लोक और तन्त्र में स्त्रियाँ: लोकतंत्र के पहरुए

15-06-2024

लोक और तन्त्र में स्त्रियाँ: लोकतंत्र के पहरुए

राजनारायण बोहरे (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

हर मानव समाज के भीतर दो तरह के समाज होते हैं, नागर समाज और लोक समाज। पढ़े-लिखे और तमाम नियमों व ‘टेबू’ में बँधे लोग नागर समाज के सदस्य होते हैं। 

नागर अथवा भद्र समाज के प्रतिकूल या विलोम लोक समाज या जनता माना जाता है। शब्द शास्त्र के अनुसार लोक का तात्पर्य जनता या जन सामान्य होता है। वही जनता जिससे जोड़ कर संसार के आधुनिक प्रशासन तंत्र को लोक तंत्र कहा गया, जनता की शासन प्रणाली के लिए अब्राहम लिंकन ने इन शब्दों में परिभाषित किया था, ‘लोकतन्त्र जनता की, जनता के लिए, जनता का शासन है।’(1) 

यह परिभाषा और प्रणाली विश्व के अधिकांश देशों में स्वीकार कर ली गई है। समाज शास्त्र और लोक प्रशासन के विद्वान यह जानने का यत्न करते रहते हैं कि इस लोकतंत्र में लोक कितना है और तंत्र कितना है। लोक ही इस शासन प्रणाली का असली मालिक है और तंत्र यानी मशीनरी यानी कर्मचारी अधिकारी उसी लोक के सेवक हैं। इस लोकतंत्र का असली संरक्षक तो न्यायपालिका यानी न्यायालय होता है। लेकिन समाज में लोकतंत्र की मर्यादा संविधान की मर्ज़ी के अनुरूप तंत्र की गतिविधियाँ आदि ठीक से चल रही है या नहीं, यह ऑडिट करने के लिए चौथा पक्ष यानी लोकतंत्र का चौथा खम्बा भी सक्रिय रहता है। पहले प्रिंट मीडिया और विजुअल मीडिया ही इस ऑडिट टीम का हिस्सा थे। जिनकी अपनी सीमाएँ थीं। वर्तमान युग में जब हर हाथ में मोबाइल है और हर व्यक्ति सोशल मीडिया के व्हाट्सएप, फ़ेसबुक, इंस्ट्रा, लिंकडीन इत्यादि माध्यमों पर कोई भी फोटो वीडियो ऑडियो अथवा टेक्स्ट मटेरियल पोस्ट करने के लिए स्वतंत्र है और जागृत जन मानस तथा लोक उसे वायरल भी कर देता है। तब मीडिया का हिस्सा भी उतना ही सक्रिय सजग और शक्तिशाली हो चुका है जितना लोकतंत्र के तीनों हिस्से यानी व्यवस्थापिका कार्यपालिका और न्यायपालिका होती है। देखा जाए तो जनसेवक भी लोकतंत्र के रक्षक या पहरुए कहे जा सकते हैं तो न्यायालय भी और पत्रकार भी। 

जब सत्ता पक्ष संविधान से बाहर जाता है तो विपक्ष लोकतंत्र के पहरे हुए की भूमिका में होता है। इन सब मुद्दों पर विस्तृत विचार एक उपन्यास में देखने को मिलते हैं जिसका शीर्षक है ‘लोकतंत्र के पहरुए’(2) और इसकी लेखिका है पदमा शर्मा! उपन्यास के कवर पर उपन्यास के बारे में ‘ककसाड़’ पत्रिका की संपादक कुसुम लता सिंह लिखती हैं “यह उपन्यास गणतांत्रिक व्यवस्था और खुले समाज में क्रांति लाने की अपेक्षा एक सवाल रखता है और हमारी आत्मा को खरोंचता है।”(3) प्रसिद्ध आलोचक डॉक्टर बजरंग बिहारी तिवारी की टिप्पणी पुस्तक कवर पर इस प्रकार है “जब लोकतंत्र गहरे संकट में है तब लोकतंत्र के पहरुए पढ़ना विशेष महत्त्व रखता है। एक तरफ़ विनय पांडेय तो दूसरी तरफ़ पंडित सुदर्शन तिवारी। एक पहरुआ . . . दूसरा संकट।”(4) 

चुनाव के दिनों में भारतीय समाज में लोक को अच्छा ख़ासा महत्त्व दिया जाता है। क्योंकि चुनाव में धनिक वर्ग व भद्र समाज तो ज़्यादा वोटिंग करता नहीं है, लोक समाज ही करता है। सर्विस पेशा लोग व व्यापारी भी व्यस्तता के चलते मतदान कक्ष तक बहुत कम पहुँचते हैं। 

लोक में स्त्री की हैसियत क्या है और तंत्र में कैसी है उसकी हैसियत कैसी है यह हर देश के लोकतंत्र तथा सजग समाज शाम समिति तथा विकसित मानवीय मूल्यों को प्रकट करता है भारत वर्ष में स्त्रियों को आरक्षण किया गया है चुनाव की सीटों पर भी कुछ सिम केवल स्त्रियों के लिए सुरक्षित की गई है यूँ तो शासकीय भर्ती में भी स्त्रियों के स्थान आरक्षित हैं और आज़ादी के बाद से ही स्त्रियों की तंत्र में हिस्सेदारी पर्याप्त होती रही है बड़े पदों पर यानी तंत्र के बड़े ऑफ़िसरों के रूप में स्त्रियाँ चयनित की गई हैं यानी उन्होंने अपनी योग्यता से चयन की श्रेणी में प्रदर्शन कर बड़े पद हासिल किए हैं। हाँ, लोक या लोकतंत्र अर्थात्‌ तंत्र का वह हिस्सा जो जनता द्वारा निर्वाचित किया जाता है, उसमें आरक्षित स्त्रियों की जगह पुरुष ही सक्रिय रहते हैं। अनेक जगहों पर तो स्त्रियाँ केवल नाम मात्र की जन प्रतिनिधि होती हैं, उनके दस्तख़त और सील उनके पति या बेटे के पास होती है। लोकतंत्र के पहरुये में तंत्र के कलेवर में तो स्त्रियाँ ताक़तवर दिखती हैं, यहाँ महिला अधिकारी ही कलेक्टर है, जबकि निर्वाचन प्रक्रिया हेतु स्त्रियों को सुरक्षित जगह के लिए ‘संतो’ को टिकट दिलाने के लिए उसका पति जगना रात दिन एक कर देता है। संतो जो ख़ुद राजनीति और चुनाव में कोई दिलचस्पी नहीं लेती पति के कहने पर इस घुड़दौड़ में शामिल होती है इस घुड़दौड़ का अंत संतो के लिए पैसा नहीं रहता जैसा वह चाहती थी जैसा वह समझती थी। लोक यानी समाज में स्त्री पूरी तरह मर्ज़ी के काम भी करने को आज़ाद है। सन्तो भी अपनी मर्ज़ी से ही जगना से शादी करती है। छात्र जीवन में कॉलेज के चयन और विषय चयन सहित कैरियर निर्धारित करने में भी हमारे यहाँ स्त्रियों को आज़ादी है तो ब्यूरोक्रेसी में भी स्त्रियाँ सशक्त भूमिका में हैं। 

1.1 लोक में स्त्री

लोक समाज में स्त्री बड़ी निडरता, मस्ती व ज़िन्दादिली के साथ जीती है। वह प्रेम भी करती है तो पूरी तन्मयता से और ग़ुस्सा भी करती है तो पूरी ताक़त से। 

1.2 निडरता

सन्तो गाँव की निडर लड़की है। वह घर से खाना लेकर स्कूल में चपरासी की नौकरी कर रहे भाई को देने आई है कि देखती है एक तगड़ा सा युवक उसके भाई की गिरेबान पकड़े है। 

“सन्तो कुछ न समझ पाई, पर भैया के संग ये मंज़र देखा तो उसने टिफ़िन तो एक तरफ़ रखा। जगना जिस हाथ से फेरन का कॉलर पकड़े था, सन्तो ने आव देखा न ताव उस हाथ को झटके से खींचा और दोनों हाथ से पकड़कर उसकी कलाई में ज़ोर से काट लिया। वह दर्द के मारे चीख पड़ा। उसने हाथ से ज़ोर का झटका दिया तो दाँत पर ज़ोर लगा और सन्तो के दाँत से भी थोड़ा लहू बहने लगा।”(5) 

यह निडरता लोक समाज की हर उम्र की स्त्री को क़ुदरत ने बख़्शी है। 

1.3 दुराव छिपाव मुक्त मन

लोक की स्त्री को जो कहना होता है, कह देती है। मन की बात प्रकट करने को न वह मौक़ा देखती न सामने वाले व्यक्ति की मानसिकता। 

“पंडितजी बड़े व्यस्त दिख रहे थे, उन्हें जीत की ख़ुशी में पार्टी का भी इंतज़ाम करना था, कि जगना की महतारी बड़ी-सी लाज डाले झुर्री वाले चेहरे को छुपाती हुई बड़ी मुश्किल से उनके निकट आई और बोली, ‘मराज पतइ फलें, दूधई नहावें, बच्चा जुग जुग जीवें . . . मेरी गोद की भी लाज रख लो।’

पंडितजी को लगा रंग में भंग पड़ रहा है। इस वक़्त अच्छी-अच्छी शान-शौकत वाले लोग फर्राटे वाली गाड़ियों में हवेली आ रहे हैं और ये कंगीरन कहाँ से आ टपकी। उनके चेहरे पर एक साथ कई भाव आए लेकिन कूटनीति का दिमाग़ उन सबको बहाकर ले गया। भीतर की राजनीति ने उनके चेहरे की कलफ बरक़रार रखी। 
अपने आपको संयत करके बड़े मीठे स्वर में बोले, ‘अम्माँ हम कोशिश कर रहे हैं, इस काम में . . . तुम्हारा लड़का जल्दी छूट जाएगा’।”

निरक्षरता के कारण इंसान दाँव-पेंच नहीं सीख पाता और उसमें वह चतुराई नहीं आ पाती कि कौन-सी बात कब कहनी है। यही हाल जगना की महतारी का हुआ। वो बोली, “वैसे तो कई बार जेहल हो आओ है तिहाए कारन। लेकिन जा बार ऊ की हालत ठीक नइयै। बा की तबियत खराब है। तुमसे हाथ जोड़े की विनती है, तुम्हाए हा हा खाऊँ। हमाए बिटवा को जल्दी छुड़वा लो।”

‘तिहाए कारन जेहल हो आओ है’ ये वाक्य पंडितजी के दिल में तीर की तरह चुभ गया।

शब्दों का भी अपना तापमान होता है। ये जला भी देते हैं और सुकून भी देते हैं। आज तक किसी की हिम्मत नहीं हुई इस तरह कुछ कहने की। कई आदमी तो हाथ-पैर तुड़वा चुके थे। पिछले चुनाव में जो गोली-बारी हुई थी, उसमें किसना की जान चली गई थी, लेकिन उसके घर के किसी व्यक्ति ने उन्हें उलाहना नहीं दिया। वे सब किसना की मौत को अपनी क़िस्मत का फेर मानते थे। पंडितजी का चेहरा तमतमाने लगा। उनकी भृकुटी टेढ़ी होते देख उनके आदमी डोकरी को बाहर ले गए। डोकरी का रुदन हवेली के संगीत में दबकर रह गया।”(6) 

1.4 दाँवपेंच से मुक्त

निरक्षर स्त्री भी सत्य का आसरा नहीं छोड़ती, वह दाँव पेंच नहीं जानती। परिणाम की परवाह किये बग़ैर सच बताने में कोई हिचक नहीं। उसे कितना भी झूठ पढ़ा लो वह नहीं पढ़ती। 

जगना ध्यान से उन सभी को उनकी ही तरह से और उनके ही बोली में सब समझा रहा था, वह शहर की बोली नहीं बोल रहा था ताकि किसी को यह न लगे कि वह शहर में रहने की ठसक दिखा रहा है। 

फिर वह एक बूढ़ी अम्मा सावित्री से बोला, “माता राम तेरे पैर पहूँ तू कोई ए गारी मत देइए। पिछली बार वोट डरवावे वाले अधिकारी खों इतेक गारी दई कि बेचारे ने कान पकड़ लए। वो तो पंडितजी की किरपा हती कि उनके नाम से बच गई, नईं तो तोकों जेहल हो जाती और मोए सुनने पड़ती सो अलग . . . तोए जब गरियावे को मन होए तो मोखों गारी दे लेइए। नहीं तो मेरी जनीमांस सन्तो खों गारी दे देइए।”

वह एकदम टन्ना के बोली, “हओ मैंने का ग़लत कही थी अपओं नाम ई तो बताओ थो जावित्री। वो नासमिटो कह रओ थो कि मेओ नाम जावित्री नईए।”

“अरे मेरी भोली अम्मा, तेरो नाम जावित्री है ई नईं। तिहाओ नाम है सावित्री।” (7) 

यह झूठ अनेक बार सिखाओ लेकिन लोक समाज की आम स्त्री के भीतर का छल छंद हीन मन झूठ नहीं सीख पाता, मौक़ा पाते ही सच उगल देता है। 

“बस्ती की बूढ़ी काकी सत्तो एक लड़के का सहारा लेकर लठिया टेकते हुए आई। मतदान अधिकारी ने उनसे नाम पूछा तो बोली, “पतो नइए।”

साथ वाले लड़के ने कहा, “बुढ़ापे में मति सठिया गई है। रामदेई नाम है, रामदेई पत्नी बल्देव।”

एक कर्मचारी ने काग़ज़ पकड़ाया तो बुढ़िया बोली, “मैं नहीं ले रई कोई कागद।”

“क्या वोट नहीं देना किसी को?” 

“नई दैनो।”

“तो आई क्यों हो?” 

लड़के की तरफ़ इशारा करते हुए बोली, “जे लकइया लगो ल्याओ है, नासपीटी कह रओ थी के पिछले साल मरी रामदेई के नाम से वोट डाल दिए तो चश्मा बनवा देगो।”(8) 

1.5 गीत, पहेलियाँ, लोकनृत्य

लोक समाज की स्त्रियाँ जब अपनी रोज़ की चिंता, फ़िक्र और परेशानियों से पल भर को मुक्ति पाती हैं तो इनके भीतर की मस्ती प्रकट होती है। कहावतें, पहेली, लोक गीत और लोक नृत्य इनके अवचेतन मन में बसे रहते हैं, जो मौक़ा पाते ही साकार रूप धर लेते हैं। 

1.5.1 लोक गीत

“आवाज नहीं करियो।” जगना अभी सबके साथ ही बैठ गया। किसी ने बूढ़ी से कहा, “अरे काकी भजन तो गा लो, यात्रा शुरू हो गई।” बस फिर क्या था ढोलक सँभाली जाने लगी। झींका और मँजीरे वाली भी मुस्तैदी से बैठ गईं। काकी ने एक औरत से कहा, “बजा ढोलक।”

काकी ने गीत गाना शुरू किया,

“भिलनी को बोर लाईं चाखी चाखी! 
 खइया मारा राम जी ने हिरनी राखी!!” हुर्र . . . 

काकी एक लाइन गा देती थीं उसके बाद सब लोग उस लाइन को दोहरा रहे थे। काकी का गाना ख़त्म हुआ तो सबने जगना की महतारी से गाने के लिए कहा। वह जगना की ओर देखने लगी। जगना ने कहा, “गा दे अम्मा . . .” उसने ट्रक रुकवाया और ड्रायवर के पास वाली सीट पर बैठ गया। 

जगना की अम्मा ने गाना शुरू किया-

“के अनिहें सुहानारी, के अनिहें कंगना कि के अनिहें कंगना, 
 हो के अनिहें कंगना से के अनिहें . . . हिरदिया दरपनवाँ . . .”

ट्रक एक छोटा-सा कमरा जैसा ही लग रहा था। कोई बैठा ऊँघने लगा . . . किसी ने अपने पैर फैलाकर अपने लेटने की जगह बना ली।(9) 

1.5.2 पहेलियाँ

समय काटने के लिए लोक समाज के स्त्री पुरुष परस्पर पहेलियाँ और अंचल में प्रचलित लोक छंद सुनाते हैं। 

दूसरे ट्रक में भी ऐसे ही गीत-संगीत चल रहा था। 
सभी ने कक्का से ज़िद की तो वे औठपाय सुनाने लगे—

“ताल सरोवर जाइ के, कूदि कूदि रह्यो नहाय। 
जल तैरन जाने नहीं, बेई मरिबे के औठपाय।”
तब तक धन्नू बोला, “कक्का जई कौ जोड़ा और सुना दो।” 
कक्का बोले, “ठीक है, सुन—
“एक पाय बिल्कुल नहीं, दूजो चोट गयो खाय। 
 भाज्यो डोले भीति पै, बेई मरिबे के औठपाय।”(10) 

1.5.3 लोकनृत्य

सामान्य दिनों में पूरी ज़िम्मेदारी से अपने काम में जुटी स्त्री अपने काम पूरा होते ही मस्ती करने लगती है। वह मन में छिपे उलाहने, शृंगार भाव और चुहल के भाव लोकगीत के साथ नृत्य के माध्यम से प्रकट करती है। 

रात को शहर के आदिवासी टोले के लोग फ़ॉर्म हाउस पर आकर उतरे। जगना के सारे परिजन उनसे मिलकर बहुत ख़ुश हुए। वहाँ गाना आरम्भ हुआ, मँजीरे बजने लगे, ढोलक की थाप पर बहुरियाँ नाच उठीं। ऐसे मौक़े कम ही मिलते हैं, जब सब इकट्ठे होकर रोज़ी-रोटी से निश्चिन्त, मिल-जुल कर बैठ पाते हैं, सो अनेक लोग रंग में थे और कुछ लोग तो ठुमका भी लगा रहे थे। 

सन्तो ने कत्थई रंग की सस्ती बनारसी साड़ी पहनी हुई थी और आज अपने लोगों के बीच अपना शहरीपन दिखाने के लिए उसने अच्छा-ख़ासा मेकअप भी कर रखा था। 

सबसे ज़्यादा मस्त होकर वही नाच रही थी, जगना मोहित-सा उसे एकटक देखे जा रहा था। जगना की महतारी भी फूली नहीं समा रही थी। 

सन्तो ने गाना गाते-गाते फिर से पैरों में घुँघरू बाँध लिए। गाना शुरू हो चुका था . . . सभी महिलाएँ समवेत स्वर में गा रही थीं:

“सासुल पनिया कैसे जाऊँ, रसीले दोई नैना . . . 
बहू ओढ़ो चटक चुनरिया और सिर पे रखो गगरिया। 
छोटी ननदी को ले लेओ साथ। रसीले दोई नैना . . . 
तुम बैठो कदम की छैया हम भर लाएँ ठंडो पनिया
ननदी घर मत कहियो जाय, रसीले दोई नैना . . . 
वो ननदी असल खबरिया, बाने द्वारे से टेर लगाई 
भैया भाभी के दो दो यार!! रसीले दोई नैना . . . 
मैं जेठ में ब्याह करूँगी, वैशाख में विदा करूँगी 
ननदी कबहूँ न लेऊँ तेरो नाम। रसीले दोई नैना . . . (11) 

1.5.4 लोक संस्कृति व शृंगार

लोक की स्त्रियों को ख़ुशी के मौक़े कम मिलते हैं। जब कोई तीज-त्योहार या मेले-ठेले होते हैं तो वे मन लगा कर उसमें हिस्सा लेती हैं। इसके लिये ख़ूब साज-शृंगार भी करती हैं। इन साज-शृंगार लोक के पीढ़ियों से प्रचलित ज़ेवर, गहने और कपड़ों से होता है।

इंतजार की घड़ियाँ बड़ी देर से निकल रही थीं। चैत्र मास भी आ गया था। 

होलिका दहन के पहले से भगोरिया मेले की रौनक़ शुरू हो जाती है। मेले में लड़‌कियाँ पीले, नीले, गुलाबी लहँगे और ओढ़नी के साथ सजधज कर आई थीं। लड़कियाँ चाँदी के आभूषण पहने थीं। 

कानों में फूलझुमका तथा अंगोट्या, झेला, लटकन जैसे गहने पहने थीं। कोई-कोई लड़की हाथों में कड़ा, गरी, चाँट, या चूड़ी पहने थीं . . . उँगलियों में बींटी, दामणा, हथपान, छड़ा, तथा पैरों में कड़ा, लंगर पायल, पायजेब, नूपुर, घुँघरू झाँझर, नेवरी आदि पहने थीं। नाक में वारी, या काँटा पहने थीं। कमर में कंदोरा और करधनी भी बाँधे थीं।(12) 

1.6 निश्छल व द्वन्द्व मुक्त प्रेम

लोक की स्त्री अपना प्रेम भी निश्छल व द्वन्द्व मुक्त भाव से प्रकट करती है। 

सन्तो उसके मज़ाक़ से खिसियाकर बोली, “उत्तर भी तो लिखवा दो गुरु जी। कल तक उत्तर नहीं मिला तो बस आफत हो जाएगी,” सन्तो ने मुँह बनाकर कहा। 

फिर दोनों हँसने लगीं। इप्सिता ने बड़ी मुश्किल से एक दोहा ढूँढ़कर निकाला—
“नयना अंतर आव तू पलक ढाँप तोहे लेऊँ।
ना मैं देखूँ और कू ना तोहे देखन देऊँ ॥” 
सन्तो ने हाथ जोड़कर कहा, “आदरणीय गुरु जी इसका भी तो अर्थ बता दो।”

इप्सिता बोली, “ध्यान से सुनिए—प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्य पुस्तक बाली इसा भारती के कबीरदास के दोहे से लिया गया है। इसमें कवि कहता है कि तुम मेले आँखों के रास्ते से मेरे हृदय में आ जाओ, फिर मैं अपनी पलकें बन्द कर लूँगी। जागे। उसके बाद न मैं किसी और को देखूँगी और न ही तुम्हें किसी और को देखने दूँगी।”

फिर उसने सन्तो के सिर पर एक धौल जमाते हुए कहा, “कुछ आया खोपड़ी में?” 

फिर दोनों हँसने लगीं। 

पूछा था जगना ने कि “इतने कठिन दोहे कहाँ से लिखे?” 

“मेले गुरुआइन हैं न इप्सिता देवी। और तुमने किससे पूछा “

“मेरा यार है न, करण” (13) 

1.7 स्त्रियों के खेल-तमाशे

भद्र और शहरी समाज की स्त्रियों के पास इनडोर गेम और आउट डोर गेम के बहुत से विकल्प हैं, लेकिन लोकसमाज की स्त्रियों व लड़कियों के पास छियापत्ती, चपेटा, डोर कूद, आइस-पाईस और लँगड़ी जैसे सीमित खेल हैं। 

सन्तो बीडियो गेम से ऊब गई थी। वहीं उसने जाना था कि इनको इनडोर गेम कहते हैं। 

वह इप्सिता के साथ गाँव के खेल खेलने की मनुहार करती। इप्सिता उसकी बोली में परिवर्तन करना चाहती थी, वह बोली, “अब तुम मेले जैसी बोली में नहीं बोलीं तो तुम पर जुर्माना लगेगा।”

एक दिन सन्तो ने इप्सिता से कहा, “आज लँगड़ी खेलेंगे।”

इप्सिता आश्चर्य में थी कि जिसके एक पैर होता है उसे लँगड़ा या लँगड़ी कहते हैं। ये भला कौन-सा गेम होता है। पापा भी जब कहते लँगड़ा आम लेकर तब वह ताली बजाकर हँसती कि “इसके पैर कहाँ हैं जो ये लँगड़ा है, इसके तो पैर ही नहीं, नहीं ये तो लूला आम है।”

खेल के बारे में बताते हुए सन्तो ने उससे कहा, “पहले जगह तय करनी पड़ती है।”

उसने लकड़ी से लाइन खींचकर एरिया फ़िक्स कर दिया। फिर बोली, “अब मैं एक पैर से दौड़कर आपको छूने की कोशिश करूँगी। आपको छू लिया तो आप हार जाओगी। फिर आप पर धाम आ जाएगी। तब आप एक पैर से दौड़कर मुझे छूने की कोशिश करना।”

वह इप्सिता की बोली में धीरे-धीरे ही बोल पाती थी। 

इप्सिता ने कहा “ओक्के!”

कई दिनों तक उनका ये गेम चलता रहा। मैडम भी खुश कि लड़की घर में बैठकर खेलती थी, मैदान में खेलेगी तो व्यायाम भी हो जाएगा और शरीर भी ठीक रहेगा। 

उन लोगों को खेलते देख शाम को कॉलोनी के अन्य बच्चे भी खेलने आने लगे। 

सन्तो उन सबकी सरदार थी। वे सब उसे दीदी कहते थे। उसके द्वारा ही तय होता कि आज कौन-सा गेम खेला जाएगा। 

उसके बाद उसने छुपम-छुपाई खेल सिखाया। उसने कहा, “मैं अपनी आँखें बन्द करके बोलूँगी—‘अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो, अस्सी नब्बे पूरे सौ, सौ में लगा धागा, चोर निकल के भागा, रूप की रानी सोती थीं, खूब माँग भरती थीं, चियो मियो धप्प . . .’ मेरे ये कहने तक आप सब छुप जाना। मैं एक-एक करके सबको ढूँढ़ लूँगी। जिसको मैं सबसे पहले ढूँढ़ लूँगी उसी पर धाम आएगी। सब छुपे लोगों को ढूँढ़ने के बीच में ही यदि किसी ने मेले पीठ पर हाथ लगाकर ‘धप्पा’ कर दिया तो मेरे ही फिर से धाम आ जाएगी।’(14) 

2.0 तंत्र में स्त्री

लोक और राजनीतिक जगत में भले ही स्त्री की सत्ता में भागीदारी रही हो लेकिन लम्बे समय से तंत्र यानी सरकारी मशीनरी पर पुरुषों का क़ब्ज़ा रहा। राजनीति में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्री से लेकर पंच सरपंच तक स्त्रियाँ चुनी गईं हैं और उन्होंने अपने दायित्वों का ख़ूब निर्वाह किया है। 

तंत्र सरकारी मशीनरी में स्त्रियों के लिए जब से स्थान आरक्षित किये गए हैं, तेज़ी से स्त्रियों ने अपनी जगह हासिल की और ज़िम्मेदारी को पूरी निष्ठा से निभाया भी। 

2.1 कर्मठता

स्त्रियों को ब्यूरोक्रेसी में जब-जब जो प्रशासनिक ज़िम्मेदारी दी गयी उन्होंने कर्मठता से उसे निभाया। लोकतंत्र में चुनाव सबसे महत्त्वपूर्ण और सम्वेदनशील अभियान होता है। इसमें राजनैतिक दवाब, गुंडागर्दी, कर्मचारी मैनेजमेंट से निपटते हुए बहुत बड़े विज़न और दृढ़ इच्छा शक्ति की ज़रूरत होती है। 

कलेक्टर यानी ज़िला मजिस्ट्रेट मैडम गायत्री सिंह की पेशानी पर बल पड़े हुए थे। निर्वाचन आयोग ने नियम के तहत उन्हें ज़िला निर्वाचन अधिकारी बना दिया था। उन्होंने दो महीने पहले वोटर लिस्ट दुरुस्त करने व उसमें आपत्ति और परिवर्तन की भी निर्धारित तारीख़ जारी के लिए आदेश दे दिए थे। फिर सारा ही उन्होंने मतदाता सूची पर हस्ताक्षर दिया। चुनाव आयोग की डेट डिसाइड होते ही मैडम कलेक्टर ने आदर्श आचार संहिता लागू कर दी। 

वे रोज़ ही दौरे पर निकल जाती थीं। मतदान स्थलों का निरीक्षण करतीं तो तहसील कार्यालयों में नाम निर्देशन पत्र भरने वाले स्थानों का मुआयना करतीं। वह मतगणना स्थान की व्यवस्था का जायज़ा कई बार ले चुकी थी। 

अपनी डायरी में उन्होंने सिलसिलेवार आवश्यक बातें नोट कर ली थीं। जो काम वे कर लेतीं उन पर लाल स्याही से ‘टिक’ लगा लेतीं। चुनाव कराने का उनका पहला अवसर था। वे यही सोचतीं कि सब अच्छी तरह निबट जाए। वे अपने बैचमेट और सीनियर से भी सलाह-मशविरा करती रहतीं। उन्होंने चुनाव अधिकारी नियुक्त कर दिए थे और स्ट्रोंग रूम की व्यवस्था हो चुकी थी। दो बार वे अपने मातहतों के साथ स्ट्रोंग रूम की व्यवस्था देखने जा चुकी थीं। 

तहसील के हिसाब से अलग-अलग फ़ॉर्म भरने की व्यवस्था के आदेश जारी किए जा चुके थे। निर्वाचन कार्यालय में ज़िला जनसम्पर्क अधिकारी को देख-रेख में तीन टेलीविज़न लगाकर उन पर सारे डिस्क कनेक्शन कराके न्यूज़ चैनल सेट कराया फिर राउंड ओ क्लॉक ड्यूटी लगाकर मीडिया सेल की भी व्यवस्था कर दी उन्होंने। मास्टर ट्रेनर रोज़ाना पीठासीन अधिकारी, नम्बर एक, नम्बर दो और नम्बर तीन को बारी-बारी से प्रशिक्षित कर रहे थे। माइक्रो ऑब्जर्वर आदि का भी प्रशिक्षण चल रहा था। पिछले चार दिन से वे एक दिन में कई मीटिंग लेती थीं।(15) 

पत्रकार ऐसी महिला अधिकारी की सक्रियता को ख़ूब हाइलाइट करते हैं। 

सांझ समय उसने एक छोटा-सा वीडियो सब माध्यमों पर अपलोड किया जिसका मज़मून इस प्रकार था—
 कलेक्टर ने देखी प्रशिक्षण की व्यवस्थाएँ

“आज ज़िला निर्वाचन अधिकारी और कलेक्टर गायत्री सिंह ने नगर के पॉलीटेकनिक कॉलेज सहित डिग्री कॉलेज में चल रही ट्रेनिंग का जायज़ा लिया। कई प्रशिक्षणार्थियों से गायत्री सिंह ने वीवीपैट, बी.यू., सी.यू. और नोटा से सम्बन्धित सवाल भी पूछे, जिनका सही-सही जवाब उन्हें मिला। जिस तरह की सख़्ती और सक्रियता कलेक्टर अभी दिखा रही हैं, वह मतदान के दिन दिखाएँगी या नहीं यह देखना अभी बाक़ी है।”(16) 

2.2 हाज़िर जवाबी

स्त्रियों के भीतर बचपन से ही एक शिक्षक और अभिभावक महिला छिपी रहती है। वह सवाल पूछने और सहज भाव से परीक्षा लेने में हिचकिचाहट अनुभव नहीं करती। मज़े के बात यह कि अगर परीक्षार्थियों के रूप में महिलाएँ हैं तो दोनों तरफ़ से कोई सवाल अनुत्तरित नहीं रह सकता, क्योंकि सीखते समय महिला कर्मचारी ज़्यादा सजग रहती है। 

फिर वे एक महिला टीचर की तरफ़ मुड़ीं और उनसे पूछा, “वीवीपैट मशीन किसे कहते हैं?” 

हड़बड़ाते हुए टीचर ने जवाब दिया, “वोटर वैरिफायबल पेपर ऑडिट ट्रेल यानी मतदाता सत्यापनीय दस्तावेजी जाँच प्रमाण।”

प्रशिक्षण लेने वाले और मास्टर ट्रेनर सब लोग घबरा रहे थे। सबकी जान साँसत में थी। कलेक्टर मैडम एक के बाद एक प्रश्न करती जा रही थीं। मास्टर ट्रेनर को चिन्ता थी कि यदि प्रशिक्षण लेने वाले ठीक ढंग से उत्तर नहीं दे पाए तो उन लोगों पर भी डाँट पड़ेगी कि वे लोग कैसा प्रशिक्षण दे रहे हैं। कलेक्टोरेट के कर्मचारी भी चिन्ता में थे कि मैडम कहेंगी कि इन सबको प्रश्नपत्र क्यों नहीं दिए जा रहे जिनके उत्तर का प्रपत्र मास्टर ट्रेनर से चैक करवाया जाए। उन्होंने आगे पूछा, “हाँ तो अब बताओ एक बैलेट यूनिट में किता अभ्यर्थी हो सकते हैं?” 

“मैडम पन्द्रह अभ्यर्थी और एक नोटा मिलाकर सोलह अभ्यर्थी होते हैं क्योंकि नोटा भी एक अभ्यर्थी के रूप में लिया गया है। पर इसका मतलब तो है कि जो अभ्यर्थी हैं इनमें से किसी को नहीं“

“सोलह से अधिक अभ्यर्थी होने पर क्या करते हैं?” 

“तब एक और बैलेट यूनिट लग जाती है।”

“सी.आर.सी. का क्या मतलब है?” 

“जी मैडम क्लोज़, रिज़ल्ट और क्लियर।”(17) 

2.3 सजगता

स्त्री को बचपन से ही हर पल सतर्क रहने की शिक्षा और हिदायत दी जाती है। अगर तंत्र में उन्हें कोई ज़िम्मेदारी मिलती है तो वे बड़ी सतर्क व सजग रहती हैं। पुरानी घटना या इतिहास वे स्मरण में रखती हैं। 

पिछली कलेक्टर मैडम के साथ मंत्री जी को मीटिंग लेनी थी। जब वे आए, कलेक्टर मैडम ने उन्हें कुर्सी ऑफ़र की वे कलेक्टर की कुर्सी पर ही बैठ गए और कलेक्टर मैडम बग़ल वाली कुर्सी पर बैठ गईं।

 “हूँ” गायत्री सिंह ने लम्बी साँस ली। 

“जैसा कि मीडिया वाले मीटिंग के समय फोटो खींचते हैं . . . उस फोटो पर मीडिया में इस बात की ख़ूब निन्दा की गई कि मंत्री जी को कलेक्टर की कुर्सी पर नहीं बैठना चाहिए था।”

गायत्री सिंह के चेहरे पर मुस्कान तैर गई। ”फिर क्या हुआ?” 

एडीएम भी थोड़े तनावमुक्त हुए। स्मित मुस्कान के साथ बोले, “फिर मंत्री जी नाराज़ हुए। उन्हें लगा कलेक्टर मैडम का इसमें हाथ है। बस उनका टांसफर करवा दिया।”

गायत्री सिंह अभी भी मुस्कुरा रही थीं। वे मन ही मन सोच रही थीं कि सब लोगों के अपने-अपने उसूल होते हैं। कुर्सी ही तो पद का प्रतीक होती है, उस पर वही बैठ सकता है जो उसका अधिकारी होता है। राजनीति में सच पूछें तो कुर्सी की ही तो लड़ाई है। 

वे बोलीं, “इन दिनों न कोई मंत्री का तनाव है न सांसद का। अपने को निर्वाचन आयोग के निर्देशों का पालन करना है, किसी से नहीं डरना!”

“जी सर!”(18) 

2.4 सख़्ती

महिला अधिकारी पुरुषों की तुलना में ज़्यादा सख़्त रहतीं हैं। यह उनकी मजबूरी भी है क्योंकि नर्मी पाकर नेता और कर्मचारी उनके निकट पहुँच ने की कोशिश करते हैं जबकि सख़्त रहने से एसबी ऑर्डिनेट से एक दूरी भी बनी रहती है और काम भी सतर्कता से संपादित किये जाते हैं। 

2.5 सम्मान देने का भाव

सफल ब्यूरोक्रेट वह होता है जो सबको सम्मान देता है। वह सबकी सुनता है और मीठी ज़ुबान से बात भी करता है। मैनेजमेंट का यह सिद्धांत भी है कि टीम लीडर की टीम में हर आदमी को लगे कि कप्तान हमारी बात सुनेगा भी और समस्या का हल भी निकालेगा। 

“जी सर!”

कलेक्टर चैम्बर के बग़ल में एक बहुत बड़ा हॉल था जो अभी वेटिंग हॉल में तब्दील था। उसमें तीन-चार बेंचें रखी थीं। वहीं पर कलेक्टर मैडम की डाइस थी। इस हॉल के बाईं ओर मीटिंग कक्ष बना था। दाईं ओर रीडर का कमरा था। हॉल में बैठे लोग आपस में चर्चा में मशग़ूल थे। बहुत धीमी आवाज़ में एक सज्जन बोले, “ये कलेक्टर मैडम पहले वाली कलेक्टर मैडम से अच्छी हैं। कर्मचारियों की बात सुनती हैं और हल भी बताती हैं।”

“सही कहा, सबसे सम्मान से बात करती हैं। पहले वाली मैडम तो अपमानित करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ती थीं।”

“हाँ अड़ियल थीं और प्रोफ़ेसरों को तो मास्टर कहती थीं। पता नहीं किस बात से चिढ़ी थीं। नेताओं की बात भी नहीं मानी तो नेताओं ने ट्रांसफ़र करवा दिया।”

“हाँ दूसरी जगह कलेक्टर बनाकर नहीं भेजा उनको। वो तो अब भी लूप लाइन में हैं।”(19) 

2.6 शोषण

शासन की उच्च नौकरशाही यानी ब्यूरोक्रेसी में नई युवतियों को शोषण का भी कभी-कभार सामना करना पड़ता है। अनेक युवतियाँ इस कारण नौकरी छोड़ देती हैं। 

“क्या ग्लैमर है इस नौकरी में . . . बड़े-बड़े अधिकारियों के संग बैठना और मातहतों पर रोब पेलना . . .” जगना ने कहा। फिर जगना चुटकी लेता हुआ बोला, “अब तो भैया अपने जैसी अधिकारी लड़की ढूँढ़कर चट मँगनी पट ब्याह कर लो . . .”

करण अनमना-सा बोला, “हमारी इस नौकरी में लड़कियों का बहुत शोषण हो रहा है। कलेक्टर और उससे बड़े अधिकारी जब बुलाएँ तब हाज़िरी देनी होती है . . . चाहे दिन हो या रात। कई बार देर रात तक भी काम करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में वे मानसिक दबाव में रहती हैं। क्योंकि पुरुष अधिकारियों का चरित्र भी बहुत अच्छा नहीं होता है। कई तो बेचारी अन्तत: आत्मसमर्पण कर ही देती हैं।”

“अरे बाप रे!” जगना चिन्तित स्वर में सिर्फ़ इतना ही बोला। गहन चिन्तन में डूबी हुई करण की आवाज़ आई, जैसे गहरे कुएँ से कोई बोल रहा हो, “इस कारण कुछ महिलाएँ तो नौकरी छोड़कर चली गईं।”(20) 

3.0 लोकतंत्र में स्त्री

लोकतंत्र तो हर व्यक्ति का अपना तंत्र माना जाता है, यहाँ तो जाति-पाँति, मज़हब-धर्म ही नहीं जेण्डर का भी कोई भेदभाव नहीं रहता। पुरुष और स्त्री में कोई भेदभाव नहीं होता, बल्कि जेण्डर के तीसरे वर्ग को भी सारी स्वतन्त्रता प्राप्त हैं। स्त्री को लोकतंत्र के किसी भी पद पर चुनाव लड़ने की आज़ादी है, उन पदों पर भी जो स्त्री को आरक्षित नहीं किये गए हैं। 

3.1 क़स्बों में स्त्री नेता असुरक्षित

छोटे क़स्बों और गाँवों में अभी स्त्री स्वतंत्र की चेतना और राजनीति में स्त्री की अस्मत व अस्मिता की सुरक्षा के नज़रिये का आना बाक़ी है। हम अख़बार और टेलीविज़न पर ऐसी घटनाएँ पढ़ते रहते हैं। 

स्त्री को अभी भी नर्म लक्ष्य माना जाता है। उनके साथ दैहिक जबर्दस्ती यानी यौनिक हिंसा पुरुषों के अनेक कार्य सिद्ध कर देती है। एक तरफ़ इस कायराना मर्दानगी से वे स्त्री को अपनी प्रतियोगिता से बाहर कर देते हैं वहीं दूसरी ओर जीवन भर के लिए उसे एक कुण्ठा, बेइज़्ज़ती, बदनामी और मनोवैज्ञानिक अवसाद के गढ़े में पटक देते हैं। 

3.2 पुरुष से बदले का लक्ष्य

अनेक बार पुरुष का बदला स्त्री के साथ यौनिक हिंसा से लिया जाता है। यह चोट ऐसी होती है कि पुरुष को इससे उबरने में बड़ा समय लगता है। कोई दुश्मन अचानक सामने आ जाये तो साज़िश के तहत पुराने नेता यही तरीक़ा अपनाते हैं। 

सन्तो को राजधानी गए पाँचवाँ दिन था . . . शाम को एक जीप घर के दरवाज़े पर आकर रुकी तो जगना दौड़कर दरवाज़े की ओर लपका। देखा सन्तो जीप में अकेली थी। उदास-सी वह नीचे उतरी तो ढंग से खड़ी भी नहीं हो पा रही थी। जगना का मन काँपा, उसने ग़ौर से देखा कि चार दिन की व्यस्तता के कई निशान पत्नी के चेहरे पर उभर रहे थे। 

वह उसे सावधानी से पकड़कर आहिस्ता से अन्दर लाया और खटिया पर बिठा दिया। अचानक उड़ गए पल्लू के हटते ही जगना ने देखा कि गाल के निशानों की तरह सन्तो के गले और ब्लाउज से भी ख़ूब सारे निशान झाँक रहे हैं। उसे समझते देर नहीं लगी कि राजनीति ने उससे क्या छीन लिया है? 

वह ग़ुस्से में थरथराने लगा, आँखें लाल हो गईं, नथुने फूलने लगे। उसने सवालिया निगाहों से पत्नी को देखा। 
ज़मीन ताकती सन्तो ने ब्लाउस के भीतर खुड़सा पार्टी का टिकट निकाला और उसकी तरफ़ बढ़ाते हुए सहमी आवाज़ में कहा, “काम हो गया!” . . . और वह बेहोशी के आग़ोश में लुढ़क गई . . .(21) 

निष्कर्ष

वर्तमान युग में स्त्रियों की सार्वजनिक दशा और दिशा का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि एक तरफ़ स्त्री लोक जगत में अभी भी स्वतंत्र और स्वाभाविक जीवन जीती है, जहाँ उसकी समस्त योग्यता प्रकट होती है, वहीं तंत्र में भी वह अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देती है। फिर भी उसके ऊपर अनेक अप्रत्यक्ष दबाब होते हैं और उस पर नकारात्मक फ़ीडबैक का असर होता है। लोकतंत्र में यद्यपि आज़ादी के पहले से स्त्रियाँ चुनी जाकर जन प्रतिनिधियों के रूप में बड़े पद पर आरूढ़ रह चुकी हैं, तथापि स्थानीय स्तर पर अभी भी नारी अपने स्थान की प्राप्ति और अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है। 

राजनारायण बोहरे
एम.ए. (हिन्दी साहित्य) 
कहानीकार व समीक्षक
ओल्ड हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी
दतिया मध्यप्रदेश 475661

सन्दर्भ सूची:

  1. ‘Democracy is a Government ‘of the people, by the people, for the people’ was made by Abraham lincolan, 16 th president of the United States (1861 to 1865) 

  2. लोकतंत्र के पहरुए (उपन्यास) लेखिका-पदमा शर्मा, सान्निध्य बुक्स दिल्ली, 2022 

  3. कुसुमलता सिंह, सम्पादक कक्साड़, पुस्तक कवर, लोकतंत्र के पहरुए (उपन्यास) लेखिका—पदमा शर्मा, सान्निध्य बुक्स दिल्ली, 2022

  4. डॉ. बजरंग विहारी तिवारी, समालोचक, पुस्तक कवर, लोकतंत्र के पहरुए (उपन्यास) लेखिका—पदमा शर्मा, सान्निध्य बुक्स दिल्ली, 2022

  5. वही, पृष्ठ 65 

  6. वही, पृष्ठ 99-100 

  7. वही, पृष्ठ 37 

  8. वही, पृष्ठ 90 

  9. वही, पृष्ठ 39 

  10. वही, पृष्ठ 39 

  11. वही, पृष्ठ 92 

  12. वही, पृष्ठ 72 

  13. वही, पृष्ठ 72 

  14. वही, पृष्ठ 63 

  15. वही, पृष्ठ 32-33 

  16. वही, पृष्ठ 44 

  17. वही, पृष्ठ 43 

  18. वही, पृष्ठ 35 

  19. वही, पृष्ठ 35 

  20. वही, पृष्ठ 142 

  21. वही, पृष्ठ 158

 

 

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