मेरा बुजु़र्ग
बलबीर माधोपुरीपंजाबी कविता
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
पानी पर पड़ी लकीर को
अभी भी
पत्थर की लकीर समझता है
मेरा बुजु़र्ग।
बेगाने फूल–पौधों को सींचता
वह खुद ही खिल उठता है
गाय–भैंसों की पीठ थपथपाता
दूध–पूत की खैर माँगता है
हल की मूठ पर हाथ रखते हुए
सरबत का भला चाहता है
मिट्टी संग मिट्टी हो जाता है।
वह अपने हाथों लाया है
हरा, सफ़ेद और नीला इंकलाब
और उसके तन पर
अभी भी बहता है खुश्क दरिया।
जेठ- आषाढ़ में तपते, चिपचिपाते बदन
और उधर अंदर चमचमाते चिकने तन
जिस्मों में खुशी खोजते मन
और उसकी पुश्तैनी सोच
उससे बार–बार होती है मुखातिब
यह तो महज नसीबों का खेल है।
कभी–कभी वह सोचता है
बेशक समुन्दर में घड़ियाल हैं
पर मछलियाँ खूब तैरती हैं।
परिंदों को उड़ने को आकाश
रहने को घर है
और मेरे पास क्या है?
गौरवमयी संस्कृति का देश!
गुलामी की प्रथा को बरकरार रखने के लिए
मेरी अपनी सन्तान।
कभी–कभी वह फिर सोचता है
और तलाशता है
देर है, अंधेर नहीं के अर्थ
सख़्त–खुरदरे हाथों पर से
मिटती–लुप्त होती लकीरें।
पानी पर पड़ी लकीर को
अभी भी
पत्थर की लकीर समझता है
मेरा बुजु़र्ग।