माँ तू तो समझती थी न...
आरती पाण्डेयवो पग फेरों में,
जो उदासी थी।
तेरे सीने से लग के,
जो बिलखी थी।
आँसू मेरी आँखों के,
माँ! तू तो समझती थी न...
जिस काया को सहेजा,
बरसों...
वो एक पल में ही,
रौंद उठी।
सिंदूर की क़ीमत ऐसी होगी,
माँ! तू तो समझती थी न...
बाबा की पगड़ी,
भाई का सीना।
इसीलिए ख़ामोश रही,
वरना ये चिंगारी।
क्या थी?
माँ! तू तो समझती थी न...
रिश्तों की बलि,
चढ़ी हर पल।
जज़्बातों का कोई,
मोल नहीं।
जिस क़ीमत पर,
सिंदूर ख़रीदा, उस पर कोई,
ज़ोर नहीं...
माँ! तू तो समझती थी न...
एक अनजाना डर,
हर पल तड़पाता।
हर एक नज़र मेरा,
वजूद निगल जाती।
तन के ज़ख़्म तो,
भर भी जायें...
रूह तो हर पल ही,
घुटती है।
माँ! तू तो समझती थी न...
अब न झिलमिलाती,
चाँदनी थी।
न इस दिल में,
कोई हसरतें थीं...
जो ज्वाला धधक रही
हृदय में,
माँ! तू तो समझती थी न...
बाँध सब्र का टूट गया,
जब वो दिन भी आया।
घर की लक्ष्मी को,
किसी और थाली में परसाया।
क़ीमत लेने का,
ये लहजा।
माँ! तू यह नहीं समझती थी...
अब भूल गई मैं,
बाबा की पगड़ी।
टूट गई रिश्तों की डोर,
रोक नही पाई,
अपने ज्वालामुखी,
का विस्फोट...
दहक रहा था रोम रोम,
हर क़तरा था, बग़ावत पर..
माँ! क्या तू यह समझती थी?
तार तार हो गई,
बिखर कर मैं...
पाकीज़गी पर दाग़ लगा,
सातों वचन भी न...
न्याय कर सके,
इस वक़्त की दरिंदगी पर।
माँ! क्या तू यह समझती थी?
बाज़ार में जाकर,
बिक गई जो...
उसकी क़िस्मत भी,
धानी थी।
तेरी छवि-सलोनी की तुझको,
ना क़ीमत कोई आनी थी...
माँ! क्या तू यह समझती थी?
ख़ुद से हर पल एक,
घिन सी आती।
अंग अंग खरोंच के,
ख़ुद को समझाती।
कुछ और लिखा था,
तक़दीर में...
माँ! क्या तू यह समझती थी?
अंजाम आ गया,
जो नियति ने लिखी थी।
जो आग लगी थी,
इस मन में...
वो तन में भी समा गई,
आज एक सुकून सा मिला है।
आज़ादी को महसूस किया है,
अब कोई न छू पाएगा।
माँ! इतना तो तू समझती थी न...
यह अग्नि परीक्षा पूर्ण हुई,
न पायल न महावर की,
बेड़ी है पैरों में...
न सिंदूर की लाज बचानी है।
अब तो पंख फैलाकर,
यह पाखी उड़ जानी है।
माँ! इतना तो तू अब समझती है।
एक पहल तो,
तू भी कर लेती...
जो मेरी ताक़त
बन जाती।
तेरी यह छवि सलोनी,
इंसाफ़ मेरा भी कर जाती...
फिर भी क्यों तू न बोली? जब,
सब कुछ तू समझती थी...