मेरी माँ की शृंगारदानी
विकाश्री केमवालएक छोटी सी गत्ते की पेटी,
जिसमें रखे होते थे . . .
एसीलाक, डाइक्लोविन
और कुछ दवायें मोच की,
शृंगार के नाम पर उसमें था
मुड़ा हुआ बिन्दी का एक पत्ता
और कुछ टूटी डिबिया सिन्दूर की।
साथ ही थे काग़ज़ के कुछ टुकड़े
और सिलवटों से भरी पर्चियाँ,
जिन्हें मेरी माँ अक़्सर . . .
सफ़ाई करते हुए सम्भाल लेती थी।
उनके लिये हर काग़ज़ ज़रूरी था,
क्योंकि उन्हें नहीं आता है
इन खिंचे हुए अक्षरों को पढ़ना।
मैं जब पूछता कि,
तुम्हें क्या पसंद है?
तब माँ कहीं गुम सी हो जाती . . .
उन्हेंं याद आती थी हर पल
तेरह साल की एक लड़की
जिससे उसका बचपन छीनकर
समाज ने बाँध दिया था . . .
ससुराल की बेड़ियाँ।
तब उस उम्र में वो,
ये तक नहीं जानती थीं कि,
वो कौन हैं . . .
और बजाय अपने घर के
वह यहाँ ससुराल नाम के,
जगह पर क्यों है?
तब उसके शृंगार के साधन थे . . .
गोबर के थेपले,
मिट्टी सने बर्तन और काली धूल।
जो लकड़ी के चूल्हे से निकल
सीधा पहुँचती उनके चेहरे पर।
लाल सुहाग के नाम पर
उसके पास थीं कुछ बूँदें ख़ून की . . .
जो अक़्सर घास काटते हुए,
उसकी उँगलियाँ कट जाने पर
निकला करता था।
समय बीता . . .
मेहनत और भाग्य ने साथ दिया।
अब वह थीं,
एक वरिष्ठ अधिकारी की पत्नी।
लेकिन . . .
उनका शृंगार मुझे
अब भी फीका लगता है।
अब मेरी समझ में आया कि,
उनके असली शृंगार के साधन तो
उनके प्यारे बच्चे थे . . .
अपने बच्चों के नाम
अख़बार की कतरनों में जब सुनतीं,
तो उनका चेहरा चमक उठता था।
इतना ज़्यादा कि,
दुनिया का हर शृंगार,
उनके सामने फीका लगता था।
वह जब देखती,
अपने बच्चों की तरक़्क़ी
तब वो खिल जाती फूल सी . . .
और अब मेरा लक्ष्य है,
उनके माथे की वह बिन्दी बनना
जिसे लगाकर उनका चेहरा
चमकता रहे अंतिम क्षण तक।
हे ईश्वर!
मुझे इतनी शक्ति देना कि
मैं उनके शृंगार को अमर कर सकूँ॥