मारे चरख औ चाल्ह पियासी। जल तजि कहाँ जाहिं जलबासी?
डॉ. अनामिका अनु
(मारे चरख औ चाल्ह पियासी। जल तजि कहाँ जाहिं जलबासी?)
—बादशाह-भोज-खंड। मलिक मोहम्मद जायसी
सड़क के किनारे बड़े से पोस्टर पर लिखा है:
‘स्माल फ़्राई ऑफ़ ए शार्क’
तस्वीर में एक शार्क मछली छोटी मछली को निगल रही है।
रेवती गर्भवती है, उसने सड़क किनारे लगी होर्डिंग देखी और अपने पेट पर दाईं हथेली को कोमलता से पसार दिया।
लग्न का मौसम है। बाज़ार सजा है। बाहर लाउडस्पीकर बज रहा है:
‘तुमसे मिलने को दिल करता है/अरे बाबा तुमसे मिलने को दिल करता है/तुम ही हो जिसपे दिल मरता है/
कि तुमसे मिलने को दिल करता है/’
टेम्पो में बहुत भीड़ है। कशमकश में भी उसे एक हल्कापन और एक निश्चिंतता महसूस हो रही है। मायके जाने का सुख, तेरह महीने हो गये। उत्साह से कलेजा फूलकर पका बड़हर हुआ जा रहा है। आँखें चिड़ियों-सी चपल। मन में मायका बजता है। इस जग सुजान में कौन है उसका अपना? पति है मगर ससुराल तो नहीं। उसका पति राघव अनाथ है। रोने को, समझने को, सुख बताने के लिए एक जगह चाहिए होती है। दुःख बाँटने और छिपा लेने की, यह दोनों जगहें मायका ही है उसके लिए।
वह हाथ की चूड़ियाँ देखती है, उदास और पुरानी लग रहीं हैं, नेलपाॅलिश चटक लाल है। साड़ी तो गौने वाली है। यह साड़ी उस पर ख़ूब फबती है।
वह जाकर अपनी माँ से लिपट जाएगी और अधिकार से कहेगी:
“माँ! माछ भात खाये सालभर हो गये। बाबूजी से कहो न माछ मोल लाएँ। बनाऊँगी और सबको खिलाऊँगी। ख़ुद भी छक कर खाऊँगी।”
बीस बरस, सात महीने उम्र हो गयी पर जीभ तो अब भी ललचती रहती है। बढ़िया खाना कमज़ोरी थी और अब भी है। मगर तंग हाथ और राघव की कोशिशों ने धैर्य का सुंदर पाठ पढ़ा दिया है। कपड़े-गहने, शौक-मनोरथ कौन पूछे, खाने के चीज़ों के लिए भी अधैर्य नहीं होती है रेवती। सिंदूर में कोई जादू होता है नन्ही चिड़िया को गुर-गंभीर-देवता बना देती है।
कह पाएगी माँ से वैसे ही जैसे पहले कह पाती थी।
चौक पर टैम्पो रुका।
मटकुन शाह गर्मा-गरम जलेबी छान रहा है, उसे बड़ा मन हुआ आधा किलो बँधवा ले। दस रुपये हैं पर्स में। पर्स का सिंथेटिक गोटा उखड़ चुका है। चेन भी अटकती-पटकती है। वह मन मसोस कर आगे बढ़ गई।
दालान गोबर से निपा है। पक्के का घर, पानी की टँकी, कूलर, इनवर्टर, फ़्रिज, मिक्सी सब हैं मायके में।
वह सँभलती, स्वयं को सँभालती घर में घुसी।
माँ बैंगन काट रही थी। लपककर आई। गले लगाया। बाबूजी कमरे से बाहर आए और चौंकते हुए बोले, “अरे! रेवती तू तो करिया गई है, हड्डी निकल गई है। खाती पीती नहीं थी ढंग से।”
रेवती ने बाबूजी का पैर छूते हुए कहा, “न बाबू जी! खाती थी न . . .”
माँ हाथ पकड़कर उसे गोसाईं घर ले गई। “अरे खोईंचा बिना आ गई।”
रेवती क्या कहती, खोईंचा का सामान और उसमें देने के पैसे कहाँ से लाती? पेट तो जैसे-तैसे भर रहा है। वह मुस्कुरा कर बोली, “लिया था माँ। आने की हड़बड़ी में घर में ही छूट गया।”
नहा-धोकर रेवती आँगन में बैठ गई। माँ चमचमाती स्टील की थाली में दाल भरी पूरी और आलू की सब्ज़ी ले आई। रेवती ने छक कर खाया। चाची की छोटी बेटी रूपा आई और चहक बोली, “अरे दीदी तुम कब आई?
मेरी मिठाई कहाँ है?”
माँ ने रेवती को देखा। छक कर खाया खाना पेट में जम गया। पेट और मन दोनों और भारी हो गया।
जब रूपा चली गई, तब माँ ने उससे एक-एक कर सब बातें पूछनी शुरू की। बग़ल काठ की कुर्सी पर अख़बार पढ़ रहे बाबूजी भी बात पीते रहे। आँख से आँसू बहता रहा, कथा बढ़ती रही। दुःख कहते वक़्त कलेजा फट-फट जाता था, माँ धैर्य से सब सुन रही थी। पिता भी . . .
सुबह मछली वाले की आवाज़ सुनाई दी। रेवती रसोई में रोटी बना रही थी, उसने लपक कर खिड़की से देखा,
माँ बाबूजी दालान पर बैठे थे। पर न माँ ने मछली वाले को आवाज़ दी, न बाबूजी ने। रेवती धैर्य से रोटी बनाती रही। जब माँ बाबूजी नाश्ता कर रहे थे तो रेवती ने बिना किसी प्रसंग के कह डाला, “माँ साल बीत गये माछ भात नहीं खाया।”
माँ और बाबूजी दोनों ने रेवती का चेहरा देखा। वह ज़मीन ताक रही थी।
माँ ने बेरुख़ी से कहा, “हम भी कभी-कभी ही खाते हैं। रोज़ खाने की चीज़ है। महँगी कितनी है?”
रेवती ने समझदार नन्ही बच्ची सा कहा, “हाँ माँ।”
रेवती गर्भ से है, सातवाँ महीना है।
एक पखवाड़े रह कर वापस लौटेगी। कोरोना में राघव को काम मिलना कम हो गया है। तंगी से भर मुँह खा भी नहीं पाती है। मायके में हर दिन खाना पकता मगर मछली नहीं बनती।
पिता ने कहा, “कल मछली ले आऊँ?”
माँ ने चेहरे को निर्विकार करके कहा, “नहीं रेवती की आर्थिक स्थिति और ख़राब हो चली है। कोरोना में राघव को मज़दूरी का काम भी नहीं मिल रहा। सादा सादी खाना ही रहने दो।
“अच्छा खान-पान दोगे तो यहीं रह जाएगी। राघव भी आ जाएगा। अघारा बघारा खाना देखकर उसकी आँख लग जाएगी। दुःखी बेटी को बाप-भाई के सुख से जलन होती है, आह लग जाती है।”
पिता ने गमछे से दोनों कंधे झाड़ते हुए कहा, “ठीक है . . .”
हर दिन एक सब्ज़ी, दाल रोटी चावल बनती रही।
साइकिल पर अल्युमीनियम की बड़ी टेगची बाँध कर रंग-बिरंगी मछलियाँ लेकर मछुआरे आते। आवाज़ लगाते। रेवती के जीभ से पानी चूने लगता। दो जीभ का लार। वह बड़ी सतर्कता से उसे घोंट लेती।
पखवाड़ा बीत गया। रेवती को हर दिन लगता मुँह खोला है तो माँ बाबूजी जाने से पहले मछली ज़रूर खिलाएँगे। राघव उसे लेने के लिए आ गया है। बाहर मछली वाले का शोर है, टोले मुहल्ले की औरतें मछली मोल रही हैं। रेहु-कतला-झींगा . . .।
रेवती को लगा आज राघव उसे ले जाने आएँ हैं तो माँ बाबूजी ज़रूर मछली ख़रीदेंगे। मगर न माँ ने मछली वाले को पुकारा, न बाबूजी ने मछली वाले की पुकार पर कान दिया।
खाना खाकर रेवती विदा हो गई। रास्ते भर पोखर, नदी, मछली, मायका सब याद आता रहा।
अतृप्त लौट आई रेवती।
टेम्पो में पैसेंजरों के बीच, कहीं ज़ोर-ज़ोर से गाना बज रहा है:
‘जानता है ना तू क्या है दिल में मेरे /बिन सुने गिन रहा है ना तू धड़कने /आह निकली है तो चाँद तक जायेगी/ तेरे तारों से मेरी दुआ आएगी’
रेवती के हृदय में दूर-दूर तक माँ बाबूजी के पक्के के घर से न ईर्ष्या है, न भाई के सुख ठाट-बाट से जलन। बस मछली न खा पाने के दुःख से बड़ा एक और दुःख उसके भीतर जन्म ले चुका है।
यह दर्द कलेजे से हुदक-हुदक कर कंठ तक आ जाता है। आँखों के किनारे से आरी तिरछी नदियाँ बहने लगतीं हैं।
बारहवीं पढ़ी है बग़ल के कैफ़े में नौकरी मिल भी गई थी। काम सँभालने से पहले कोरोना आ धमका। सब बंद, हर तरफ़ मंदी . . .
वक़्त तो दो-चार महीने में सँभल जाएगा। दोनों जने मिलकर कमाएँगे, समय सब दिन एक-सा नहीं रहता।
रेवती ने अपनी हथेली देखी, रेखाएँ अस्पष्ट, उलझी और बेतरतीब सी लगीं उसे।
लगा वह भी मछली हो गयी हैं। पोखर से निकाल कर माटी पर पटकी गई चहल्वा मछली। राख में लपेटी। हांसु से छिली और चाँदी सी देह कटकर पककर ख़त्म . . .
‘मारे चरख औ चाल्ह पियासी। जल तजि कहाँ जाहिं जलबासी’?
रेवती घर आकर कई तरह के उलझनों में फँसी रही।
उधर रेवती के चले जाने बाद, अगले ही दिन ही रेवती का बड़ा भाई रमेश अपने परिवार के साथ आया। रमेश का एक बेटा हैं तीन साल का। तीन लोगों का परिवार। माँ ने कतला तला है, रेहू में सरसों का रस लगाकर सालन बनाया है। गुलाब जामुन मँगवाया है। बहू के लिए अलग से चार स्पंजी मँगवाई है, उसे स्पंजी बहुत पसंद है।
♦ ♦ ♦
तीन महीने बाद एक दिन अहले सुबह रमेश का फ़ोन आया, “माँ आई सी यू में है रेवती!
“बचने की उम्मीद न है।
“कोरोना ने जकड़ रखा है।”
“कुछ न होगा माँ को। घबराना मत भइया,” रेवती ने जवाब दिया। रेवती ने देवता पितर सबसे मन्नतें माँगी। अगर माँ ठीक हो गई तो मांस मछली को कभी हाथ न लगाऊँगी।
रेवती को मछली बहुत पसंद है। जब ब्याही नहीं थी, बाबूजी कचहरी से लौटते वक़्त रंग-बिरंगी मछलियाँ लाते। मछली का एक टुकड़ा भी मिल जाएँ तो रेवती गिद्ध की तरह चाट पोंछ, नोंच-नोंच कर खा जाती। बासी भात पर माछ का गर्म झोर दे दो और एक बुट्टी मछली। थाली भर भात खा लेगी रेवती।
रेवती के बड़े भाई रमेश की इंजीनियरिंग की पढ़ाई के कारण घर की आर्थिक स्थिति लचर-सी गई थी, इसी बीच माँ को भी हृदय की बीमारी लग गई, इलाज में बहुत पैसे लग गए। बाबूजी का हाथ तंग रहने लगा, नहीं तो बाबूजी रेवती की भी शादी खुश-फैल से खाने-पीने वाले परिवार में ही करते। विवाह के समय छोटी-सी कंपनी में राघव काम करता था, सब ठीक ही तो था। कोरोना के कारण कंपनी बंद हो गयी। वह दिहाड़ी मज़दूर का काम करने लगा। आजकल वह भी बंद है। मगर फिर भी इधर-उधर हाथ-पाँव मारकर खाने-पीने, जीने जितना जोड़ लेता है।
दो महीने बाद माँ ठीक हो गयी। रेवती ने तो जिस दिन मन्नत माँगी उसी दिन से मांस मछली सब छोड़ दिया।
नौ महीने बाद माँ बाबूजी रेवती से मिलने आए। झुग्गीनुमा घर, आँगन गोबर से निपा। घर में बाँस का फाटक, उस पर पुरानी सिंथेटिक साड़ी को सिलकर लगा दिया गया है। एक बकरी और तीन मेमने बाहर खेल रहे हैं।
राघव से मनोहार करके रेवती ने रेहु मछली मँगवायी है। ख़ूब लगन और प्रेम से पकाया।
मूँज की पटिया पर भोजन के लिए माँ बाबूजी को बिठाया।
अल्युमीनियम की पुरानी कड़ाही, जगह बे जगह पिचकी और पेंदी लगभग स्याह काली। स्टील के पुराने घिसे मगर साफ़ प्लेट से ढंकी। एक अल्युमीनियम की छोटी तस्तरी में क़रीने से कटे प्याज़ के लच्छे, नींबू के छोट-छोटे दो टुकड़े। तीन हरी मिर्च और दो पापड़।
रेवती हड़बड़ाती दो थालियों में गर्म-गर्म भात लेकर आयी। फिर कलछुल को आँचल से पोंछती हुई पलथी मारकर माँ-बाबू जी के पास बैठ गयी। कड़ाही पर से स्टील का प्लेट हटाया और कलछुल से गर्म भात के बग़ल में सरसों में पकी सुनहली मछली की पेटियाँ परोसीं।
माँ बाबूजी ने स्नेह से खाया। तृप्त होकर माँ ने कहा, “बहुत स्वाद है रेवती!”
खा चुकने के बाद माँ ने कहा, “रेवती तू भी खा ले।”
रेवती ने कहा, “माँ मैंने मांस-मछली छोड़ दी।”
माँ ने धीरे से पूछा, “क्यों भला?”
रेवती ने मुस्कुरा कर कहा, “मन का कोई दुःख था, देवता ने हर लिया तो जीभ का ये सुख उनकी चरणों में चढ़ा आई।”
माँ और बाबूजी उसके चेहरे को देख रहे थें।
वह मछली के काँटे और जूठन बड़ी तन्मयता से माटी पर से उठाकर उठ खड़ी हुई।
ज़ोर का मेघ बरस उठा। झोपड़ी के दायें कोने से ख़ूब पानी घर में जमा होने लगा।
बकरियाँ बाहर से घर में आ गई हैं। मेमन टोकरी के पास चहलक़दमी कर रहे हैं।
माँ, बाबूजी रेवती की विपन्नता को अनदेखी नज़र से देख रहे हैं . . .
रेवती पास ही जूट के बोरे पर बैठी साग छाँट रही है।
1 टिप्पणियाँ
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अत्यंत करुण ! "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी - - -" क्यों पाली जाती हैं बेटियां इतना त्याग -संयम, स्वयं को कुचला देने की सीमा तक करने को?