। बीच-बीच में सोहन उसको सहयोग भी करता था। दोनोंं बारहवीं कक्षा अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण भी हुए।
मोहन अपनी ग़रीबी के कारण आगे नहीं पढ़ सका और पढ़ाई छोड़ दी। वह घर के काम में अपने पिताजी का हाथ बँटाने लगा। फिर बैंक से ऋण लेकर एक छोटी सी किराना दुकान भी खोल ली। वह मन लगाकर दुकान में बैठने लगा और धीरे-धीरे बैंक का क़र्ज़ भी अदा करने लगा।
सोहन कॉलेज पढ़ने के लिए रायपुर शहर चला गया। वह एक अच्छे कॉलेज में पढ़ने लगा। बीच-बीच में जब वह गाँव आता था तो मोहन और सोहन दोनोंं गले मिलकर बहुत ख़ुश हो जाते थे। दोनोंं फिर अपने पुराने दिनों की याद में खो जाते थे।
कुछ साल बाद सोहन की पढ़ाई पूरी हो गई। अब वह एक अच्छी नौकरी की तलाश में जुट गया। जो भी विज्ञापन निकलता था, उसे वह ज़रूर भरता था। लेकिन इस कांपीटेशन के युग में हर बार वह पीछे हो जाता था। और फिर चूक जाता था। ऐसा करते-करते वह लाखों रुपये बरबाद कर चुका था, लेकिन नौकरी मिल नहीं रही थी।
एक बार जब सोहन गाँव में आया तो उसके दोस्त मोहन ने समझाया कि—देखो दोस्त नौकरी जब मिलेगी तब मिलेगी, अभी कम से कम एकाध धंधा-पानी कर लो। ये भी कोई नौकरी से कम नहीं है। मुझे देखो धंधा की बदौलत मेरे परिवार की स्थिति सुधर गयी है।
सोहन हँसकर उसकी बात को टाल गया और बोला कि—यदि मुझे धंधा करना होता तो इतनी पढ़ाई क्यों करता? इतना पढ़ा लिखा हूँ उसके हिसाब से मुझे नौकरी मिलनी चाहिए। ये मेरी इज़्ज़त का सवाल है।
उसकी बातों से मोहन चुप हो गया। बस इतना ही कहा कि—आप पढ़े-लिखे ज़्यादा समझदार हैं। मेरी तो बुद्धि में जितना आया उतना समझा दिया।
दो दिन बाद सोहन फिर शहर चला गया। वह आज तक हर वेकेंसी का फ़ॉर्म भर रहा है। कभी किसी नेता के पास तो किसी मंत्री के पास जाकर नौकरी के लिये गिड़गिड़ा रहा है।