नाम मत पूछो . . . मैडम जी
गीता दुबेवह अपने प्रौढ़ावस्था में थी, थुल-थुल काया जिस पर बेतरतीबी से लिपटी साड़ी, सिर पर सादे और काले मिश्रित रूखे बालों की छोटी-सी चोटी, काला रंग, गोल चेहरा, सामने के दो ऊँचे निकले दाँत, चेहरे पर उम्र और ग़रीबी की लकीरें साफ़-साफ़ देखी जा सकती थीं। स्वभाव की बात करें तो क्या कहने—बेहद ख़ुशमिज़ाज और ईमानदार। हर रोज़ चलती सड़क के किनारे फ़ुटपाथ पर ताज़े मौसमी फल और सब्ज़ी लेकर वह बैठ जाया करती और आने-जाने वालों को आवाज़ लगाती—आ गया . . . आ गया . . . बाग़ान का ताज़ा ताज़ा मूली, टमाटर, अमरूद, पपीता आ गया . . . ले लो . . . ले लो . . . ताज़ा ताज़ा अमरूद ले लो, ये लाल वाली मूली ले लो . . . कच्चा भी खाओ और सब्ज़ी बनाकर भी खाओ, टमाटर ले लो . . . ले लो . . . ले लो . . . साथ-साथ उसका प्रिय टॉमी भी राहगीरों को देखकर पूँछ हिलाता रहता मानो लोगों को सब्ज़ी ख़रीदने के लिए वह भी अपनी मालकिन के साथ आमंत्रण दे रहा हो। हर रोज़ लंच टाइम में जब दामिनी अपना क्लीनिक बंद कर वापस उस रास्ते से घर लौट रही होती तो कुछ न कुछ मौसमी फल या सब्ज़ी उस सब्ज़ी वाली के यहाँ से अवश्य लेती, यह दामिनी की दिनचर्या में शामिल था। दामिनी का जी चाहता कि वह रुककर उस सब्ज़ीवाली से ढेर सारी बातें करे और उससे पूछे कि तुम इतनी ख़ुश कैसे रहती हो लेकिन हर वक़्त ग्राहकों से घिरी होने के कारण दामिनी को यह अवसर नहीं मिल पाता। दामिनी को यह नहीं पता होता कि वह सब्ज़ी वाली कब अपना दुकान लगाती है और कब समेट कर चली जाती है। फिर एक दिन दामिनी को वह अवसर मिल गया जिसका उसे इंतज़ार था, उस रोज़ जब वह घर लौट रही थी तो उसने देखा सब्ज़ी वाली की सारी सब्ज़ी और फल बिक चुके थे, बस कुछ ताज़े अमरूद ही बच गए थे, दामिनी ने बचे हुए अमरूद लिए और लगी उससे बातें करने।
“कहाँ से लेकर आती हो इतने ताज़े फल और सब्ज़ी?”
“सुबह भोरे पाँच बजे उठकर वो बड़ा मैदान का पास बागान है न, वहीं से लाते हैं।”
“घर में कौन-कौन है?”
उसने मुस्कुराते हुए कहा, “हम अकेले रहते हैं मैडम जी।”
“अकेले मतलब? शादी नहीं की तुमने?”
“हुआ था मैडम जी शादी, कोरोना में मेरा आदमी गुजर गया।”
“अच्छा नहीं लगा सुनकर, तो बच्चे तो होंगे?”
“हाँ एक बेटा और एक बेटी है, बेटी का तो शादी उसका पंद्रह लगते कर दिए, एक बार जो वो ससुराल गई फिर नहीं आई, जहाँ है वहाँ ख़ुश है, खबर मिलते रहता है।”
“और बेटा?”
“आदमी के मरने का बाद एक दिन बहू-बेटा से थोड़ा बाता-बाती हो गया और दोनों हमको और मेरा सामान घर के बाहर फेंक दिया और हमको बोला कि आज से तुम हमलोग के लिए मर गई, तुमसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं . . .”
“फिर?”
“फिर क्या . . . तब से हम अकेले ही हैं और फिर ये टॉमी मिल गया, मेरा दोस्त तो अब हम और मेरा टॉमी साथ में रहते हैं।”
“कहाँ रहती हो?”
“ज़्यादा दूर नहीं मेमसाहब, वो जो गुरुद्वारा के पास बस स्टैंड है न, उससे कुछ दूर पर एक बंद घर है उसी घर का बरामदा में रहते हैं,” फिर उसने मुस्कुराते हुए कहा, “कोई दिक्कत नहीं है मैडम जी सामने ही सार्वजनिक शौचालय है।”
“डर नहीं लगता तुम्हें?”
“डर कैसा मैडम जी! क्या है मेरे पास कि चोर ले जाएगा और अपने टॉमी की ओर इशारा करते हुए उसने कहा यह मेरा टॉमी है न मेरा साथी इसका रहते डर कैसा?”
दामिनी कुछ देर ख़ामोश होकर उसकी ओर एकटक देखती रही—इतनी तकलीफ़ में भी यह कितनी ख़ुश है!! सच है ख़ुशी धन से नहीं बल्कि इंसान की सोच पर निर्भर करती है।
दामिनी ने फिर उससे कहा, “आज तुमसे बातें कर बड़ा अच्छा लगा। अच्छा चलती हूँ, फिर आऊँगी लेकिन मैं तो तुम्हारा नाम ही नहीं जानती, तुम्हें पुकारूँगी कैसे? क्या नाम है तुम्हारा?”
उसने मुस्कुराते हुए कहा, “पुकारने की ज़रूरत ही नहीं है मैडम जी हम तो यहाँ ही आपको रोज़ मिलेंगे, बात करना हो तो चली आना यहाँ पर।”
“अरे नहीं, नाम तो बताओ . . . सब्ज़ी वाली कहकर पुकारना मुझे अच्छा नहीं लगता, बताओ क्या नाम है तुम्हारा?”
“नहीं मैडम जी, हमसे मेरा नाम मत पूछो आप हमको फलवाली या सब्ज़ी वाली कहकर पुकार लो लेकिन नाम मत पूछो . . .”
“क्यों भला?”
“वो मैडम जी . . . एक मैडम जी आपका ही माफिक बड़ा गोल टीका लगा कर हर रोज़ मेरे पास आती थी, झोला भर भर के सब्ज़ी और फल लेती थी, बात भी ख़ूब करती थी। एक दिन वो मैडम जी हमसे मेरा नाम पूछ लिया और हम बता दिए उसके बाद से वो बाजू वाली मंजू से सब्ज़ी लेती है मेरे पास से नहीं लेती। देखती भी नहीं है मेरे तरफ़ . . . हम तो समझ गए कि वो क्यों मेरे यहाँ से सब्ज़ी लेना छोड़ दिया . . . तब से हम सोच लिया कि अब से हम किसी को अपना नाम नहीं बताएँगे।”
“अरे नहीं अब तो बताना ही पड़ेगा और मेरा यक़ीन करो कि मैं वैसा नहीं करूँगी, मैं हमेशा तुम्हारे यहाँ से ही सब्ज़ी लूँगी ये मेरा तुमसे वादा है। बताओ तुम्हारा नाम क्या है? क्या नाम है तुम्हारा?”
“जी जुबैदा . . .”
1 टिप्पणियाँ
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कहानी का अंत✍️ बड़ी बात कह गया ।आज के परिपेक्ष्य मेंबहुत सटीक कहानी।