मैं तेरी ही परछाईं हूँ
डॉ. सीमाआसमान के सूरज तुम
मैं तेरी ही परछाईं हूँ
प्रकाश पुंज की एक किरण बन
आशा बिखराने आई हूँ!
उदित होते तुम, लाली फैलाते
निशा को आभा सिन्दूरी दे जाते
मैं माँग में भर सिन्दूर, संग तेरे
जल तुलसी पर भी चढ़ाती हूँ
साँझ को जब तुम पच्छिम में
आभा फैलाने जाते हो
दीप तुलसी पर प्रज्ज्वलित कर
आँगन को रोशन भी कर जाती हूँ!
मेघ तुम्हें जब ढक लेते हैं
तुम चोरी से मुस्काते हो
कोहरे संग खेल आँख मिचौली
जीवन अस्त व्यस्त कर जाते हो
पाला खाकर पौधों के बच्चे
मुँह लटकाए रहते हैं
तब दिखा छवि तुम अपनी
मुस्कान उन्हें दे जाते हो!
केशों को बिखरा कर मैं
चंडी भी बन जाती हूँ
करुण पुकार सुन बच्चों की
माँ दुर्गा का रूप सजाती हूँ
अस्त व्यस्त हो रहे जीवन को
नया रंग दे जाती हूँ
तुम पुंज किरण के, तेरी किरण मैं
ज्योत मैं भी बिखराती हूँ!
विकीर्ण किरणों के हाथों से
देकर प्राण धरा को तुम
दूर कहीं छिप जाते हो
मैं हाथों की रेखा हूँ
जीवन रेख बनाती हूँ
तुम ओस दूब की ले आग़ोश में
धरा को चुप करवाते हो
मैं आँखों की सीपी से
मोती आँसू के चुराती हूँ!
एक अंश मैं तेरे ओज का
तुझसे ही ले जाती हूँ
जीवन देती हर प्राणी को
स्वयं का जीवन भी सजाती हूँ!
आसमान के सूरज तुम
मैं तेरी ही परछाईं हूँ
नीलाकाश पर सजते तुम
मैं धरा वधू बन आई हूँ!