माई!
अलका ‘सोनी’
“माई, ज़िद छोड़ दे। अब तेरी उम्र नहीं रही कि तू इतनी दूर से पानी लाकर प्याऊ चलाये। मुझे भी काम की वजह से सुबह-सुबह निकलना पड़ता है। अब तू अकेले यह काम मत कर।”
सुवेश ने माई को समझाने की भरसक कोशिश की। लेकिन माई पर तो जैसे कोई धुन सवार थी।
“तुझे फ़ुर्सत नहीं तो ना सही। मैं यह काम नहीं छोड़ सकती,” सुवेश को चुप करा कलश सर पर रख माई चल पड़ी प्याऊ की ओर।
हर बढ़ते क़दम के साथ वो अपने अतीत में समाती जा रही थी . . .
“अरे, कोई तो दे दो चुल्लू भर पानी!! बच्चे का मुँह सूखा जा रहा है,” एक व्याकुल माँ, तपते रेगिस्तान में करुण गुहार लगा रही है। लेकिन दूर तक कोई नज़र नहीं आ रहा।
उसने भागकर आस-पास देखा, शायद किसी ने प्याऊ लगाया हो। लेकिन वह भी नहीं दिखा। हताश माँ करे तो क्या करे!! बच्चे को वहीं छोड़ एक ओर दौड़ पड़ी। काफ़ी दूर जाने के बाद एक घर नज़र आया। गिलास भर पानी माँग लायी बच्चे के लिए।
लेकिन अफ़सोस कि आते-आते बहुत देर हो चुकी थी . . .
चीत्कार कर उठी थी वो।
बस, मन ही मन प्रण लिया कि अपने जीते-जी वे किसी को प्यासे नहीं रहने देंगी। अपना एक बेटा खो चुकी थीं वो। अब किसी दूसरे का नहीं खोने देंगी। बस, तब से घर की चौखट के बाहर प्याऊ लगाना शुरू कर दिया था उन्होंने।
आज जब छोटे बेटे ने मना कर दिया, तब उनका यह प्रण टूटने की जगह और मज़बूत हो गया। चौखट पार कर बाहर पानी का कलश रख दिया। पानी का पुण्य सबसे बड़ा होता है। यह बात माई जान चुकी थी।
3 टिप्पणियाँ
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बहुत सुन्दर लघुकथा
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ओह! अति संवेदनशील कहानी.....
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बहुत ही अच्छी लघुकथा! बहुत बहुत बधाई!