मालिक तो हम हैं
डॉ. हरि जोशीदोनों वृद्ध हो चुके थे अतः एक दूसरे को सहारा देते हुए चल रहे थे। आर्थिक दशा भी समान ही थी अतः दोस्ती में प्रगाढ़ता थी। एक की कमीज़ फटी हुई थी तो दूसरे की धोती। दोनों के पाँव नंगे थे पर सिर गर्व से तने हुए।
कुछ मिनिट पूर्व एक कार बगल से गुज़री थी, किन्तु कार के मालिक की दृष्टि इन फ़ालतू लोगों पर नहीं पड़ी थी। आगे जाकर कार बाज़ार में रुक गई। दोनों मित्रों में से एक कुँअर विक्रम ने कार स्वामी से ख़ुद ही प्रश्न किया, "बाबूजी आजकल बहुत व्यस्त रहने लगे हैं, व्यापार में इतने रम गए हैं कि पुराने परिचितों को ही भुला बैठे?"
"नहीं नहीं। अरे हुज़ूर आपका ही तो खा रहे हैं। धंधे की परेशानियों में इतना उलझा हुआ हूँ कि बगल से निकल आया पर आपको ही नहीं देख पाया। माफ़ करेंगे? जल्दी ही आपके दर्शन करने आऊँगा। आज्ञा हो तो अभी चलूँ? थोड़ा जल्दी में हूँ," आँख की शर्म करते हुए कार मालिक ने झुककर उत्तर दिया।
राजाराम ने कुँअर विक्रम की ओर ससम्मान देखा और पूछ लिया, "यह कौन सज्जन थे? आपसे कितनी विनम्रता से बात कर रहे थे?"
"बात असल में यह है कि मेरे पिता इस राज्य के राजा थे। बाबूलाल के पिता उस ज़माने के कोषागार के मुंशीजी। बहुत विश्वसनीय और कर्मठ। इतने विश्वसनीय कि पिताजी का पूरा पैसे का हिसाब-किताब यही देखते थे। बाद में राज्य भले ही चला गया, मुंशीजी लम्बे समय तक बने रहे। धीरे-धीरे मुंशीजी संपन्न होते गए और पिताजी कंगाल। जब पूरा ख़ज़ाना खाली हो गया तो मुंशीजी ने भी नौकरी छोड़ दी, व्यापार करने लगे। नदी सूख जाये तो सारे पक्षी भी उड़ जाते हैं।
"किन्तु आपने अपनी आँखों से देखा वह कार से उतरे, झुक कर मुझे हुज़ूर ही कहा?" कुमार विक्रम ने मूँछों पर हाथ फेरते हुए कहा- "कुछ भी कहो, आज भी वह हमें मालिक ही मानता है और ख़ुद को सेवक।"
"मैं भी मालिक हूँ, तभी तो आपसे गहरी मित्रता है," राजाराम ने भी अपनी फटी कमीज़ का कॉलर दोनों हाथों से उचकाते हुए कहा।
"वह कैसे?" कुँअर विक्रम ने प्रश्न किया।
राजाराम ने अपनी स्मृति को कुरेदते हुए उत्तर दिया, "उस दिन लाल बत्ती वाली कार में, बन्दूकधारियों की सुरक्षा के बीच मंत्री भी आये थे। हमारे विधायक भी उनके स्वागत के लिए एक पाँव पर खड़े थे।
खूब खा पीकर आये होंगे क्योंकि ख़ूब डकार ले रहे थे। भाषण भी सांड की डकार का आभास दे रहा था। हमें तो बैठने को दरी भी नहीं मिली। लोगों ने जो जूते चप्पल छोड़े थे उन्हीं पर हम बैठ गए।
भाषण में उन्होंने हमें भी देश का मालिक ही बताया। कह रहे थे: मतदाता ही इस देश का मालिक है, हम तो उसके छोटे से सेवक हैं।"
अब दोनों एक दूसरे का कन्धा पकड़कर चाय की गुमटी में थे। आर्डर दे रहे थे, "दो चाय लाना, कट। याने एक को दो बनाकर।"
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