लोकतंत्र का पर्व
सपना नागरथ
लाशें उठकर कहतीषैं,
पंचनामे की टेबल पर,
लोकतंत्र का परिणाम हूँ मैं
आ पड़ा बेजान इस टेबल पर।
कभी मुझ में श्वास गर्म था,
धमनियों में रक्त संचालित था,
मन में उदीप्त प्रकाश प्रचंड,
उल्लास से उर आलोकित था।
मेरे यहाँ नेता योजना,
चला करतीं पंचवर्षीय हैं,
फिर आता वह अनोखा पर्व,
जिसकी अनुभूति स्वर्गीय है।
लोकतंत्र का महा उत्सव,
देशवासी निकले गर्म जोशी से,
पर देखा जब हाल-ए-महल्ला,
दिल थर्राया ऐसी ताजपोशी से।
महीनों की मशक़्क़त सबकी,
जो कि सबने ईमानदारी से,
वह दिन भी कुछ कम ना था,
भरा था द्वेष, रक्त लिप्सा, मक्कारी से।
लोकतंत्र का पर्व ख़त्म हुआ,
परिणाम हूँ मैं, पड़ा हुआ,
बेजान ठंडी स्टेचर पर,
डॉक्टर की नश्तर चीर-फाड़ करते कलेवर।
मत तो मैं दान किया,
यह अपनी नियति मान लिया,
पर क्या यह सभी को मनोनीत है?
सोच कर देखो! देख-भाल लिया।
लाशें उठकर कहती हैं,
पंचनामे की टेबल पर,
क्या यही उत्सव मनाओगे सदा?
सोचो कल तुम पड़े हो इस टेबल पर।